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सात वर्ष पहले लिखी थी पत्रकार विकास मिश्र ने ये पोस्ट, पत्रकारिता में हिंदी का 'नरक' युग

विकास मिश्र
15 Sep 2021 2:52 AM GMT
सात वर्ष पहले लिखी थी पत्रकार विकास मिश्र ने ये पोस्ट, पत्रकारिता में हिंदी का नरक युग
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न्यूज चैनल देखूं या अखबार..। जैसे ही किसी शब्द में मात्रा, वर्तनी की अशुद्धि दिखती है तो लगता है जैसे पुलाव खाते हुए, अचानक दांतों के बीच मोटा सा कंकड़ पड़ गया हो। पत्रिकाओं, अखबारों में मैंने काम किया, न्यूज चैनल में काम कर रहा हूं और एक प्रवृत्ति भी देख रहा हूं कि वर्तनी और मात्रा को लेकर अब न बहस होती है और न ही लड़ाई। आठ साल से तो मैं खुद 'नरक' की लड़ाई लड़ रहा हूं। मैं जानता हूं कि सही शब्द है-नरक, लेकिन न्यूज चैनलों में अमूमन दिख जाता है-'नर्क'। जैसे स्वर्ग लिखते हैं, वैसे ही 'नर्क' लिख देते हैं। एक चैनल में मोटे-मोटे अक्षरों में 'नर्क' चल रहा था, उनकी अपनी ब्रेकिंग न्यूज थी, घंटों चलना था और सेट पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था-'नर्क' । उस चैनल में कई साहित्यप्रेमी, साहित्य मर्मज्ञ भी हैं। मैंने फोन करके कहा-सर इस 'नर्क' को नरक करवा दीजिए। कम से कम आपके यहां नहीं चलना चाहिए। वो बोले- घंटे भर से यही चल रहा है, अब बदलना ठीक नहीं होगा। उन्होंने बदला नहीं, बदलवाया नहीं। चैनल पर ये 'नर्क' चलता ही रहा। मैंने फोन करके टोकने का काम नहीं छोड़ा। अपने ही एक सहयोगी चैनल पर जब ये 'नर्क' देखा तो चैनल हेड को टोका। बोले-चलता है, इतना ध्यान नहीं देना चाहिए। परसों रात इंडिया टीवी पर ये 'नर्क' आ गया। एक पुराने साथी से कहा ठीक करवा लीजिए। बोले- यहां तो गजब किस्म का राज है। एक वर्ग है जिसने कुछ शब्दों के गलत प्रयोग को ही सही बना रखा है। इसमें कोई दखल नहीं दे सकता। परसों रात मैं इंडिया टीवी के 'नर्क' को सुधारने चला था, लेकिन कल रात मुझे आजतक पर ही ये 'नर्क' दिख गया।

बात सिर्फ इस 'नर्क' की नहीं है। न्यूज चैनल के टिकर, ब्रेकिंग न्यूज, न्यूज फ्लैश में जो शब्द दिखता है, अखबार में जो शब्द छपता है, उसे ही लोग सही मानकर आगे बढ़ते हैं। हमारी जिम्मेदारी है कि शुद्ध और सही प्रयोग करें। गलत प्रयोग से हम अपनी पूरी पीढ़ी बिगाड़ेंगे। मैं अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझते हुए जहां भी, जिस भी चैनल में गलत हिंदी चल रही होती है, वहां वरिष्ठ सदस्य को फोन करके बाकायदा कहता हूं कि इसे ठीक करवा लीजिए। यहां एक नाम मैं जरूर लेना चाहूंगा अजीत अंजुम सर का। न्यूज 24 छोड़ने के बाद किसी भी गलत हिंदी प्रयोग पर जब भी मैंने उन्हें फोन किया, उन्होंने बिजली की रफ्तार से वो गलती ठीक करवाई।

शब्दों के सही प्रयोग पर बहस होनी चाहिए। इसे किसी भी स्तर से शुरू किया जा सकता है। मुझे याद है कि 2006 में मैं नया नया आजतक में आया था। फिल्म 'लगे रहो मुन्नाभाई' के गांधीगीरी शब्द का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा था। ज्यादातर लोग 'गांधीगिरी' लिख रहे थे। मैंने मेल किया कि सही शब्द है-'गांधीगीरी'। उदाहरण भी दिया-जहांगीरी, आलमगीरी। मेल पर बहस छिड़ गई। उस वक्त चैनल हेड थे कमर वहीद नकवी जी। उनका जवाब आया-सही शब्द 'गांधीगीरी' ही है। दादा ने कह दिया तो सही प्रयोग होने लगा।

