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बाल अधिकारों का उलंघन न हो!

Shiv Kumar Mishra
14 Nov 2021 7:57 AM GMT
बाल अधिकारों का उलंघन न हो!
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अरविंद जयतिलक

देश हर साल 14 नवबंर को बाल दिवस मनाता है। लेकिन चिंता की बात यह है कि देश में सख्त बाल कानून होने के बावजूद भी बाल अधिकारों का उलंघन बढ़ता जा रहा है। विगत कुछ वर्षों में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने बाल अधिकारों के उलंघन की हजारों शिकायतें दर्ज की है। इसमें से ज्यादतर शिकायतें बच्चों के यौन उत्पीड़न, बाल मजदूरी और बच्चों की तस्करी से जुड़ी हुई है। जबकि देश का संविधान बच्चों के संरक्षण और एवं अधिकारों की रक्षा के लिए कई सुविधाएं देता है। संविधान के अनुच्छेद 15 (3) राज्य को बच्चों एवं महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए अधिकार देता है। अनुच्छेद 21 (ए) राज्य को 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए अनिवार्य तथा मुफ्त शिक्षा देना कानूनी रुप से बाध्यकारी है। अनुच्छेद 24 में बालश्रम को प्रतिबंधित तथा गैर कानूनी कहा गया है। अनुच्छेद 39 (ई) बच्चों के रक्षा व स्वास्थ्य की व्यवस्था करने के लिए राज्य कानूनी रुप से बाध्य है। इसी तरह 39 (एफ) के मुताबिक बच्चों को गरिमामय विकास के लिए आवश्यक सुविधा उपलब्ध कराना राज्य की नैतिक जिम्मेदारी है।

इसके अलावा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 23 और 24 में स्पष्ट व्यवस्था है कि मानव तस्करी व बलात् श्रम के अलावा 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखानें और जोखिम भरे कार्यों में नहीं लगाया जा सकता। 1976 का बंधुआ मजदूरी उन्मूलन एक्ट भी बच्चों को संरक्षण प्रदान करता है। भारत सरकार के श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने भी 16 खतरनाक व्यवसायों एवं 65 खतरनाक प्रक्रियाओं मंु 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को रोजगार देने पर रोक लगाया है। पिछले वर्ष केंद्र सरकार ने बाल श्रम कानून में भारी बदलाव के जरिए कौशल विकास को बढ़ावा देने, रोजगार के अवसर सृजित करने और कारोबार के अनुकूल माहौल निर्मित करने की दिशा में पहल करते हुए बाल श्रम (प्रतिबंध और नियमन) संशोधन विधेयक 2012 को मंजूरी दी। इसके लिए सरकार ने प्रस्तावित बाल श्रम विधेयक 2012 के संशोधनों के जरिए बाल श्रम अधिनियम 1996 में प्रमुख बदलाव किया जिसके जरिए 14 से 18 वर्ष के उम्र के बच्चों के काम की नई परिभाषा तय की गयी और दूसरा बच्चों से खतरनाक कामों और प्रक्रियाओं में काम कराना प्रतिबंधित किया गया। कानून का उलंघन रोकने के लिए नियोक्ताओं के खिलाफ कड़े दंड का प्रावधान किया गया। इस कानून के मुताबिक अगर कोई पहली बार कानून का उलंघन करता है तो उसे छह महीने की कैद होगी और इस सजा को दो साल तक बढ़ाया जा सकेगा। इसके अलावा 20 हजार से 50 हजार रुपए तक के जुर्माने का भी प्रावधान किया गया। कोई नियोक्ता बच्चों का शोषण न कर सके इसके लिए प्रतिबंध की आयु को मुक्त अनिवार्य शिक्षा कानून, 2009 के तहत जोड़ दिया गया। यह भी सुनिश्चित किया गया कि शिक्षा के समय के उपरांत बच्चा विज्ञापन, फिल्म टेलीविजन धारावाहिकों या किसी मनोरंजन या किसी खेल गतिविधियों में काम कर सकता है।

कानून गढ़ते वक्त सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का भरपूर ध्यान रखा गया। इसलिए कि देश में बड़े पैमाने पर बच्चे कृषि कार्य एवं कारीगरी में अपनी माता-पिता की मदद करते हैं। साथ ही उनसे काम भी सीखते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि इस कड़े कानून के बाद भी बच्चों का शोषण थम नहीं रहा है। छोटे-छोटे दुकानों से लेकर बड़े-बड़े माॅल तक इन्हें काम करते देखा जा सकता है। एक अनुमान के मुताबिक इस समय देश में सवा करोड़ से अधिक बाल श्रमिक मौजूद हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक बनी एक रिपोर्ट के अनुसार 25 प्रतिशत बाल श्रमिक शहर में रहते हैं जबकि शेष तीन-चैथाई गांवों में रहते हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी स्वीकार चुका है कि उसके पास बाल श्रम के हजारों मामले दर्ज हैं। सरकार को चाहिए कि बाल श्रमिकों की सुरक्षा व पुनर्वास के लिए जरुरी कदम उठाए। उनको शिक्षा के साथ बेहतर भविष्य की गारंटी दे। अगर उन्हें स्थानीय स्तर पर काम मिले तो फिर उनकी तस्करी पर लगाम कसेगा। किसी से छिपा नहीं है कि देश में बड़े पैमाने पर बच्चों की तस्करी हो रही है। आए दिन बच्चों के लापता होने की खबरें भी सूर्खियां बन रही है।

