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नियम सबके लिए समान होने चाहिए, चाहे वो आम आदमी हो या अडानी-अंबानी

Desk Editor
25 Oct 2021 7:00 AM GMT
नियम सबके लिए समान होने चाहिए, चाहे वो आम आदमी हो या अडानी-अंबानी
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नियम सबके लिए समान होने चाहिए, चाहे वो आम आदमी हो या अडानी-अंबानी! नियमों का कड़ाई से पालन कीजिये पर शासकीय संस्कृति और व्यवस्था तो दुरुस्त कीजिये

उर्मिलेश

एक तरफ समाज को अतीत के अंधेरे की तरफ ढकेला जा रहा है, दूसरी तरफ नियमों का हवाला देकर आम लोगों से किसी विकसित और अपेक्षाकृत सुखी यूरोपीय देश के नागरिकों जैसे आचरण-व्यवहार या नियम-पालन की अपेक्षा की जा रही है. इधर तरह-तरह के नियमों का हवाला देकर आम लोगों से जमकर जुर्माना वसूला जा रहा है. मसलन, कोई व्यक्ति अगर घर से पान की दुकान पर दोपहिया वाहन से जा रहा है और उसने सैन्डिल पहनी है तो उसे पकड़े जाने पर मोटा जुर्माना भरना पडेगा. कार में संगीत सुनने के नाम पर ज्यादा शोर मचाया तो भी बडा जुर्माना. पर बच्चों की परीक्षा के दौर में भी घर के ठीक सामने दिन-रात 'जागरण' या प्रवचन होंगे तो भी कोई कुछ नहीं करेगा. इसका मतलब ये नहीं कि गाड़ी में तेज संगीत बजाने को मैं जायज ठहरा रहा हूं. बिल्कुल नहीं!

नियम सबके लिए समान होने चाहिए, चाहे वो आम आदमी हो या अडानी-अंबानी! नियमों का कड़ाई से पालन कीजिये पर शासकीय संस्कृति और व्यवस्था तो दुरुस्त कीजिये! राष्ट्रीय राजमार्गों पर चलने वालों को टोल टैक्स के नाम पर मोटी रकम देनी पड़ती है पर सड़क पर स्वच्छंद होकर विचरण करते मवेशियों के चलते होने वाली दुर्घटनाओं के लिए हताहतों को कोई मुआवजा नहीं मिलता. राजस्थान मेंऐसे कुछ मामले कोर्ट में भी गये पर अभी तक मुआवजे की बात नहीं सुनी गयी.

तरह-तरह के अपराध या भ्रष्टाचार जैसे मामलों का ही उदाहरण लीजिये! तंत्र चलाने वाले जिसको अपराधी या भ्रष्ट के रूप में चिन्हित कर दंडित कराना चाहते हैं, उनके पास कोई मादक द्रव्य मिले न मिले, जेल भिजवा देते हैं. किसी खास के यहां ऐसे द्रव्यों का ज़खीरा भी मिल जाय तो कुछ भी नहीं होता! यह महज़ संयोग तो नहीं कि छोटे या बड़े, कम या अधिक अपराध या भ्रष्टाचार के लिए भारतीय जेलों में रखे गये लोगों में सबसे अधिक दलित, आदिवासी, पिछड़े या अल्पसंख्यक हैं(ज्यादा जानकारीके लिए भारत सरकार के NCRB के अद्यतन आकड़े देखिये).

अपने जैसे देश में भ्रष्टाचार का मामला भी बहुत दिलचस्प है. पिछले कुछ दशकों से जिस चुनाव-प्रक्रिया के तहत हमारे यहां सरकारें बन रही हैं, उसमें कुछ अपवादों को छोड़कर किसी अपेक्षाकृत ईमानदार आदमी का भाग लेना और चुनाव जीतना असंभव सा है. चाहें तो इस संदर्भ में ADR के प्रामाणिक आकड़े देख लीजिये. इसी प्रक्रिया से जीतकर सरकार चलाने वाले लोग समाज से भ्रष्टाचार के खात्मे का वायदा करते रहते हैं.

क्या हमने-आपने कभी सोचा कि जिस भ्रष्टाचार की अपने देश-समाज में सर्वाधिक चर्चा होती रहती है, वह तमाम नेताओं के दावों और वायदों के बावजूद कभी ख़त्म क्यों नहीं होता? क्योंकि भ्रष्टाचार इस असमानता-मूलक व्यवस्था का 'उत्पाद' और 'प्रेरणा' दोनो है. निशानदेही कर अगर कुछ आम या खास लोगों को भ्रष्टाचार के लिए दंडित भी कर दिया जाता है या लगातार किया जाता रहे तो भी यह भ्रष्टाचार खत्म होने वाला नही है. मौजूदा व्यवस्था में भ्रष्टाचार के खत्म होने या कम होने का कोई सवाल नहीं उठता. अपने समाज में भ्रष्टाचार भले ही बुरा शब्द समझा जाता है पर बड़े भ्रष्टाचारियों को हमारे समाज में विशिष्ट जन, इलीट या वीआईपी समझा जाता है. किसी भी निजी या सरकारी दफ्तर में उनके काम फौरन हो जाते हैं. ऐसे ही लोग जीवन में ज्यादा सुखी, समृद्ध और गतिशील रहते हैं. सबसे बेहाल रहता है वो जो अपेक्षाकृत नैतिक और ईमानदार है. आम जन जीवन में उसका कोई सम्मान नहीं होता. उसे बेवकूफ, फालतू, नालायक या घमंडी समझा जाता है. भ्रष्टाचार के विशाल तंत्र और तंत्र-चालकों द्वारा ऐसे कई ईमानदार लोगों को खत्म तक करा दिया जाता है या किसी न किसी कुचक्र का शिकार बना दिया जाता है.

इसलिए जो लोग मौजूदा व्यवस्था में भ्रष्टाचार के खात्मे की बात करते हैं, उनसे सतर्क रहने की जरूरत है. इस तरह के झूठे वायदो के आवरण में वे अपना कोई ज्यादा ख़तरनाक एजेंडा लेकर आते हैं. आकाश छूती महंगाई, किसी विध्वंसक तूफान से भी ज्यादा तेज गति से हमारे सार्वजनिक उपक्रमों, यहां तक कि प्रकृति-प्रदत्त संसाधनों का होता निजीकरण और लोकतांत्रिक संस्थाओं का तेजी से मरते जाना आज के दौर के ऐसे ही कुछ बड़े ख़तरनाक एजेंडे हैं!

निजीकरण के अधड़ में जिस तरह बेरोजगारी( इस महीने का आकड़ा 7.8 फीसदी का है ) तेजी से बढ़ रही है, उसे संभालना मौजूदा व्यवस्थापको के वश में नहीं है. ऐसे में अराजकता, धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिकता, जातीय तनाव, नागरिकता विवाद, टैक्स-टेरर, जुर्माना-जोर, पोर्न सामग्री, नशे का व्यापार आदि का बढ़ना तयशुदा है. ऐसे समाज और तंत्र को सिर्फ जुमलो और वायदो से कैसे संभाला और सुधारा जा सकता है? बड़े व्यवस्थागत बदलावों के बगैर इस तंत्र को 'जनतांत्रिक फार्मेट' में चलाना संभव नही होगा. फिलहाल, व्यवस्थागत बदलावों के संकेत कहीं से भी नहीं मिल रहे हैं. ऐसे में यक़ीनन देश और समाज के हालात और खराब होंगे! हमारी राजनीति देश को भावी खतरों से बचाने में असमर्थ है!


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