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फेक मीडिया पर भरोसे का नतीजा, जानिए क्या है सच

Shiv Kumar Mishra
15 March 2022 6:43 PM IST
फेक मीडिया पर भरोसे का नतीजा, जानिए क्या है सच
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शंभूनाथ शुक्ल

उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर विधान सभाओं के चुनावों में सारे प्रचार का दारोमदार डिजिटल मीडिया के भरोसे रहा। ऐसे में सोशल मीडिया में बिना चेहरे वाले कई ऐसे लोग प्रकट हुए, जिनका काम इस या उस दल के लिए माहौल बनाना था। ये लोग स्वतंत्र मीडिया की आड़ में आए और स्वयंभू पत्रकार बन गए। न इनके पास शब्दों की मर्यादा थी न ग्राउंड रिपोर्टिंग की समझ न मतदाताओं का रुझान जानने की कूवत। नतीजा यह रहा कि उन्होंने समाज में तो वैषम्य फैलाया ही जिनके लिए काम कर रहे थे, उनकी ताक़त भी क्षीण कर दी। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के संदर्भ में इन सोशल मीडिया के कथित निष्पक्ष यू-ट्यूबरों ने समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का बंटाढार कर दिया। कुछ यू-ट्यूबरों ने शुरू से ही अखिलेश यादव को अंधेरे में रखा कि उत्तर प्रदेश में उनकी बम्पर जीत हो रही है। इसी तरह उनकी समझ में उत्तराखंड के वोटरों का रुझान भी नहीं आया न पंजाब के। इसीलिए नेताओं और इनके रणनीतिकार अंत तक अंधेरे में रहे।

दरअसल सोशल मीडिया की आँधी में इन लोगों ने मेन स्ट्रीम मीडिया की अहमियत को नहीं समझा। प्रिंट मीडिया सदैव चीजों को समझने में सबसे अधिक भरोसेमंद रहता है। और इसकी वज़ह यह है, कि उसको अपने पाठकों के समक्ष सही खबर परोसनी होती है। वहाँ ब्रेकिंग न्यूज़ की बजाय 'अनब्रेकेबल' न्यूज़ पर अधिक भरोसा किया जाता है। क्योंकि उसे अगले 24 घंटे तक उसी रूप में बना रहना होता है। जबकि टीवी मीडिया में खबर एयर हो गई, तो दोबारा वह उसे याद नहीं करेगा और डॉट कॉम मीडिया की रीच व्यापक तो बहुत होती है, किंतु वह ब्लिंक करता हुआ मीडिया है। इसलिए वहाँ सही और पुख़्ता न्यूज़ नहीं बल्कि सनसनी न्यूज़ बिकती है या सेक्स। इन सबसे अलग कैरेक्टर है सोशल मीडिया का। यहाँ न भरोसा है न सच्चाई न ज़मीनी रिपोर्ट। सिर्फ़ और सिर्फ़ अधिक से अधिक लाइक्स पाने की चाह। लाइक्स के लिए सोशल मीडिया में सक्रिय व्यक्ति कुछ भी करने को तैयार रहता है। यहाँ कोई सामाजिकता नहीं कोई बंधन नहीं और कोई जवाबदेही नहीं।

इसके विपरीत मेनस्ट्रीम मीडिया में एक संपादक नाम की संस्था रहती है। संपादक सिर्फ़ एक प्रशासनिक पद ही नहीं बल्कि संपादक हर प्रकाशित खबर अथवा लेख के प्रति क़ानूनन ज़िम्मेवार भी होता है। किसी भी खबर को लेकर उसे कठघरे में खड़ा किया जा सकता है। इसलिए कोई भी ऐसी खबर वह नहीं जाने देगा जो भड़काऊ हो, ग़लत तथ्यों पर आधारित हो, सुनी-सुनाई बातों की बिना पर लिखी गई हो। ऐसी खबर जो भले तथ्यपरक हो लेकिन उसके प्रकाशित हो जाने से जातीय अथवा सामुदायिक तनाव होने का ख़तरा हो, उसे कोई संपादक नहीं छपने देगा। मेनस्ट्रीम मीडिया में सम्पादकीय विभाग हर खबर या लेख को पूरी तरह जाँच-परख और सोच-समझ कर ही प्रकाशित व प्रसारित होने देगा। इस संपादकीय विभाग में कई लोगों की टीम होती है, उप संपादक से लेकर संपादक के बीच। इसलिए उसकी खबर भरोसेमंद होती है। दूसरे जो भी मीडिया घराना इसे संचालित करता है, वह सदैव अपने पाठकों, व्यूअरों को लेकर सतर्क रहता है। वह कभी नहीं चाहेगा उसकी एक गलती से उसके पाठक उसे छोड़ दें या उसकी विश्वसनीयता ख़तरे में पड़ जाए। इसलिए उसे चाहे जितना गोदी मीडिया कहा जाए, वह अपने ऊपर से अपने पाठकों और अपने व्यूअरों का भरोसा नहीं जाने देगा।

