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फिल्म समीक्षा : " सरदार उधम " सिनेमा में उतरी शहादत...

Shiv Kumar Mishra
18 Oct 2021 7:03 AM GMT
फिल्म समीक्षा :  सरदार उधम  सिनेमा में उतरी शहादत...
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( फ़िल्म समीक्षा - ब्रजेश राजपूत )

अमेजन प्राइम की फिल्म सरदार उधम इससे पहले की बनी देशभक्ति या क्रांतिकारियों की जिंदगी पर बनी फिल्म से एकदम अलग है। ना इसमें भाषण हैं, ना नारेबाजी, ना जबरदस्ती का देशप्रेम और ना ही आज के जमाने के मनोज कुमार यानी अक्षय कुमार के देशभक्ति नुमा चीख कर चबाकर बोले गये डायलाग, दृश्य या गाने।

ये फिल्म हमारा परिचय कराती है पंजाब के क्रांतिकारी उधम सिंह से जो भगत सिंह के साथ आजादी के सपने देखकर रिवोल्यूशनरी बनना चाहता था। अमृतसर के जलियांवाला बाग में निहत्थों पर गोलियां चलाने का आदेश देने वाले पंजाब के गवर्नर जनरल माइकल ओ डायर की लंदन में हत्या नहीं उसे सबके सामने मारकर विरोध जताकर अपनी जवानी का मकसद पूरा करना चाहता था।

डायरेक्टर सुजीत सरकार की दो घंटे चालीस मिनिट की इस लंबी फिल्म में आप वो सिनेमा देखते हो जो हिंदी सिनेमा में कम ही दिखता है। लंदन की गलियों से लेकर पंजाब के अमृतसर तक में मंद या नीली रोशनी में फिल्मायी ये फिल्म अहसास कराती है कि सिनेमोटोग्राफी का असर दिल दिमाग पर कैसा पडता है। इस फिल्म में आप एक जुनूनी व्यक्ति के लंबे सफर में साथ चलते हो जो अपना मकसद पूरा करने के लिये कई देश और वेश बदलता है। जो पंजाब के हरियाली भरे गांवों से बर्फीले रूस के मैदानों से होते हुये लंदन पहुंचता है और वहां रहने वाले भारतीयों के विरोध के बाद भी अपने मकसद को छह साल तक जिंदा रखता है। फिल्म लंबी तो है मगर स्क्रीन से नजर को हटने नहीं देती। क्रांतिकारी उधम सिंह के बारे में जानकारी जुटाना और उस पर लंबी फिल्म बनाना आसान काम नहीं होगा मगर सुजीत की टीम ने अच्छा काम किया है।

अपने काम से तो चौंकाया है विकी कौशल ने जिनको इस फिल्म में इरफान के ना रहने पर कास्ट किया गया। विकी ने बिना चीखे चिल्लाये फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाया है। उधम सिंह के किरदार में वो इस तरह फिट हुये हैं कि फिल्म खत्म होते होते विकी ही उधम सिंह के रूप में याद रह जाते हैं और दिमाग में घूमती रहती है पंजाब के एक साधारण से युवक की अमर क्रांतिकारी बन कर दी गयी कुर्बानी।

इससे पहले भी अमृतसर के जलियांवाला बाग पर फिल्में बनी हैं मगर इस फिल्म में इस घटना का तकरीबन पंद्रह मिनिट लंबा दृश्य दर्शक की स्मृति से कभी हट ही नहीं सकता। निहत्थों पर अंग्रेजी सेना की गोलियां, बदहवासी, चीख पुकार मौत और उसके बाद उधम सिंह का घायलों का अस्पताल पहुंचाना और वहां के हालात विभीषिका को जीवंत कर दर्शक के दिल दिमाग में सिहरन दौडा देते हैं। बाग की मिटटी में बहा बेशुमार खून हिंदू मुसलमान दोनों का होता है और यही कहानी की जान भी है।

कहानी, पीकू ओर विकी डोनर बनाने वाले निर्देशक सुजीत सरकार ने इस फिल्म में दृश्य डायलॉग ओर लोकेशन से जरा भी समझौता नहीं किया है इसलिये फिल्म अच्छा सिनेमा बन गयी है जिसे बड़े पर्दे पर और भव्यता से देखने पर असर और गहरायेगा। बच्चों को बैठाकर देखने वाली यादगार फ़िल्म.

Brajesh Rajput

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