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उ0 प्र0 के अशासकीय अनुदानित महाविद्यालयों के नवनियुक्त प्राचार्यों का त्यागपत्र : विचारणीय चिंता

उ0 प्र0 के 331 में से 290 महाविद्यालयों में नवनियुक्त प्राचार्यो का पदस्थापन और फिर एक एक कर त्यागपत्र का सिलसिला शुरू होने के पीछे केवल एक कारण नही है।प्राचार्य पद बदलते वक्त में अकादमिक ,प्रशासनिक के स्थान लाइजेनिंग और प्रबंधन का हो गया है।प्राचार्य अब शिक्षक नहीं रह गया।
कार्याधिक्य इतना कि याद करके सांस लेना हो तो भूल ही जाए। 20-25 वर्षो के कार्यवाहक प्राचार्य के दौर में महाविद्यालय अलग तरह से चलने के इस कदर अभ्यस्त हो चुके हैं कि कार्यवाहक प्राचार्य का पद सृजित हो गया है जिसके प्रति प्रबन्ध तंत्र द्वारा नियुक्ति की जाने लगी है ।कार्यवाहक प्राचार्य के नियुक्ति पत्र में लिखा जाने लगा है कि आपकी नियुक्ति " कार्यवाहक प्राचार्य " पद पर की जाती है। एक्टिंग प्राचार्य को प्राचार्य होने की केवल एक्टिंग करनी पड़ रही थी। असली प्रिन्सिपलशिप तो प्रबंधक महाविद्यालय के अकॉउंटेंट के माध्यम से कर रहे थे। एक्टिंग प्राचार्य केवल प्राचार्य( हस्ताक्षर ) होता था ।प्राचार्य ( वित्त ) एकाउंटेंट होता था, प्राचार्य ( अनुशासन) मुख्य नियन्ता होता था।
15 वर्ष की सुकून वाली, उत्तरदायित्वविहीन शिक्षण सेवा के बाद सातों दिन चौबीसों घण्टे वाली प्रिंसिपलशिप सबको मज़ा नही आ रही। परिवारिक जीवन अलग तनाव और चिंता में। अधिकांश प्राचार्यों की धर्मपत्नी भी प्राथमिक, माध्यमिक या उच्च शिक्षा में कार्यरत हैं। इसलिए यह एक अतिरिक्त बड़ी और गम्भीर पारिवारिक समस्या है जो प्राचार्यपद में बाधा है।
निदेशालय, क्षेत्रीय उच्चशिक्षाधिकारी और शासन द्वारा सूक्ष्म सूचना पर वांछित भिन्न भिन्न प्रकार की सूचनाओं का संकलन, समेकन और तत्काल प्रेषण प्रतिदिन की सरदर्दी है। परीक्षा फॉर्म , छात्रवृत्ति फॉर्म का ऑनलाइन सत्यापन नई चुनौती है, कभी सर्वर धीमा, त्रुटि हो जाने पर अपने स्तर से निराकरण न हो पाने पर छात्र छात्रा के आक्रोश और अपनी विवशता का सामना करना पड़ता है। 4 बजे के बाद काम करने वाले कर्मचारियों को अपेक्षित परितोष न दे सकने के कारण उनका रोष, आक्रोश, उलाहना सुनना।
विश्वविद्यालय द्वारा भी लगातार परीक्षा कार्य संचालित करवाना एक अलग समस्या है।राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अंतर्गत नए नियमों के तहत प्रवेश, परीक्षा अलग समस्या बनकर उभरी है। स्ववित्तपोषित व्यवस्था के वटवृक्ष के रूप में हो जाने के कारण अनुदानित महाविद्यालयों के प्राचार्य की श्रेष्ठता भी लगभग समाप्तप्राय है।विश्वविद्यालय में वह विशेष सम्मान, बैठकों और समारोहों में नही मिल रहा जो, कभी पहले मिला करता था। बहुत थोड़े दिनों की प्राचर्यपद में ये सूट बुट टाई खुद ही को चिढ़ाने लगते हैं।
