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इतिहास में पहली बार किसान की दिवाली सड़क पर

Shiv Kumar Mishra
3 Nov 2021 6:06 AM GMT
इतिहास में पहली बार किसान की दिवाली सड़क पर
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शकील अख्तर

किसान ने बहुत दुःख झेले, तकलीफें उठाईं मगर ऐसा कभी नहीं हुआ कि उसकी दीवाली सड़क पर मनी हो। परिवार से दूर। किसान बहुत पारिवारिक किस्म का इंसान है। खेती किसानी में पूरा परिवार साथ काम करता है। कभी परिवार से दूर किसान रहता ही नहीं है। मगर इस बार 11 महीने से वह अपने गांव, खेत, परिवार से दूर सड़कों पर है। दूसरों के भरोसे फसल कटी है। खलिहान में आई है। वह दीवाली पर एक दिया खलिहान में जलाता था, एक खेत की मेढ़ पर, एक अपने दरवाजे की चौखट पर, और एक अनाज भरने वाली कोठरी में। कम से कम यह चार दिए हर किसान जलाता था। इस बार वह आंख में चार आंसू लिए यहीं सड़क पर दिया जलाएगा। सरकार की सद्बुद्धी के लिए। जिस सरकार को किसान ने हमेशा माई बाप से कम नहीं कहा उसके अंदर ममता पैदा करने के लिए।

माई बाप इतने ममत्वहीन हो सकते हैं यह किसी ने कब सोचा था। उस किसान के लिए जो हर तरह से देश का सबसे मुख्य आधार है। कहने को उसे अन्नदाता कहते थे मगर उसका भी कोई मान नहीं रखा। यह शब्दों का धोखा निकला। वह देश का सैनिकदाता, श्रमिकदाता भी है। सीमाओं पर तैनात जवान किसान के बेटे ही हैं। और शहरों में सड़क, बिल्डिंगें, मेट्रो, फ्लाई ओवर बना रहे मजदूर भी उसी के बेटे हैं। किसान भारत की आत्मा है। उसकी शक्ति है। प्रगति, सुरक्षा है। मगर उसको इस तरह दर बदर कर दिया गया कि लगता है कि वह हमारे देश का सबसे निरर्थक प्राणी है। क्या वाकई! किसान के बिना देश चल सकता है? अनाज का शायद यह आयात कर लें। मगर क्या फौज के जवान और श्रम का काम करने वाले भी बाहर से मिल जाएंगे? और देश के किसान, उनके बेटे और बाकी श्रम शक्ति बेरोजगार हो जाएगी? कैसा देश बना रहे हैं हम। क्या यह सब काल्पनिक बातें लिख रहे हैं हम? आज से एक साल पहले क्या कोई यह कह सकता था कि किसान की दीवाली सड़क पर मनेगी? कोई सोच भी नहीं सकता था। कल्पना की दूर की कौड़ी लाने वाले कवियों, लेखकों की किसी रचना में किसान की दीवाली सड़क पर होने का जिक्र नहीं है। यह फसल का टाइम होता है। किसान की मुख्य फसल का। खरीफ जो वर्षा आधारित होती है। हर किसान बिना सिंचाई के साधन वाला भी इस फसल में प्रकृति की कृपा से कुछ ले लेता है। मोटी फसलें ज्वार, मक्का इसी समय होती हैं। धान ( चावल) भी।

किसान दिवाली से पहले कुछ बेचने बाजार आता है। बच्चों की दिवाली का सामान लाने। खील बताशे। कुछ कपड़े। ऐसे में कभी वह एक दो दिन शहर में भी रुक जाता है। अनाज मंडी में। लेकिन किसी वजह से अगर मान लो दिवाली से एक दो दिन पहले उसकी फसल नहीं बिकी, सही दाम नहीं लगे। तो वह आड़तिए के पास अपनी फसल छोड़कर उससे कुछ पैसे लेकर बच्चों के लिए कुछ मिठाई, खिलौने, पत्नी, मां, बहन के लिए कुछ नया कपड़ा, साड़ी लेते हुए गांव वापस आ जाता है। मगर दीवाली पर वह घर से दूर कहीं नहीं रहता। और वही क्या कोई नहीं रहता है।

आज के लड़के लड़कियां जो ज्यादा परपंरा नहीं निभाते वे भी दीवाली को जरूर घर पहुंचने की कोशिश करते हैं। जहाजों में किराए बढ़ जाते हैं। ट्रेन बसों में भीड़। मगर बाहर काम कर रहे युवा साल में एक बार यह एडवेंचर भी करते हैं। मां बाप, भाई बहन के लिए सामान से लदे फंदे लड़के लड़कियां बिना रिजर्वेशन के भी ट्रेनों में घुसते हैं। और बसों की छतों पर बैठकर भी घर पहुंचते हैं।

