राष्ट्रीय

उत्तरप्रदेश से राजनीतिक संकेत?

सुजीत गुप्ता
16 Jan 2022 8:20 AM GMT
उत्तरप्रदेश से राजनीतिक संकेत?
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प्रेमकुमार मणि

उत्तरप्रदेश में चुनाव का बिगुल बज चुका है . अगले 10 मार्च को तय हो जाएगा कि सरकार किसकी बनेगी . जिसकी भी बने , लेकिन एक बात लगभग तय है कि वर्तमान मुख्यमंत्री योगी का मुख्यमंत्री बनना मुश्किल है. पिछले दिनों भाजपा में जो भगदड़ मची , नेतृत्व को शायद ही इसका अनुमान रहा होगा. लगता तो यही है कि इन सबसे केंद्रीय नेतृत्व अनजान था . यदि भाजपा आलाकमान को इन सबकी जानकारी होती तो वह इसे रोकने का प्रयास अवश्य ही करती . लेकिन यह बगावत तो 1857 के सिपाही विद्रोह की तरह अचानक से फूटा . शायद ही किसी अख़बार को भी इसकी भनक हो . ऐन चुनाव के वक़्त हुए ऐसे विद्रोहों के नतीजे हमेशा उस पार्टी के लिए ख़राब होते हैं ,जिनके बीच से विद्रोह हुआ हो . 1977 में जगजीवन राम का विद्रोह ऐसा ही था . इंदिरा गाँधी का जो हाल हुआ था ,उससे सब परिचित हैं . ऐसे में लोग विद्रोहियों की पृष्ठभूमि को कुछ समय केलिए भूल जाते हैं . लोगों ने तब यह नहीं सोचा कि यही जगजीवन राम हैं ,जिन्होंने आपातकाल का प्रस्ताव कैबिनेट में रखा था. उत्तरप्रदेश के ये हालिया विद्रोही भी कोई दूध- धुले नहीं हैं और ये अंतःप्रेरणा से नहीं बल्कि जनता के मनोभाव देख कर ही बगावती हुए हैं. जनता को भी यह पता है कि ये बगावती लोग हमारी भावना का ही उद्घाटन कर रहे हैं . जनता आगे है ,नेता नहीं .

उत्तरप्रदेश में हुई राजनीतिक हलचल केवल तात्कालिक नहीं है. इसके नतीजे आनन-फानन बिहार की राजनीति को प्रभावित करेंगे और 2024 में केंद्र की राजनीति को भी. उत्तरप्रदेश में यदि भाजपा हारी तो मार्च -अप्रैल तक बिहार की सरकार भी ध्वस्त हो जाएगी और 2024 में केंद्र की सरकार भी उत्तरप्रदेश में हुआ क्या है ?

मुख्यमंत्री योगी की निरंतर कोशिश थी कि वहाँ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो जाय और इसके बूते हम चुनाव जीत लें. वह इसे बीस अस्सी का खेल बता रहे थे. इसी की तैयारी वह पांच साल करते रहे . इस बीच प्रान्त में जो उल्लेखनीय काम हुआ ,वह अयोध्या और वाराणसी का मंदिर निर्माण. ऐसा लगा उत्तरप्रदेश प्राचीन भारत के शुंग राज या पल्लव राज के जमाने में आ गया है. संघ और भाजपा अपनी इन उपलब्धियों पर जो भी सोचे , वह मुगालते में है . मंदिर मुद्दे से भाजपा को जितना प्राप्त करना था बहुत पहले कर चुका है . हाँ ,मंदिर यदि नहीं बनता तब दस फीसद मतदाताओं का आक्रोश तो नहीं, कटाक्ष उसे अवश्य झेलना पड़ता, लेकिन जब बन गया तब उससे कोई उत्साहित होगा ,यह आकलन ही मूर्खता है ।

आज हर तबके की जनता के सामने महंगाई , बेरोजगारी ,शिक्षा और स्वास्थ्य के सवाल हैं . किसान आंदोलन ने बता दिया है कि वह भाजपा के आर्थिक कार्यक्रमों को किस निगाह से देखती है . अस्मिता की राजनीति का थोड़ा मतलब जरूर होता है ,लेकिन वर्गों और जातियों में बँटे -बिखरे समाज में अस्मिता के प्रश्न भी बँटे होते हैं . कुछ लोगों केलिए मंदिर -मस्जिद के सवाल अस्मिता के सवाल हैं तो कुछ केलिए सत्ता -समाज में लोकतान्त्रिक भागीदारी के . दोनों की दिशा और दुनिया अलग -अलग है .