अपवादों को छोड़ दें तो, कहीं भी प्राचार्य को न तो सेवक की सुविधा है न अन्य कोई। कुछ प्राचार्यों ने व्यक्तिगत रूप से व्यवस्था कर लिया तो, उनकी काबिलियत... लेकिन पद के साथ कार्याधिक्य, पदानुक्रम के संगत कोई सुख सुविधा नहीं । वेतन कम हो गया अलग से...अधिकाँश प्राचार्य 20 से 50 हज़ार के हानि पर प्राचार्यपद की शोभा बढ़ा रहे हैं। कोई कुलपति तो बने नहीं कि कुछ ...…। नो प्रॉफिट नो लॉस पर तोकुछ किया जा सकता है, लेकिन सेल्फ लॉस पर कितने दिन.. प्राचार्य बन कर आए हैं कोई दधीचि और महर्षि बन कर तो नही। आर्थिक, परिवारिक , सामाजिक हानि, कितनी हानियां कोई सहन कर सकता, अधिकांश की यही स्थिति है।
शिक्षक की सेवा बंधन रहित है, उन्मुक्त है लेकिन प्राचार्य बनते ही आप बन्धनों में जकड़े जाने लगते हैं। प्राचार्य को कार्य उनके साथ ( समकक्ष शिक्षक और कर्मचारी) और उन लोगों ( विद्यार्थियों ) के लिए करने होते है जो प्राचार्य से आंखे मिलाकर ही नही बल्कि आंखे दिखाकर बात करने में सक्षम होते हैं। प्राचार्य की कोई सुनने वाला नही है लेकिन प्राचार्य को सबकी सुनना है। ऐसी परिस्थितियों में प्राचार्य के लिए भी वही पंक्तियां वास्तविक सत्य हैं जो कक्षा तीन का बच्चा गाय पर निबंध लिखने में सबसे पहले लिखता है--- सीधी साधी ....कोई भी हांक सकता ...।
घर पर भी प्राचार्य के लिए पूरा होमवर्क होता है।
प्राचार्य के पास बचा क्या है -- जिले में प्रिंसिपल साहब के कर्णप्रिय संबोधन का सूखा नीरस सम्मान और फील गुड।प्रिंसीपली के गुड़ का स्वाद तो परदे के पीछे वाले निर्देशक(डाइरेक्टर) और निर्माता (प्रोड्यूसर) ले रहे हैं।
आज के समय मे जो शिक्षक महाविद्यालय की प्रशासनिक व्यवस्था में सक्रिय योगदान न दिया हो, बहुत अकादमिक और इजी गोइंग हो, इतने श्रमसाध्य, समयसाध्य समस्याओं, झंझटों का सामना करने का आदिती न हो, नीचे ऊपर हर व्यक्ति से तालमेल बनाने में सक्षम न हो तो उसके लिए डिग्री कॉलेज की प्रिन्सिपली नही है।शिक्षक की नौकरी में दुपहरिया को भी सोने को मिल जाता है लेकिन प्रिन्सिपली में रात को भी देर से सोकर सबेरे जल्दी जागना पड़ता है।सपने में भी केवल पेंडिंग काम दिखाई पड़ते है।
अब इन परिस्थितियों एवं समस्याओं का समाधान
The Principal as Professional Development Leader ( Lindstrom, Speck ) और The Principal as School Manager ( Sharp, Walter ) पढ़कर भी नहीं पाया जा सकता।
प्राचार्य के कार्यों एवं उत्तरदायित्व का विभाजन होना चाहिए। उसकी अकादमिक प्रवृत्ति यदि पूर्व में रही हो तो आगे भी बनी रहे, इसके लिए व्यवस्थागत सुधार अत्यावश्यक है। अन्यथा अभी तो त्यागपत्र ही दे रहे है, भविष्य में आवेदनपत्र ही नही देंगे। शिक्षकों के बड़ें अंश की प्राचार्य पद के प्रति अनिच्छा और तटस्थता इसी विज्ञापन से स्पष्ट हो चुकी है। महिला शिक्षकों की बढ़ती संख्या और प्रोफेसरशिप मिल जाना प्राचार्य पद के प्रति इस प्रवृत्ति को बहुगुणित ही कर रहा है।
अब तो केवल उच्चाकांक्षी और महत्वाकांक्षी शिक्षक ही प्राचार्यत्व कर पाएंगे जिन्होंने सिध्दांत के रूप में अपना लिया हो...जिस हाल में जीना मुश्किल हो उस हाल में भी जीना लाज़िमी है..!!
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हम दुनिया मे आये हैं तो जीना ही पड़ेगा,
जीवन है अगर ज़हर तो पीना ही पड़ेगा!!
नव नियुक्त प्राचार्यों की बातों व भावनाओं पर आधारित एवं निवेदित
लेखक डॉ ओमकार नाथ पाण्डेय




