
आज के अखबार : वोट चोरी से ध्यान हटाने के लिए किए जा रहे ‘उपायों’ की भरमार और उनके प्रचार की गोदी सेवा
राहुल गांधी ने प्रेस कांफ्रेंस करके दावा किया कि लोगों के वोटर आईडी डिलीट किए जा रहे हैं तो उनके राजनीतिक विरोधियों के कुछ ऐसे दावे सामने आए थे जो कह रहे थे कि कोई मेरा भी हुआ था, वहां भी हुआ था, होता रहा है, क्या फर्क पड़ता है, सब करते हैं आदि आदि... आज इंडियन एक्सप्रेस इस खबर से बता रहा है कि चुनाव आयोग चिन्तित है, उपाय कर रहा है आदि। इसमें यह मुद्दा गायब हो गया कि चुनाव आयोग ने (इस संबंध में) कर्नाटक सीआईडी के 18 पत्रों के जवाब नहीं दिये हैं और यह 18 महीने में हुआ। अब यह सब इतनी जल्दी क्यों हो रहा है, वह भी मुद्दा नहीं है। कुल मिलाकर, यह सब देश-दुनिया का ध्यान मूल मुद्दे से हटाने की साजिश है। ... राहुल गांधी के खिलाफ बाकायदा अभियान चलाया गया है और उनसे लोगों को नाउम्मीद करने या रहने के लिये प्रेरित किया गया है। जबकि वोट चोरी नहीं होती तो नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं होते। फिर भी कुछ लोग जानबूझकर अपनी ऐसी मानसिकता का प्रदर्शन करते हैं। जो कहा गया है उसका मतलब यह भी निकाला जा सकता है कि राहुल गांधी कुछ नहीं कर पायेंगे इसलिए वोट चोरी होती रहे, हम तो चोरों के साथ या चोर चौकीदारर के साथ हैं, रहेंगे।
संजय कुमार सिंह
वोट चोरी से ध्यान हटाने के लिए सरकार ढेरों उपाय कर रही है। उसमें यह नहीं देखा जा रहा है कि किन उपायों से असल में फायदा होगा या कौन से उपाय दिखावटी है। मकसद बहुत साफ है - इतनी खबरें हों कि वोट चोरी को जगह ही न मिले या वोट चोरी का मामला पुराना लगने लगे। कहने की जरूरत नहीं है कि वोट चोरी हुई है। उसके कई सबूत हैं। चुनाव आयोग के उनमें शामिल होने का संदेश है और चुनाव आयोग जांच में सहयोग नहीं कर रहा है। एसआईआर की सुनवाई के दौरान उसने मनमानी की और सुप्रीम कोर्ट से भी कहा कि वह 'मन की बात' करने के लिए अधिकृत है। इसमें मुद्दा तो यह भी हो सकता था कि चुनाव आयोग ने ऐसा कैसे कहा या किस दम पर कहा। लेकिन मुख्य धारा की मीडिया के लिए वह मुद्दा नहीं है और ‘अजीत अंजुम नाम के यू-ट्यूबर’ जैसे कई मित्रों ने बताया है और जो भूल गये थे उन्हें याद दिलाया है कि सरकार ने ताउम्र चुनाव आयुक्त को कानून सुरक्षा दे दी है और भविष्य में दूसरे राजनीतिक दल शायद ही वोट चोरी कराने वाले चुनाव आयुक्तों का बाल भी बांका कर पायें। इस समय संविधान विरोधी जिस दल की दाल गल रही है उसने जो किया है वह चर्चा का विषय ही नहीं है। दिलचस्प यह है कि यहां सही सूचना देने के लिए मैंने गूगल किया, ‘लोकसभा सदस्यों को निलंबित करके चुनाव आयुक्त की रक्षा के लिए कानून बना दिये गये’। जवाब में मुझे लल्लन टॉप की एक पुरानी खबर मिली और शुरू में जो खबरें हैं उनमें मुख्य धारा का कोई अखबार नहीं है। यह सही है कि इसका तकनीकी कारण भी हो सकता है और अगर अखबारों में बिल्कुल यही वाक्य नहीं हुआ या टैग नहीं किया गया होगा तो शायद नहीं दिखेगा (आ नहीं भी दिख सकता है) पर सच्चाई यही है कि ऐसी खबरें गूगल करने पर आराम से नहीं मिलती हैं।