पांच साल मैंने मेरठ में अमर उजाला और दैनिक जागरण में काम किया। मेरठ में लिखने की भाषा की कुछ जानी पहचानी गलतियां हैं। वहां टैक्स को 'टेक्स' और 'सेक्स' को 'सैक्स' लिखा जाता है। वहां सड़क में ड के नीचे बिंदी नहीं लगती, लेकिन रोड के ड के नीचे लगती है। वहां दस में से 7 मेरठी पत्रकार 'सडक' और 'रोड़' लिखते थे। मैंने पांच साल तक 'रोड' के नीचे की बिंदी उठा उठाकर 'सड़क' के नीचे लगाई।

'यद्यपि सिद्धम् लोकविरुद्धम्, नाचरणीयम् नाकरणीयम्।' का हवाला देते हुए कुछ लोग कहते हैं कि जैसा चल रहा है, वैसा चलाना चाहिए। मैं इसका पक्षधर नहीं हूं। एक बार विद्यानिवास मिश्र जी ने कहा था-हमारा काम जनरुचि के हिसाब से चलना नहीं, बल्कि जनरुचि को मनाकर सही राह पर चलाना है।

पिछले साल की बात है। उस वक्त के रेल मंत्री पवन बंसल का भानजा घपले में पकड़ा गया था। जिस चैनल पर देखो-वहां भानजा की जगह-भांजा। मैंने समझाने की कोशिश की। कहा कि भांजा से लाठी भांजने की ध्वनि आती है। भानजा वस्तुतः बहनजाया और भगिना जैसे मूल से अपभ्रंश हुआ होगा। मैंने शो बनाया और उससे पहले मैंने नकवी सर से बात की। तब वो आजतक में नहीं थे। उनकी मुहर लगी और मैंने-सेट, शो ओपेन के लिए 'भानजा' शब्द दिया। लेकिन जैसे ही शो हिट हुआ-देखा सेट पर लिखा था-'भांजा'। ग्राफिक्स वाले से पूछा-ये तुमने क्या कर डाला। बड़ी मासूमियत से बोला-सर वो ग्राफिक्स में आपने गलत लिखा था, हमने सही कर दिया। दरअसल मैंने गलत नहीं किया था। बरसों से 'भांजा' लिखने वालों ने उसके दिमाग में बिठा दिया था कि सही वही है । खैर मैंने तत्काल वो शब्द बदलवाया, बाद में हमारे कुछ और साथियों ने भी सही रूप चलाया।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में मेरे करियर का आगाज ही था। रमजान आ गए और चैनल में नमाज 'अता' होने लगी। मैंने टोका तो बहस हो गई कि अता ही सही है, लेकिन मैं टिका रहा कि नमाज अदा होती है, न कि अता। मैंने एक नामचीन शायर से एक वरिष्ठ की बात करवाई उन्होंने बखूबी अता और अदा का फर्क बताया। फिर नमाज 'अदा' होने लगी।

हिंदी चैनलों और अखबारों की एक मानक वर्तनी बने, उसके लिए मैं काम करने को भी तैयार हूं। और भी मित्र आगे आएं, हफ्ते भर में ये काम हो जाएगा। मैं अखबार में रहा, जिस चैनल में रहा या हूं। सही वर्तनी, सही शब्द को लेकर मैंने हमेशा बहस की है, वही प्रयोग किया है जो वास्तव में सही है। भाषा तो ऐसी चीज है, जिसमें कोई भी सर्वज्ञ नहीं हो सकता। जितना सीखिए, आगे सीखने को बहुत कुछ बच जाता है। मुझे भी जिस शब्द पर शंका होती है, उस पर दो तीन भाषाविदों से बात करता हूं, पूरा भरोसा हो जाता है तो प्रयोग करता हूं। दूसरे चैनलों से वर्तनी को लेकर फोन आते हैं तो बड़ी खुशी होती है। एक दिन घर में तनाव का माहौल था, फोन आया, एक साथी ने पूछा-सर, धुनाई में ध पर छोटे उ की मात्रा लगेगी या बड़े ऊ की। तनाव भरे चेहरे पर मुस्कान फैल गई।

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