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मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी उर्फ 'आवारा गायों' की गौशाला!

Shiv Kumar Mishra
19 Sep 2021 5:34 PM GMT
प्रतीकात्मक फोटो
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प्रतीकात्मक 

अनिल जैन

सबसे अजब-सबसे गजब मध्य प्रदेश' में लेखकों और साहित्यकर्मियों को उनकी प्रथम कृति प्रकाशित कराने के नाम पर 20-20 हजार रुपए का अनुदान दिए जाने का उपक्रम मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद की साहित्य अकादमी के तत्वावधान में होने वाला एक किस्म का घोटाला ही है, जिसे हर साल एक अनुष्ठान के तौर पर अंजाम दिया जाता है।

इस अनुष्ठान में दिल्ली, भोपाल, जयपुर, मेरठ, गाजियाबाद, गुरूग्राम, इंदौर आदि शहरों के प्रकाशकों का गिरोह भी श्राद्धपक्ष के पंडों की तरह शामिल रहता है। सरकारी अनुदान के लिए कई लोगों की पांडुलिपियों का चयन तो प्रकाशकों की सिफारिश पर ही होता है। ये प्रकाशक इन पांडुलिपियों का छापते हैं और फिर इनकी ऊंचे दामों पर सरकारी खरीद होती है। सरकारी महकमों और शिक्षा संस्थानों में ये किताबें पड़े-पड़े सड़ते हुए दीमकों और चूहों का आहार बनती हैं।

मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद या साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कार या अनुदान के नाम पर रेवडियां बांटने का इतिहास पुराना है। यह काम कांग्रेस के जमाने में भी होता था, लेकिन उस समय कुछ तो लोकलाज का ध्यान रखा जाता था। तब इस तरह के अनुदान प्राप्त करने वालों की सूची 15-20 फीसदी नाम ही फर्जी लेखकों या साहित्यकारों के होते थे, लेकिन अब मामला एकदम उलट गया है।

अब ऐसी सूची में 15-20 फीसदी ही नाम ऐसे होते हैं, जिनका वास्तविक रूप से लिखने-पढ़ने से सरोकार होता है और बाकी सारे नाम ऐसे होते हैं, जिन्हें साहित्य की खरपतवार या गाजरघास कहा जा सकता है।

इस बार साहित्य परिषद ने दो साल के लिए कुल जिन 80 नामों का चयन किया है, उनमें 10-12 ही अपवाद होंगे, जिनका पढ़ने-लिखने से वास्ता होगा। मैंने 80 लोगों की सूची में से कुछ लोगों का फेसबुक प्रोफाइल देख कर उनके बारे में जानने की कोशिश की तो पाया कि अधिकांश ने अपने प्रोफाइल पर ताला ठोक रखा है।

ताला लगी फेसबुक प्रोफाइल वालों को मैं निहायत असामाजिक और संदिग्ध चरित्र का व्यक्ति मानता हूँ, चाहे वह किसी भी क्षेत्र का हो। चयनित सूची में जिन लोगों के प्रोफाइल खुले पाए गए, उनमें से भी ज्यादातर पर सिवाय मित्रों और परिजनों को जन्मदिन और शादी की सालगिरह के बधाईसंदेश और सैरसपाटे तथा पारिवारिक आयोजन की तस्वीरें ही दिखीं। कुछ की फेसबुक वाल पर संदेश विहीन लघुकथा, कविता और व्यंग्य टाइप का भी कुछ चस्पा किया हुआ दिखा, जिसमें व्याकरण अपनी दुर्दशा पर आंसू बहाती पाई गई।

हालांकि ऐसे लोग स्थानीय अखबारों में भी खूब छपते हैं, लेकिन इसमें हैरान होने जैसी कोई बात नहीं, क्योंकि अखबारों को अपने पन्नों पर विज्ञापन और पेड न्यूज के बाद बची खाली जगह भरने के लिए इन लोगों से मुफ्त में सामग्री मिल जाती है। वैसे अखबारों में छापने के लिए रचनाओं का चयन करने वाले कारकूनों की लिखत-पढ़त का स्तर इन्हीं कथित रचनाकारों जैसा होता है।

इस बार साहित्य अकादमी ने जिन पांडुलिपियां का चयन किया है, उनमें ज्यादातर लघुकथाओं और कविताओं की हैं, जो इस बात की परिचायक है कि साहित्य की इन दोनों विधाओं के पतन में मध्य प्रदेश की साहित्य अकादमी भी अपना योगदान देने में पीछे नहीं है।

कहने की आवश्यकता नहीं कि मध्य प्रदेश की संस्कृति परिषद और साहित्य अकादमी आवारा गायों की गौशाला जैसी हो गई हैं (जैसे स्मृतिशेष व्यंग्यकार शरद जोशी भोपाल के भारत भवन को कला और संस्कृति का कब्रस्तान कहते थे), जिसमें कुछ कुलीन गायें भी जाने-अनजाने चली जाती हैं या उन्हें प्रवेश दे दिया जाता है। लेकिन जब उनके साथ भी आवारा गायों जैसा सुलूक होता है तो वे गौशाला संचालकों के चाल-चलन को देख कर अपने को अपमानित महसूस करती हैं।

(यह पोस्ट एक मेरे कमेंट का संपादित रूप है, जिसे मैंने फेसबुक मित्र डॉ.शोभा जैन की पोस्ट पर किया था। साहित्य अकादमी द्वारा चयनित 80 पांडुलिपियों में डॉ. शोभा जैन के निबंधों की पांडुलिपि भी शामिल है)

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