इसीलिये ग्रोक जब नया आया था तो उसकी कई दिलचस्प सूचनाएं सोशल मीडिया पर तो साझा हुईं, मुख्य धारा की मीडिया को सांप सूंघ गया था। अब तो ऐसे कई एआई हैं और खबर मिल ही जायेगी पर अमृत काल की एक सच्चाई और विकास की एक कहानी यह भी है। नामुमकिन मुमकिन है भी हो सकता है। लल्लन टॉप की यह खबर भी चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के नियम से संबंधित है। सांसदों को निलंबित करके चुनाव आयुक्त के लिये सुरक्षा कवच बनाने वाली खबर अभी नहीं आई है। उसपर आने से पहले बता दूं कि इस खबर में कहा गया है, इसके साथ निलंबित सांसदों की टोटल संख्या हो गई 146 कम से कम इस बुलेटिन के लिखे जाने तक तो यही स्थिति है। इसके अलावा लोकसभा ने एक अहम बिल को पास कर दिया। यह बिल देश के चुनाव आयुक्तों से जुड़ा हुआ है। आधिकारिक नाम है चीफ इलेक्शन कमिश्नर और अन्य इलेक्शन कमिश्नर (नियुक्ति, सेवा की शर्तें और कार्यालय की अवधि) विधेयक, 2023। इस बिल को इसी साल 2 मार्च को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए एक अहम फैसले के बाद लाया गया था। भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संवैधानिक बेंच ने फैसला दिया था कि जब तक संसद चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से जुड़ा कानून नहीं बनाती, तब तक प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश की सदस्यता वाली समिति की सलाह पर मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की जाएगी। यह खबर 21 दिसंबर 2023 की है। और पूरी जानकारी खबर से कॉपी पेस्ट है।
इससे आप समझ सकते हैं कि मंदिर बनाने वाली, हिन्दुओं की लोकप्रिय सरकार और 56 ईंची का सीना वाले नॉन बायोलॉजिकल मुखिया की विकास उन्मुख सरकार कानून बनाने में लोकसभा का और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों, परंपराओं और रिवाजों का कितना पालन कर रही है। ऐसे मामलों में नियमों की धज्जियां कैसे उड़ाई जा रही हैं। ऐसा सिर्फ भारतीय जनता पार्टी या संघ परिवार नहीं कर रहा है उसे सहयोग देने वाली पार्टियां और दूसरे लोग खासकर मीडिया भी कर रहा है। वरिष्ठ पत्रकार शीतल पी सिंह की फेसबुक पोस्ट के अनुसार, दिसंबर 2023 में 141 सांसदों को निलंबित करने के बाद भाजपा द्वारा पारित मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त विधेयक, 2023 के खंड-15ए को पढ़ें। भारत में कोई भी अदालत चुनाव आयुक्तों के खिलाफ उनके कार्यकाल के दौरान किए गए किसी भी सिविल या आपराधिक अपराध के लिए मामला नहीं ले सकती, जब तक वे मरते नहीं हैं। उन्होंने खुद को देश के