अब देखिए, फेसबुक में पोस्ट डालने वाले, ट्वीट करने वाले या इंस्टाग्राम और यू-ट्यूब पर सक्रिय लोगों पर ऐसी कोई क़ानूनी बाध्यता नहीं होती। वे हर तरह की क़ानूनी व नैतिक बाध्यता से बाहर होते हैं। लोग यह समझ लेते हैं कि यहाँ लिखने वाले और दिखने वाले लोग वे हैं, जो जनता की सही आवाज़ हैं। यही मान कर वे उन पर भरोसा कर लेते हैं और फिर धोखा खाते हैं। कोई सामाजिक बंधन न होने के कारण वे एक ऐसी दुनिया में मगन हो जाते हैं, जो दरअसल फेक है क्योंकि वह वर्चुअल है। उसका रियल वर्ल्ड से कोई ख़ास वास्ता नहीं होता। ये लोग अधिकतर अपनी दुनिया में रमे रहते हैं। उनकी दुनिया में सच वह है, जिसे वे सोचते हैं। आमतौर पर एकांत-प्रेमी ये लोग ख़ुद को एक लेखक, ज़िम्मेदार पत्रकार और नियंता मान लेते हैं। अपने इस अहंकार के चलते वे न तो अख़बार पढ़ते हैं न अपने आस-पास होने वाली गतिविधियों को नोटिस करते हैं। चूँकि ये लोग अच्छा बोल लेते हैं, अच्छा लिख लेते हैं अतः कई बौद्धिक वर्ग के लोग और राजनीतिक भी इनकी बातों को सच मान लेते हैं। नतीजा वह होता है, जो उत्तर प्रदेश में हुआ या उत्तराखंड में हो गया। इस फेक या वर्चुअल दुनिया में रमे लोग न अखिलेश के संघर्ष को समझ पा रहे थे न भाजपा के उस लाभार्थी वर्ग को, जिसके घर पर राशन भेज कर बीजेपी ने उसे जाति, धर्म से विरत कर अपने फ़ेवर में कर लिया था। ये स्वतंत्र यू-ट्यूबर सातवें चरण के मतदान तक हाथ मल-मल कर यह बताते रहे कि उत्तर प्रदेश से योगी साफ़ हो रहे हैं और उत्तराखंड में कांग्रेस की आँधी को कोई रोक नहीं सकता।

सच तो यह है, कि राजनीतिक विषयों पर यू-ट्यूब बनाने वाले अधिकतर वे लोग हैं जो मेन-स्ट्रीम मीडिया से बाहर हो चुके हैं। अब चूँकि सत्ता के विरोध की खबरें अधिक बिकती हैं इसलिए उनके यू-ट्यूब चल निकले। डिजिटल प्रचार पर जोर देने के चलते विरोध पक्ष ने उन्हें चुना। कहा जाता है उन्हें इसके लिए स्पॉन्सरअर भी मिले और व्यूअर के तौर पर उस पार्टी के समर्थक लोगों की ख़ासी संख्या भी। किंतु मीडिया का काम होता है, दूर-दराज के इलाक़ों में घूम-घूम कर रिपोर्ट देना। लेकिन इन यू-ट्यूबर ने क्या किया, अपने-अपने घरों में बैठ कर विजुअल अपलोड करते रहे। इनका कोई भरोसेमंद नेटवर्क नहीं होता और न ये खबर की सत्यता परखने की कोशिश करते हैं। नतीजा सामने है। इसलिए यह सदैव मान कर चलना चाहिए, कि मेन-स्ट्रीम मीडिया ही सही व सच्ची खबरें देने में सक्षम है। कोई अफ़वाह फैलाना और एक नैरेटिव गढ़ना इस फेक मीडिया का काम है। सच्ची और पुख़्ता सूचना देना इनके लिए संभव नहीं। उसके लिए दूर-दराज के इलाक़ों में जाना पड़ता है और अपने संवादसूत्रों का एक नेटवर्क बनाना पड़ता है। बिना ऐसी व्यवस्था के खबरें भरोसेमंद नहीं हो सकतीं। सत्ता का विरोध बिकता है लेकिन सच्चाई से दूर हट कर सत्ता का विरोध बेमानी हो जाता है।

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