लखनऊ

यूपी: कितनी टिकाऊ है योगी की क्लीनचिट

suresh jangir
3 Jun 2021 5:56 AM GMT
यूपी: कितनी टिकाऊ है योगी की क्लीनचिट
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इन दोनों विचार और प्रचार श्रंखलाओं के बीच सबसे बुनियादी सवाल यह खड़ा हो रहा है कि अगर योगी शासन में सब कुछ ठीक ठाक था तो यूपी की इस सारी राजनीतिक क़वायद के पीछे आख़िर मक़सद क्या था?


बेशक़ कोविड से निबटने में योगी सरकार को 'क्लीन चिट देने वाला पार्टी की आकलन समिति के प्रमुख बीएल संतोष का लखनऊ से जारी ट्विटर वक्तव्य मुख्यमंत्री आदित्यनाथ को कुछ हद तक राहत दे लेकिन क्या इससे प्रदेश में फैला मूल प्रश्न हल हो जायेगा? पार्टी की हाई पावर आकलन कमेटी के समक्ष दिया गया मुख्यमंत्री आदित्यनाथ का सफाईनामा उनके पर कुतरने को बेचैन पार्टी आलाकमान की कोशिशों को विराम देने में कारग़र साबित हो जाएगा?

दस दिन से ज़्यादा हो चले हैं भाजपा की यूपी सियासत को गरमाये हुए। दिल्ली से लेकर लखनऊ तक के भाजपा हलकों में भांति-भांति की राजनीतिक शोशेबाज़ियां चल रही हैं। ज़ाहिर है मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, उनकी राजनीतिक हैसियत और इस हैसियत का भविष्य इन सबके केंद्र में है। उनसे चिढ़ने वाले और उनकी प्रशासनिक कार्यपद्धति से खुन्नस मानने वाले पार्टीजन चीख-चीख कर गुहार लगा रहे हैं कि योगी जी के पर कतरने का वक़्त आ चुका है और आलाकमान इस बाबत अपना मन बना चुका है। उनका समर्थक खेमा (जो फिलहाल अल्पमत में ही है) मगर ज़ोर-शोर से इस प्रचार में संग्लग्न है कि शीर्ष नेतृत्व की इस 'डेंटिंग-पेंटिंग' के पीछे महज़ 2022 के विधान सभा चुनावों में पार्टी की विजय पताका को और भी ऊंचा ले जाना है और यह विजय अभियान योगी के बिना और उनकी सलाह-मशविरे को दरकिनार करके संभव नहीं।

इन दोनों विचार और प्रचार श्रंखलाओं के बीच सबसे बुनियादी सवाल यह खड़ा हो रहा है कि अगर योगी शासन में सब कुछ ठीक ठाक था तो यूपी की इस सारी राजनीतिक क़वायद के पीछे आख़िर मक़सद क्या था?

योगी आदित्यनाथ और उनकी सरकार के बीते 4 साल के प्रबंधन को लेकर उनकी पार्टी के भीतर जैसा असंतोष फैला है, वैसा भाजपा शासित किसी राज्य में देखने को नहीं मिलता। आम जनता-जनार्दन की बात तो दरकिनार, विधायकों और सांसदों की बात तो दरकिनार राज्य के कबीना मंत्रियों और यूपी से सम्बद्ध सभी केंद्रीय मंत्रियों की आम फ़हम शिकायत है कि प्रदेश सरकार में न मुख्यमंत्री उनकी पूछ करते हैं न अफसरशाही उन्हें ढेले भर का भाव देती है।

लोगों की सहनशक्ति की रही सही कमर कोविड 19 की दूसरी 'वेव' ने तोड़ कर रख दी। चौतरफा मचे अस्पताल, बैड, दवाओं और ऑक्सीजन के संकट के चलते सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर और पैरा मेडिकल स्टाफ आम आदमी के रोने-धोने की तरफ ऑंखें मूँद कर और कानों में अंगुलिया डाल कर जिस तरह निर्मम मन से बैठ गए और प्राइवेट हॉस्पिटल परेशान हाल मरीज़ों और उनके परिजनों के ख़ून के जिस तरह प्यासे बन गए, वह सचमुच भयावह है। उधर महामारी एक्ट के मुख्य नायक बने प्रदेश के ज़िलाधिकारी गण और उनकी गोद में बैठे सीएमओ की फ़ौज ने विधायकों, सांसदों और मंत्रियों की सत्तागत हुनक को धुल में मिलाने की जैसी क़सम खायी, उसने इन जन प्रतिनिधियों के लोकतान्त्रिक अधिकारों की आस्था और विश्वास को ही हिला कर रख दिया। शतरंज के बोर्ड पर सवार इन वज़ीरों की दिक़्क़त यह रही कि अपने क्षेत्र के जिन बहुसंख्य 'पैदल' की सिफारिश को लेकर चली गयी उनकी तमाम 'चालों' को योगी शतरंज के इन 'ऊँट' और 'घोड़ों' ने पटक-पटक कर दे मारा, उन्हीं पैदल के बूते उन्होंने अगले चुनाव जीतने के सपने संजोये थे।