सभी कानूनों से बाहर कर लिया है। यहां तक कि भारत के राष्ट्रपति को भी ऐसी आपराधिक प्रतिरक्षा नहीं है। अब मुझे लग रहा है कि दोनों कानून एक साथ पास हुए हो सकते हैं। पर वह मुद्दा नहीं है। मुद्दा यह है कि नरेन्द्र मोदी की सरकार ने चुनाव आयुक्त की मनमानी नियुक्ति और उन्हें मनमानी करने का अधिकार देने वाले कानून बनाये हैं। इसीलिये चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में कहा होगा कि उन्हें 'मन की बात' करने का अधिकार है। अब वह कह सकता है कि उसे कर्नाटक सीआईडी की चिट्ठियों का जवाब नहीं देने का अधिकार है और उसे इसकी जरूरत नहीं लगती है या निष्पक्ष चुनाव अथवा चुनाव संबंधी गोपनीयता के लिए ऐसी जानकारी नहीं दी जा सकती है।
चुनाव आयोग को सुरक्षा देने के लिए कानून में एक और संशोधन किया गया है। संबंधित वाक्य को बदल कर ऐसा कर दिया गया है जिससे ऐसे “इलेक्ट्रॉनिक रिकार्ड” या वीडियो रिकॉर्डिंग आदि अगर नियमों के तहत विशेष रूप से निर्दिष्ट नहीं हों, तो सार्वजनिक निरीक्षण के लिए उपलब्ध न हो सकें। पहले नियम था कि “चुनाव से संबंधित अन्य सभी दस्तावेज सार्वजनिक निरीक्षण के लिए उपलब्ध रहेंगे” यानी चुनाव से संबंधित अन्य कागजात सार्वजनिक निरीक्षण के लिए खुले होंगे। लेकिन दिसंबर 2024 में, इस नियम में एक संशोधन किया गया – इसके बाद संबंधित नियम 93(2)(a) में यह जोड़ा गया, “चुनाव से संबंधित अन्य सभी दस्तावेज जो इन नियमों के तहत विनिर्दिष्ट हैं सार्वजनिक निरीक्षण के लिए उपलब्ध होंगे। यानी अब केवल वो “दस्तावेज” जो इन नियमों में विशेष रूप से उल्लेखित हैं, निरीक्षण हेतु खुले होंगे। वीडियो, सीसीटीवी, डिजिटल प्रारूप में दस्तावेज आदि नहीं जो 1961 में कानून बनाने के समय होते ही नहीं थे। इस तरह डिजिटल इंडिया का दावा और प्रचार करने वाली मोदी सरकार जो ईवीएम के खिलाफ बोलने पर बूथ लूटने का डर दिखाती है और कांग्रेस पर यह आरोप लगाती रही है वह देश (या चुनाव व्यवस्था) को पुराने जमाने में ले जाना चाहती है और तकनीक का उपयोग (निहित स्वार्थों के कारण) नहीं करने देना चाहती है उसने खुद ऐसी व्यवस्था की है कि चुनाव नतीजों को चुनौती देने वाले डिजिटल दस्तावेज पा ही नहीं सकते हैं और जो नहीं दिया है वह तो नहीं ही दिया है। चुनाव से संबंधित 1961 के नियम में कहा गया था कि चुनाव से संबंधित अन्य सभी दस्तावेज सार्वजनिक निरीक्षण के लिए खुले रहेंगे। बाद के समय में जब डिजिटल डाटा और वीडियो भी उपलब्ध हो गया और उससे चोरी आसानी से साबित हो सकती है तो कानून में ऐसा संशोधन किया गया जो पुराने को तो जारी रखता है पर नये का लाभ नहीं उठाने देता है। असल में तकनीक के मामले में पीछे जाना यही है पर प्रचारकों की बात अलग है। भक्तों की समझ के क्या कहने।
