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साहित्यिक पाठकों को विनोद कुमार शुक्ल को जरूर पढ़ना चाहिए, जानिए क्यों?

साहित्यिक पाठकों को विनोद कुमार शुक्ल को जरूर पढ़ना चाहिए, जानिए क्यों?
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रंगनाथ सिंह की फेसबुक से साभार

विनोद कुमार शुक्ल किसी अन्य भाषा में होते तो उसके निज गौरव के प्रतीक पुरुष होते। हम सब अपनी अपनी भाषा में रोज बोलते हैं, लिखते हैं लेकिन उसके चालू मुहावरे की चौहद्दी के पार कभी नहीं झाँक पाते। मेरी राय में हिन्दी और अंग्रेजी में भारत में गिनती के चंद लेखक ऐसे हुए होंगे जिन्होंने अपनी भाषा के मुहावरे और कहन की शैली में इस कदर आमूलचूल परिवर्तन किया होगा जितना विनोद कुमार शुक्ल ने किया है।

विनोद कुमार शुक्ल भाषा और कहन के साथ जो करते हैं वह चमत्कार से कम नहीं है। मुश्किल यह है कि उनकी विलक्षण मौलिकता उन सभी को बहुत कष्ट देती होगी जो उनकी किताबों का अनुवाद करते होंगे। भाषा पर पकड़ लेखक बनने की पहली सीढ़ी है। ये अलग बात है कि बहुत से लोग आजीवन उस पहली सीढ़ी पर खड़े रह जाते हैं और साहित्य की गली से गुजरने वालों के सामने भाषा चमकाकर खुद को साहित्यकार जताते हैं जबकि विश्व इतिहास में ऐसा कोई लेखक नहीं हुआ है जो केवल अपनी भाषा के कारण कालजयी हुआ हो।

विनोद कुमार शुक्ल जिस कहन तक अपने पाठक को ले जाना चाहते हैं उस कहन तक पहुँचने के लिए पुराने भाषायी रास्ते काम न आए होंगे। तभी उन्होंने अपनी आवाजाही से हिन्दी भाषा के मैदान में एक नई पगडण्डी गढ़ी। उनसे पहले हमारी भाषा में यह बात किसी को नहीं पता थी कि जो हाथी चला जा रहा है उसके पीछे-पीछे हाथी जितनी जगह खाली छूटती जा रही है। उनसे पहले विचारों को गरम कोट की तरह किसी हिन्दी लेखक ने नहीं पहना था। करोड़ों की आबादी में 'लगभग जय हिन्द' कहने वाले वह पहले भारतीय हैं।

हर भाषा हजार साल बाद बदल जाती है। शेक्सपीयर की इंग्लिश और आज की इंग्लिश में बहुत फर्क है। अतः साहित्य की पहली सीढ़ी भाषा जरूर है लेकिन उसके बाद की सारी सीढ़ियाँ कहन से चढ़नी पड़ती हैं। हमें रूसी नहीं आती लेकिन तोल्सतोय हमारी नजर में महान लेखक हैं। कहन और भाषा के इस द्वंद्वात्मक सम्बन्ध को समझना सबके नसीब में नहीं होता। किसी लेखक के लिए इसकी सैद्धान्तिकी समझने की बहुत जरूरत भी नहीं होती।

हमारे बीच मौजूद कौन सा लेखन कालजयी होगा यह जानने के लिए सैकड़ों साल बाद पुनर्जन्म लेना होगा। यदि आप पुनर्जन्म में यकीन नहीं रखते तो आपको इस सवाल का सही जवाब कभी नहीं मिलेगा। इसलिए वर्तमान में रहने में ही भलाई है। विनोद कुमार शुक्ल हमारे बीच रहकर लिख रहे हैं और हम जिस भाषा को बरतते हैं उसी में लिख रहे हैं। मैं तो यही चाहूँगा कि आज से हजार साल बाद भी लोग देखें की 'नौकरी की कमीज' या 'दीवार में रहने वाली एक खिड़की' पर किस तरह अनुपम साहित्य सृजित किया जा सकता है।

हिन्दी के युवा लेखकों के कहन और भाषा पर जिन दो समकालीन लेखकों का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है वो हैं विनोद कुमार शुक्ल और उदय प्रकाश। मेरा भी कई बार मन होता है कि विनोद कुमार शुक्ल और उदय प्रकाश की नकल करने लगूँ। हर लेखक किसी ने किसी पूर्वज की नकल से ही असल की तरफ बढ़ता है। अफसोस कि विनोद जी और उदय जी के लालित्य को समझते हुए भी मैं भारतेंदु और प्रेमचंद की परम्परा को छोड़ने का साहस नहीं कर पाता। और शायद नए रास्ते चुनने की भी एक उम्र होती है।

साहित्यिक पाठकों को विनोद कुमार शुक्ल को जरूर पढ़ना चाहिए। लेखकों को भी उन्हें बार-बार पढ़ना चाहिए ताकि हम देख सकें कि लिखते-लिखते एक रचनाकार किस सृजनात्मक शिखर तक पहुँच सकता है।

Shiv Kumar Mishra
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