भाजपा इसे ही समझने में चूक गई . उत्तरप्रदेश की राजनीति में 1993 के विधानसभा चुनाव से ही समाज के दलित -पिछड़े हावी हैं . 1993 का चुनाव " मिले मुलायम कांसीराम " वाला था . उसके बाद जितने भी विधानसभा चुनाव हुए भाजपा को कभी बहुमत नहीं मिला ,हालांकि कुछ समय तक उसके मुख्यमंत्री जोड़तोड़ से जरूर बने . कोई सत्ताईस साल बाद नई सदी में भाजपा को 2017 के चुनाव में छप्पड़फाड़ नतीजे मिले . 312 सीटें जीतकर उसने चमत्कार दिखा दिया . लेकिन क्या यह किसी योगी का करिश्मा था ? नहीं , यह करिश्मा उस नरेंद्र मोदी के नाम था ,जो एक छद्म खेल रहे थे।

2014 के लोकसभा चुनाव के पूर्व ही उन्होंने पिछड़ावाद का एक व्याकरण भाजपा शिविर में बनाया था . उन्होंने खुद को पिछड़ा नेता के रूप में स्थापित किया . 1990 के मंडल दौर के बाद से उत्तरभारतीय राजनीति में पिछड़ा दलित उभार का जो मसला सतह पर आया था ,वह दबंग पिछड़ों के चाल -चरित्र के कारण धीरे -धीरे बदनाम होने लगा था. उसी उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह वोट के वक़्त फूलन देवी और राजभर की कलगी लगाते थे और राजपाट में आते ही अमर सिंह , जनेश्वर मिश्र और जयाप्रदा की तिकड़ी में घिर जाते थे . इस तथ्य को भाजपा ने समझा. इन्ही दिनों चुनाव का ढांचा भी बदल रहा था ।

टीएन शेषन और जेके राव के चुनाव सुधारों ने बूथ लूट की बीमारी को पूरी तरह ख़त्म कर दिया. बूथ लूट के औजार से दबंग जातियों के लोग समाज के कमजोर वर्गों को वोट देने से वंचित कर देते थे. अब उनका वोट किसी से भी अधिक सुनिश्चित होने लगा. यह एक नया मोड़ था . 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने इसे लेकर एक प्रयोग किया था . लालू विरोधी उच्च जातीय मतदाताओं जिसकी संख्या मुश्किल से पंद्रह फीसद है ,उन्होंने पिछड़ों और अति पिछड़ों के एक बड़े हिस्से को जोड़ दिया और माई समीकरण की राजनीति भहरा कर ध्वस्त हो गई . 2010 में तो लालू प्रसाद की पार्टी केवल 22 पर सिमट गई . उससे ही सबक लेकर नरेंद्र मोदी ने अखिल भारतीय स्तर पर एक खेल किया . हिंदूवादी गमले में पिछड़ावाद के बीज बोए गए . कोई प्रधानमंत्री का उम्मीदवार पहली बार भगवा बाने में पिछड़ावाद का बैनर लगा कर चुनावी मंच पर आया . उत्तरभारत के पुराने सभी घाघ मंडलवादी एकबारगी ध्वस्त हो गए .

लेकिन भाजपा ने नीतीश कुमार के उस दौर का भी अनुकरण किया जब वह मुगालते में बहक रहे थे . नीतीश कुमार को मुगालता हुआ कि यह उनकी ताकत और होसियारी है . जीत का श्रेय लेने में समाज का ऊपरी तबका आगे रहता है. अख़बारों ने ऐसी हवा बनाई कि नीतीश कुमार को लगा यह जीत सवर्ण मतदाताओं के कारण मिली है . चुनाव के तुरत बाद उन्होंने सवर्ण आयोग बनाया . इसके बाद ही उनकी राजनीति फिसलने लगी . कभी राजद कभी भाजपा के कंधे पर बैठ कर वह मुख्यमंत्री भले बन जाएँ ,उन्हें मालूम है कि आहिस्ता -आहिस्ता उनकी पॉलिटिक्स छीज रही है. वस्तुतः बिहारी राजनीति के वह मधु कोड़ा बन गए हैं .पहले नंबर की पार्टी से आज तीसरे नंबर की पार्टी बन गए हैं . वही हाल उत्तरप्रदेश में हुआ . चुनाव में भाजपा की जीत सुनिश्चित कराई थी पिछड़ों ने. श्रेय मिला योगी को . वह नेता और मुख्यमंत्री बने . इस बीच सामान्य वर्ग आरक्षण आया. इसके बरक्श पिछड़ों की हर क्षेत्र में हकमारी हुई . उनकी राजनीतिक आकांक्षाओं को समझने में भाजपा विफल हुई . जनता की बेचैनी कई स्तरों पर बढ़ रही थी . जो दलित -पिछड़े हैं उन्हें ही सरकार की सबसे अधिक जरूरत होती है. शिक्षा -स्वास्थ्य -रोजगार सब में वही सबसे अधिक जरूरतमंद होते है और इन मुद्दों पर सरकार की उदासीनता उन्हें बेचैन करती है . महंगाई और बेरोजगारी से त्रस्त- तबाह इस जनता को कोई मंदिर परिक्रमा की झलकियां दिखावे उसे क्या कहा जाएगा . 10 मार्च के आईने में चुनाव नतीजों को कोई वैसे ही देख सकता है ,जैसे महाभारत युद्ध में कृष्ण के विराट दर्शन में युद्ध के नतीजे को अर्जुन देख रहा था

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