देश का मुख्य धारा का मीडिया सामान्य तौर पर ऐसी खबरें तो नहीं ही कर रहा है उसे बड़ी संख्या में दूसरी खबरें दी जा रही हैं जिससे न सिर्फ मीडिया आम आदमी भी दूसरी बड़ी चिन्ताओं और खबरों या लाभ में उलझा रहे। बचत उत्सव ऐसा ही एक मामला है और उसके लिए जीएसटी में कमी से सरकार को राजस्व का नुकसान होगा, निजी क्षेत्र से प्रचार करवाया जा रहा है और ऐसा ही अरविन्द केजरीवाल और उनकी सरकार ने किया था तो जेल रह आये। कल मैंने यहां इस बारे में लिखा था। आज भी खबर है कि सत्येन्द्र जैन की 7.44 करोड़ की संपत्ति ईडी ने कुर्क कर ली है। ऐसी खबरें बताती हैं कि आम आदमी पार्टी के सत्ता से बेदखल होने के बाद भी उन्हें परेशान किया जा रहा है। इससे सरकार के विरोधी और विपक्षी को बदनाम और कमजोर किया जा सकेगा और कुछ न हो तो वोट चोरी के मूल आरोप से ध्यान हटेगा। मीडिया का बड़ा वर्ग यह नहीं बतायेगा कि सत्येन्द्र जैन की संपत्ति अब कुर्क करने के क्या मायने हैं। आप जानते हैं कि उनके खिलाफ सभी मामले बंद हो गये थे और उनकी पार्टी ने कट्टर ईमानदार होने का दावा करते हुए भाजपा पर आरोप लगाया था कि उन्हें बिलावजह परेशाना और बदनाम किया गया। 2) जीएसटी में कटौती का लाभ नहीं मिल रहा तो 1915 पर शिकायत करें। यही नहीं, एक व्हाट्सऐप्प नंबर भी दिया गया है। जाहिर है यह भी प्रचार है और ध्यान बंटाने के लिए ही है। यह, ‘सरकार काम कर रही है’ का प्रचार तो है ही इसे साबित करने की जरूरत ही नहीं है कि और इन खबरों के बाद है कि सरकार सुनिश्चित करेगी कि जीएसटी दर में कटौती का लाभ जनता को मिले। रेलवे ने यह प्रचार किया है कि रेल नीर की कीमत एक रुपये कम हो जायेगी। एबीपी लाइव की एक खबर है, रेलवे बोर्ड द्वारा जारी नोटिफिकेशन के मुताबिक अब एक लीटर रेल नीर की बोतल 15 रुपये की जगह 14 रुपये में उपलब्ध होगी। इसमें यह भी बताया गया है कि अगर वेंडर पैसे न लौटाएं तो शिकायत कहां करें। मतलब एक रुपये न लौटाने पर तो शिकायत करें लेकिन वोट चोरी पर चुप रहें या भूल जायें।
खबरों में यह मुद्दा ही नहीं है कि बचत का लाभ जनता को मिले। एक रुपये नहीं मिलेंगे तो कोई शिकायत नहीं करेगा और कार पर हजारों रुपये की बचत होनी है तो कोई रोकेगा नहीं। एक दूसरे प्रचारक एनडीटीवी लाइव की खबर यह थी कि मारुति ने 35 साल का रिकॉर्ड तोड़ा, जीएसटी 2.0 के पहले कई सेक्टरों में बंपर बिक्री, बम-बम दिखा बाजार। कहने की जरूरत नहीं है और खबर यह भी थी (भले आपको न दिखी हो) कि जीएसटी 22 सितंबर यानी नवरात्र में लागू किये जाने की घोषणा से बिक्री कम हो गई है, रुक गई है। उद्योग धंधे वाले इससे परेशान थे पर तब खबर नहीं छपी। सरकार समर्थक और वोटर पहले भी नवरात्र में गाड़ियां खरीदते रहे हैं और बिक्री बढ़ जाती रही है। इस बार जब पता था कि 22 सितंबर को डिलीवरी लेने से हजारों रुपये कम लगेगें तो लोगों ने इंतजार किया होगा और कुछ लोगों ने बिना जरूरत भी खरीदी होगी। इसलिये 22 सितंबर को बंपर बिक्री भले बड़ी खबर है लेकिन बनाई हुई है और कोई खास बात नहीं है। लेकिन प्रचारजीवी लोगों और उनके इको सिस्टम की बात अलग है। ऐसे में छोटी बचत वालों को कीमत कम न लिये जाने पर शिकायत करने के लिए प्रेरित करना सामाजिक और बाजार व्यवस्था को खराब करना है। इससे भी वोट चोरी से ध्यान हटेगा इसलिए संभव है सरकार ऐसा चाहती हो पर वह अलग मुद्दा है।