एक आंकड़े के मुताबिक देश में प्रतिदिन एक दर्जन से अधिक बच्चे लापता होते हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी कह चुका है देश में हर साल चालीस हजार से अधिक बच्चे गुम होते हैं। यह स्थिति तब है जब मंत्रालय द्वारा लापता बच्चों को ढुंढ़ने के लिए 'ट्रैक चाइल्ड' और 'खोया-पाया' पोर्टल चलाया जा रहा है। स्वयंसेवी संगठनों का मानना है कि इन लापता बच्चों का इस्तेमाल बाल श्रमिक के रुप में किया जा रहा है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा देश की शीर्ष अदालत में दाखिल अपने हलफनामें में स्वीकारा जा चुका है कि 2013-15 के दौरान कुल 25,834 बच्चे लापता हुए। इसी जरह राज्यसभा में सरकार की ओर से 79,721 बच्चों की लापता होने की जानकारी दी गयी। यही नहीं बच्चों को नौकरी की लालच देकर भी उन्हें बड़े-बड़े महानगरों में काम करने के लिए ढ़केला जा रहा है। विडंबना यह भी कि इन लापता बच्चों का इस्तेमाल सिर्फ बाल श्रमिक के रुप में ही नहीं बल्कि वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी जैसे घृणित कार्यों में भी किया जा रहा है। एक जिम्मेदार राष्ट्र और संवेदनशील समाज के लिए यह स्थिति शर्मनाक है।

आंकड़े बताते है कि भारत 14 साल से कम उम्र के सबसे ज्यादा बाल श्रमिकों वाला देश बन चुका है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक दुनिया भर में तकरीबन बीस करोड़ से अधिक बच्चे जोखिम भरे कार्य करते हैं और उनमें सर्वाधिक संख्या भारतीय बच्चों की ही है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ के मुताबिक विष्व में करीब दस करोड़ से अधिक 14 साल से कम उम्र की लड़कियां विभिन्न खतरनाक उद्योग-धंधों में काम कर रही हैं। देश की राजधानी दिल्ली में ही सरकार के नाक के नीचे लाखों बच्चे श्रमिक, घरेलू नौकर और भिखारी के रुप में कार्य करते हैं। ऐसा नहीं है कि इसकी जानकारी सरकार को नहीं है। लेकिन आश्चर्य है कि इसे रोकने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हो रही है। सिस्टम नींद की गोलियां लेकर सो रहा है और मनमानी करने वाले आजाद हैं। गुनाहगारों के साथ काानून कड़ाई से काम नहीं कर रहा है। यह समझा जा सकता है कि जब देश की राजधानी दिल्ली में बच्चों पर होने वाले अत्याचार थम नहीं रहे हैं तो देश के बाकी हिस्सों में क्या होता होगा। देश के विभिन्न हिस्सों से आए दिन बच्चों के साथ ज्यादतियां की खबरें अखबारों की सूर्खियां बनती रहती हैं।

याद होगा गत साल पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने बाल मजदूरी को लेकर सख्त नाराजगी व्यक्त करते हुए सरकार, दिल्ली पुलिस और श्रम विभाग को ताकीद किया कि बाल मजदूरी से जुड़ी शिकायतों पर 24 घंटे के भीतर कार्रवाई हो और बचाए गए बच्चों को मुआवजा देने और उनके पुनर्वास का काम 45 दिनों में सुनिश्चित हो। लेकिन इस पर अमल होता नहीं दिख रहा है। चैंकाने वाला तथ्य यह भी कि माफिया तत्व अत्यंत सुनियोजित तरीके से बच्चों का इस्तेमाल हथियारों की तस्करी और मादक पदार्थों की सप्लाई में करने लगे हैं। यह भारत के लिए खतरनाक संकेत है। बाल मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि इससे बच्चों का बालमन पर बुरा असर पड़ेगा और उनमें नशाखोरी और आपराधिक भावना की वृद्धि होगी।

बेहतर होगा कि केंद्र सरकार व राज्य सरकारें बच्चों के अधिकारों के उलंघन के प्रति संवेदनशील हो अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब देशद्रोही ताकतें बच्चों का इस्तेमाल आतंकवादी और विध्वंसक गतिविधियों में करेगी। आज जरुरत इस बात की है कि केंद्र व राज्य सरकारें बच्चों के शोषण के विरुद्ध न सिर्फ कड़े कानून बनाएं बल्कि उसे रोकने के लिए जिम्मेदार तत्वों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई भी करंे। सरकार के अलावा समाज और स्वयंसेवी संस्थाओं की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह बच्चों के अधिकारों का उलंघन रोकने के लिए आगे आएं। सिर्फ सरकार के कंधे पर बच्चों के शोषण को रोकने की जिम्मेदारी सौंपकर निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता।

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