आज तो यह नमाज, शुक्रवार कर रहे हैं। मगर क्या इन्हें यह मालूम नहीं है कि हिन्दुस्तान में हर व्यक्ति दीवाली मनाता है। लेकिन नफरत और विभाजन की राजनीति का ऐसा अस्त्र इन्होंने पकड़ा जो देश और समाज के साथ खुद इन्हें भी चोट पहुंचाए बिना छोड़ेगा नहीं। भारत आज दुनिया में अगर इतना नाम और सम्मान रखता है तो वह यहां के प्रेम, अहिंसा, सत्य, भाईचारे, मेल मिलाप की परंपराओं की वजह से है। भक्तों को यह जो चाहे पाठ पढ़ाएं मगर रोम में पोप जब भारतीय प्रधानमंत्री से गले मिलते हैं तो वे भारत की उन महान परंपराओं से मिल रहे होते हैं जिन्होंने दुनिया को प्रेम और सहिष्णुता का संदेश दिया।

शहंसाह अकबर जो खुद बड़े धुमधाम से दीवाली मनाते थे के समय में वाल्मिकी रामायण का फारसी में अनुवाद हो गया था। उनके प्रसिद्ध नवरत्न और गोस्वामी तुलसीदास के मित्र अब्दुल रहीम खान ए खाना ने लिखा है –

" रामचरित मानस विमल, संतन जीवन प्राण

हिन्दुअन को वेदसम जमनहिं प्रगट कुरान।"

नजीर बनारसी का तो अंदाज ही अलग है। वे शुरू ही यहां से करते हैं –

" मेरी सांसों को गीत और आत्म का साज देती है

ये दिवाली है सबको जीने का अंदाज देती है।"

इसके बाद देखिए कितने सुंदर तरीके से वे गरीब अमीर सबकी रोशनी को समान बताते हैं। कहते हैं-

" सभी के दीप सुंदर हैं, हमारे क्या तुम्हारे क्या

उजाला हर तरफ है इस किनारे उस किनारे क्या

हजारों साल गुजरे फिर भी जब आती है दीवाली

महल हो चाहे कुटिया सब पे छा जाती है दीवाली।"

और उर्दू के महाकवि (अल्लामा) कहलाने वाले इकबाल का यह शेर तो सबसे आगे है। वे कहते है-

" हे राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज

अहले नजर समझते हैं उसको इमामे हिन्द"

यह देश इन्हीं परंपराओं पर चला है। महान बना है। कोई सोचे कि गोडसे दुनिया में भारत को ख्याति दिला देगा तो उसकी एक मूर्ती कहीं विदेश में स्थापित करने की कोशिश करना चाहिए। गांधी की तो हर जगह मिल जाती है। जो वहीं की संस्थाओं, सरकारों ने बनाई होती हैं। अभी इटली में प्रधानमंत्री मोदी गांधी जी की प्रतिमा के सामने श्रद्धावनत देखे गए।

हिन्दु मुसलमान करके यह देश को कितना महान बना देंगे पता नहीं! विदेशों में फिर भारत का कितना सम्मान होगा नहीं पता! मगर शायद इन्हें पता होगा इसलिए ये हर समय पूरी मेहनत इसी पर करते रहते हैं। दूसरी तरफ से भी कम कोशिशें नहीं होतीं। अखिलेश यादव यह ज्ञान देने लगते हैं कि जिन्ना कहां और किस किस के साथ पढ़े थे। उनसे कोई पूछे कि इस समय जिन्ना की प्रासंगिकता क्या है? मगर देश के, उत्तर प्रदेश के सामने जनता की वास्तविक समस्यों को परे धकेलकर ये वह सारे सच्चे, झूठे, जरूरी, गैरजरूरी मुद्दे ले आएंगे जो मामले को हिन्दु मुसलमान दिशा की तरफ ले जाते हों।

किसान, मजदूर, छोटा दुकानदार जिसकी दुकान इस साल भी दीवाली पर नहीं चली। क्योंकि लोगों के पास पैसा ही नहीं है। बेरोजगार, महंगाई की मार से परेशान मध्यमवर्ग इन लोगों के रडार पर ही नहीं है। किसी को चिन्ता, दुःख, तकलीफ नहीं है कि किसान सड़क पर दिवाली मनाएगा। यह सब अपने घरों में खूब रोशनी करेंगे। परिवार के साथ खाएंगे, पिएंगे। कुछ लोग आतिशबाजी चलाकर भी बताएंगे कि हम सुप्रीम कोर्ट का कोई आदेश नहीं मनते। उधर गांव में किसान का परिवार अपने घर के मुख्य सदस्य की गैरमौजुदगी में और यहां सड़क पर किसान अपने परिवार को याद करते हुए एक दो दिए जलाएंगे। किसान तो आशावादी है। हर हाल में उम्मीद रखता है। वह उम्मीद का दिया जलाएगा। अगर हम में से भी किसी को याद रहे तो एक दिया देश के किसान के नाम हम भी जला दें। किसान ने बरसों बरस हमारे चुल्हे जलवाए हैं। अच्छे और सस्ते गेहूं की गरम रोटियां खिलवाई हैं। अगर ये कृषि कानून वापस नहीं हुए तो खेतों में कौनसा अनाज उगेगा। क्या खाने को मिलेगा और किस भाव होगा इसकी अभी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। तस्वीर भयावह होगी!

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