अमूमन सुबह की दूध, ब्रेड मक्खन, पनीर मैं ही खरीद कर लाता हूं, आदतन कभी पैसे नहीं पूछता, नहीं जोड़ता। मोहल्ले का दुकानदार है उसी से खरीदारी करनी है आज कम लेगा तो कल ज्यादा ले लेगा। सुबह शिकायत करने की खबर पढ़कर ध्यान आया कि उसने दो लीटर दूध के 114 रुपये ही जोड़े। जब पुष्टि करने की सोच रहा था तो ध्यान आया कल सोशल मीडिया पर एक पोस्ट पढ़ी थी, (अमूल) दूध के दाम कम नहीं होंगे। संबंधित खबर की लाइन है, अमूल ने भी 700 से अधिक उत्पादों की कीमतें घटाई हैं, जिसमें घी, मक्खन, प्रोसेसेड चीज़, यूएचटी दूध शामिल है। मुझे नहीं पता कि मैं जो दूध लासा हूं वह यूएचटी है या नहीं। ऐसे में दो-चार रुपये बचाने के लिए मैं दुकानदार को क्यों बताने जाऊं कि सरकार के प्रचार वाली ऐसी बेमतलब की खबरें मैं नहीं पढ़ता हूं या वोट चोरी पर जो खबरें मैंने पढ़ी हैं उससे सरकार की पोल खोलता रहता हूं। वैसे भी, दो-चार-दस रुपये (भले रोज) के लिए मैं कहां-कितनी पुष्टि करूं और शिकायत करूं। वह भी तब जब मेरे पास बिल या रसीद है ही नहीं। रसीद देने का नियम भले हो, लेने और मांगने का नियम तो है नहीं। अगर मैं रोज बिल मांगने लगूं तो सुबह मैं अपने काम करूं, उसे दुकानदारी करने दूं या दो-चार-दस रुपये बचाने में लगूं। जाहिर है मैं वो सब नहीं करने वाला और बहुत सारे लोग नहीं करेंगे। उन्हें इससे भी मतलब नहीं है कि बचत हो रही है अथवा नहीं। ऐसे लोग शिकायत करेंगे इसकी उम्मीद बहुत कम है और होनी भी नहीं चाहिये। इसमें एक और सरकारी नियम आड़े आता है। नियम है कि विक्रेता एमआरपी (अधिकतम खुदरा मल्य) पर उत्पाद बेच सकता है। अगर वह पहले ही एमआरपी पर बेचता था तो अब भी (नया माल आने तक) उसी मूल्य पर बेच सकता है। उससे इस बात के लिए कौन, क्यों लड़े कि 21 सितंबर के मुकाबले दो या एक रुपये कम करो। उसका जवाब सबको पता है। सरकार ने 22 सितंबर को समान एमआरपी वाला सामान कम कीमत पर बिके इसके लिए क्या किया है - यह नहीं बताया गया है। पर कहा गया है कि कम न हो तो शिकायत कीजिये। इससे क्या होगा या हो सकता है समझना मुश्किल नहीं है। शिकायत पर कार्रवाई कितनी होती है और क्या होती है उसकी अलग कहानी है। और वोट चोरी की शिकायत पर जवाब नहीं है तो दो रुपये की चोरी की शिकायत उसी वोट चोर व्यवस्था से कौन करे, किस लिये करे। आइये, अब उन खबरों की भी चर्चा कर लें जो सरकारी प्रचार के कारण पिट गईं, कम छपीं या नहीं दिखीं। कम से कम पहले पन्ने पर नहीं हैं जबकि हो सकती थीं।