योगी निजाम के ताबूत में आखिरी कील ठोंकने का काम नदियों में बहते शवों और गंगा तलहटी में दबा कर दफ़नाए गए 'हिन्दू' आस्थावान शवों के उघड़ जाने की हौलनाक़ तस्वीरों के वायरल हो जाने के दृश्यों ने किया। ये दृश्य वास्तव में इतने भयावह थे कि प्रदेश और देश की जनता के धार्मिक विश्वास तो कंपकंपाए ही, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक की वैधानिक आस्थाएं भी बुरी तरह से डगमगा गईं।

चारों तरफ मचने वाले कोहराम के बीच बंगाल के चुनाव नतीजे आ गए। इन नतीजों ने आला कमान की जैसे हवा ही निकाल दी। अपनी शक्ति-सामर्थ्य के सारे घोड़े झींक देने के बावजूद प० बंगाल में पार्टी को मिली क़रारी शिकस्त ने न सिर्फ़ पार्टी के देशव्यापी मनोबल को तोड़ डाला बल्कि 'घर घर मोदी-हर हर मोदी' के उस जादुई तिलिस्म पर भी बड़ा हमला बोल डाला। कोरोना की दूसरी लहर में यह पहले से ही शिथिल पड़ा हुआ था। बंगाल के नतीजों का असर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उन एकाधिकार शक्तियों पर भी हुआ है जिन पर सवालिया निशान खड़ा करने की हैसियत 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ' भी भूल चुका था। बंगाल के चुनावों के समानांतर यूपी पंचायतों के नतीजों ने भी भाजपा के किले के भरभरा कर धराशायी हो जाने की ख़बरों से आलाकमान को बेतरह डरा दिया।

क्या यह 'आरएसएस' का दबाव है, जिसके चलते प्रदेश के पूरे परिदृश्य पर पुनर्विचार करने और तदनुसार लिए गए निर्णय के बाद एक बार फिर 'संघ' और पार्टी की पूरी शक्ति को झोंक कर मोदी का तिलिस्म नए सिरे से खड़ा करके यूपी की वैतरिणी पार करने की योजना बन रही है।

पिछले सप्ताह दिल्ली में हुई 'संघ' के सहकार्यवाहक के साथ प्रधानमंत्री, पार्टी अध्यक्ष, गृह मंत्री और केंद्रीय संगठन मंत्री की बैठक (जिसमें यूपी के संगठन मंत्री सुनील बंसल को भी बुलाया गया था) और इसी सप्ताह दिल्ली से पार्टी महासचिव बीएल आनंद की सदारत में गठित कमेंटी लखनऊ में 2 दिन टिक कर मुख्यमंत्री, दोनों उप मुख्यमंत्रियों, दर्जन भर से ज़्यादा काबीना मंत्रियों और विधायकों के साथ अलग-अलग मीटिंगें करके फीडबैक लेने की प्रक्रिया बताती है कि यूपी में सब कुछ ठीक नहीं। लखनऊ की मीटिंग में जो जो तथ्य उभर कर सामने आये हैं, वे स्तब्ध करने वाले तो हैं ही, बताया जा रहा है कि प्रदेश के नेताओं ने इस कमेटी के समक्ष साफ़ कर दिया है कि मौजूदा परिदृश्य के रहते विधान सभा चुनाव जीतना एक असंभव कारगुज़ारी होगी।

क्या आत्मवक्तव्य के जरिये मुख्यमंत्री आदित्यनाथ अपने ऊपर छाए धुंध के इन बादलों को छांट पाने में कामयाब हो गए? यह मामला यदि इतना आसान नहीं है तो बीएल आनंद के हड़बड़ी में देिये गए ट्यूटर वक्तव्य के क्या मायने? क्या योगी को क्लीनचिट देने के पीछे 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ' की रणनीति है जो योगी के 'हिन्दू कार्ड' को आने वाले विधान सभा चुनावों में कमज़ोर होते नहीं देखना चाहता? अहम प्रश्न यह है कि मामला इतना ही सहज होता तो लाइलाजी में हुए मुर्दा शरीरों को लेकर अंतिम संस्कार के लिए इधर से उधर भटकते परिजनों के कलपते स्वर कैसे शांत होंगे? कैसे नदियों में तैरते शवों की 'अंतरआत्माएं' प्रशासकीय कुप्रबंधन से मोक्ष पा सकेंगी? कैसे लगातार 4 साल से उपेक्षा झेल रहे पार्टी के जनप्रतिनिधि और कार्यकर्ता अपने क्षोभ और शिकायतों को झुठला पाएंगे?

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