
- Home
- /
- Top Stories
- /
- लोहिया को समझने की...

कनक तिवारी
क्रमशः
4) भारत के तीर्थ, भारत की नदियां, हिमालय, भारत की संस्कृति, भाषा, भारतीय जन की एकता, भारत का इतिहास लेखन आदि कोई ऐसा विषय नहीं, जिसे उनकी शोधपरक नजर ने नहीं खंगाला। उनके कथन की विशेषता यही है कि उनका पाठक पढ़ने के बाद एक नया नज़रिया विकसित कर पाता है। यदि वे राजनीति में न आते तो भारत क्या दुनिया को एक शीर्ष अध्यवसायी, शोधकर्ता विद्वान लेखक मिल जाता। लेकिन शायद नियति ने उन्हें ऐसी राजनीति में प्रतिष्ठित किया जिसमें उन्हें पूर्णतः समझ पाने वाले भी विरले थे। लोहिया इसलिए मानसिक दृष्टि से आहत भी होते गए और अन्त में वह मूल्यवान जीवन असमय समाप्त हो गया। अन्याय से संघर्ष के लिए वे अकेले ही एक सेना की तरह थे। वे सदा कहते थे कि वे नास्तिक हैं। मनुष्य में विश्वास और उसके कल्याण में आस्था रखने वाला परम आस्तिक ही होता है। दबे, पीड़ित, हरिजन, नारी जैसे व्यक्तियों के वे मसीहा थे। जो अपनी पीड़ा की बात कहना भूल चुके थे, उनके कहे में उन्होंने वाणी दी। लोहिया की टक्कर के कई बौद्धिक कुदरत ने पैदा किए होंगे, लेकिन उनकी जैसी मन वचन कर्म की शख्सियत के कई ढांचे कुदरत के पास नहीं रहे थे।
(5) जयप्रकाश, अशोक मेहता, अच्युत पटवर्धन, नरेन्द्र देव, यूसुफ मेहर अली आदि के साथ लोहिया ने समाजवादी आंदोलन की स्थापना की। यूसुफ मेहर अली उन्हें मजाक में बंजारा समाजवादी कहते थे। वे सभी लोग समाजवाद को फकत शासन प्रणाली या जीवन व्यवस्था की समझाइशों के मानिन्द नहीं कहते थे। उनकी राय में समाजवाद अनुशासित, व्यवस्थित और क्रियाशील जीवनदर्शन है। समाजवाद की लोहिया की मान्यता उससे भी ज़्यादा मनुष्यमुखी, प्रगतिशील, जद्दोजहदभरी, आदर्शोन्मुख लेकिन गैरसमझौताशील होती रही। गांधी विचारों के साथ उन्होंने आइन्स्टाइन के वैज्ञानिक चिन्तन और जर्मन नवस्वच्छन्दतावाद को मिलाकर अमलगम भी बनाया था। उनके चिंतन की बेचैनी में पूरे संसार की प्रतिनिधि दार्शनिक चेतना को आंतरिक करने की कोशिश होती थी। बूर्जुआ बुद्धिवादियों को लोहिया का 'यूटोपिया' अव्यावहारिक तथा स्वयम्भू प्रगतिशील वामपंथी विचारकों को अतिआदर्शवादी प्रतीत होता रहा है। अधकचरे, फैशनेबिल, किताबी समाजवादियों की भीड़ से हटकर लोहिया आजीवन समाजवादी सम्भावनाओं की ताकतों के अंतरिक्ष में मनुष्य हितों के एकीकरण के लिए काम करते रहे। आदर्श जनअभिमुखी शासन की स्थापना के लिये 'चौखम्भा राज्य' की उनकी मौलिक परिकल्पना थी।
राममनोहर का जन्म 23 मार्च 1919 को हुआ था, और 1919 में जब वह नौ साल के थे, तभी हीरालाल जी उन्हें पहली बार गांधी जी के पास ले गये थे, गांधी जी को दक्षिण अफ्रीका से भारत आये तब केवल पांच वर्ष ही हुए थे। मां थी नहीं, पिता गांधी जी के खेलों में शामिल होकर असहयोगी बन गये थे, अतः लोेहिया किशोरावस्था में सर्वथा स्वतंत्र रहे, छात्रावासों में रहकर पढ़ाई करते रहे। जन्म स्थान अकबरपुर (फैज़ाबाद उ.प्र.) में प्राथमिक शिक्षा के बाद लोहिया ने बंबई, बनारस और कलकत्ता में पढ़ाई की। इस बीच पिता के साथ वह दो बार कांग्रेस के अधिवेशनों में भी हो आये थे।
(6) मौलिकता के प्रति लोहिया का आग्रह और चिंतन मूलतः आज़ाद होते भारत में औसत नागरिक का देश के साथ तादात्म्य खोजने की कशिश के कारण था। यही कारण है जयप्रकाश नारायण की तरह लोहिया गांधी जी की ओर आकर्षित हुए। इसके बरक्स उनमें कम्युनिस्टों और किताबी गालबजाऊ समाजवादियों से एक तरह का अलगाव बढ़ता गया। उनकी अवधारणाओं से अलग हटकर लोहिया ने नए किस्म के मैदानी प्रयोग भारत की सामाजिक और सड़क आन्दोलनों की संरचना को लेकर किए थे। यही कारण है बाद के वर्षों में सभी प्रमुख उद्योगों के राष्ट्रीयकरण की मांग को तरजीह नहीं देते लोहिया ने एक नया वैचारिक मोड़ देते मांग की जिसका नाम था ''दाम बांधो।'' प्रत्येक व्यक्ति को उत्पादन के दाम से ज्यादा से ज्यादा डेढ़ गुना दरों पर वस्तु उपभोक्ता के रूप में पाने का अधिकार होना चाहिए। लोहिया ने इसी दलील के भी चलते इतिहास प्रसिद्ध अपना भाषण लोकसभा में दिया था। जब उन्होंने कहा था कि 27 करोड़ भारतीयों की औसत दैनिक आमदनी केवल 3 आना है। पूरे का पूरा सरकारी सरंजाम सकते में आ गया था। जवाहरलाल नेहरू ने भी बहुत कोशिश की होगी लेकिन प्रधानमंत्री की उंगलियां इस विवाद में उलझने के कारण जल सकती थीं। उन्होंने इस विवाद में पड़कर इसे आगे तूल देना मुनासिब नहीं समझा। लोहिया ने आश्वस्त होकर समझ लिया था कि राष्ट्रीयकरण कर दिए जाने से भी देश के सभी प्राकृतिक स्त्रोतों पर तिकड़मबाज अंगरेजियत हांकते 'एलीट' क्लास का ही कब्जा हो जाएगा। उससे आम लोगों का कोई भला नहीं हो सकेगा।
लोहिया को समझने की कोशिश
(7) लोहिया गांधी नहीं थे। वे किसी की अनुकृति हो भी नहीं सकते थे। उन्होंने लिखा भी था-'मैं मानता हूं कि गांधीवादी, या माक्र्सवादी होना हास्यास्पद है और उतना ही हास्यास्पद है गांधी-विरोधी, या माक्र्स-विरोधी होना। गांधी और माक्स के पास सीखने के लिये बहुमूल्य धरोहर है, किन्तु सीखा तभी जा सकता है जब सीख का ढांचा किसी एक युग, एक व्यक्ति से नहीं पनपा हो?' (गणेश मंत्री)।
"लोहिया के अनुयायी और जीवनीकार ओमप्रकाष दीपक के अनुसार लोहिया जर्मनी में ही थे तो गांधी जी का प्रसिद्ध दांडी मार्च हुआ, फिर धरसाना का ऐतिहासिक नमक सत्याग्रह जिसमें बेहोष हो जाने तक बिना पीछे कदम हटाये मार खाने वालों में लोहिया के पिता हीरालाल जी भी थे सारे देश में असंतोष की लहरें उठ रही थीं उन्हीं दिनो जेनेवा में राष्ट्र संघ (लीग आॅफ नेशन्स) की बैठक हुई तो लोहिया भी वहां पहुंचे, और जब भारतीय प्रतिनिधि के रूप में बीकानेर के माहराजा गंगा सिंह बोलने को खड़े हुए तो लोहिया ने दर्शक दीर्घा से जोर की सीटी बजायी और व्यंग्य भरी आवाजें कसीं कुछ देर भवन में हलचल हुई, फिर पहरेदारों ने लोहिया को वहां से हटा दिया, लेकिन उस घटना के बहाने हिंदुस्तान की आज़ादी का सवाल एक बार फिर यूरोप के अखबारों में उठा।"
लेखक जाने माने अधिवक्ता और समाजसेवी है