इनमें सबसे महत्वपूर्ण और दिलचस्प खबर हिन्दुस्तान टाइम्स में है। शीर्षक है, केंद्रीय डेटाबेस में अब तक केवल 0.3% वक्फ रिकॉर्ड हैं। वृंदा तुलस्लान की बाईलाइन वाली इस खबर के अनुसार, अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया कि मंत्रालय द्वारा बार-बार समीक्षा बैठकें आयोजित करने के बावजूद, राज्य सरकारों ने छह महीने की समय-सीमा में काम पूरा करने के लिए आवश्यक अपलोडिंग नहीं की है। इस साल की शुरुआत में संसद में प्रस्तुत आंकड़ों से पता चलता है कि यह अंतर कितना बड़ा है। उस समय तक केवल 9,279 स्वामित्व दस्तावेज और 1,083 पंजीकृत वक्फ विलेख ही पूर्ववर्ती प्रणाली पर अपलोड किए गए थे। उस विरासत की कमी को अब नए उम्मीद ढांचे में शामिल कर लिया गया है। समीक्षा बैठकों में, अधिकारियों ने कई बोर्डों में कर्मचारियों की भारी कमी की ओर इशारा किया। रिक्तियों में पूर्णकालिक सीईओ का पद भी शामिल हैं। मंत्रालय के अधिकारियों ने स्वीकार किया कि डेटा प्रविष्टि की गति नियमों में जो अपेक्षा की गई है उसके मुकाबले बहुत कम है। अधिकारी ने आगे कहा, "अगर अपलोडिंग का काम तेजी से नहीं हुआ, तो ट्रिब्यूनलों पर अब बहुत दबाव होगा और बदले में, मामलों का एक बड़ा बैकलॉग हो जाएगा। हम राज्यों के साथ प्रशिक्षण और समीक्षा बैठकें कर रहे हैं, लेकिन कई राज्य इस काम को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं।" आप जानते हैं कि केंद्र सरकार ने वक्फ कानून कितनी जल्दी में कैसे पास करवाया है और कैसे लागू हुआ है। इन दिनों चल रहे पत्रकारिता के रिवाज के अनुसार यह खबर दूसरे किसी अखबार में शायद ही मिले।
हालत यह हो गई है कि सरकार के प्रचार और जनहित की खबरें बिल्कुल अलग हो गई हैं और अलग अखबारों में छपती हैं। सरकार के हित साधने वाली खबरें सभी (ज्यादातर) अखबारों में होंगी और जनहित की खबरे कम होंगी। सरकार के खिलाफ खबरें अब नहीं के बराबर होती हैं। कुल मिलाकर सरकार का प्रचार ही प्रचार है जनहित की खबरें छूट रही हों तो वह मुद्दा ही नहीं है। जनहित की खबर भी सरकार का प्रचार वाली होती है तभी प्रमुखता से छपती है। आज इंडियन एक्सप्रेस की लीड का शीर्षक है, मतदाता सूची से नाम हटाने के लिये पहचान के दुरुपयोग को रोकने के लिए चुनाव आयोग ई-साइन की सुविधा ले आया। इस खबर का उपशीर्षक या इसके साथ की दूसरी खबर को लीपने-पोतने और मुख्य मुद्दे की चर्चा नहीं करने के लिए बताया गया है कि चुनाव आयोग यह सब राहुल गांधी के आरोपों के बाद कर रहा है। एक अन्य खबर का शीर्षक है, कर्नाटक की जांच में पता चला कि वोटर हटाने के लिए जिन सिम (फोन नंबर) का उपयोग किया गया उनके साथ फर्जी पहचान पत्र लगाये गये थे। कोलकाता में बाढ़ सरकार के काम की है तो दिल्ली के कई अखबारों में प्रमुखता से है। द टेलीग्राफ के पहले पन्ने की लीड है। इंडियन एक्सप्रेस ने दिल्ली में इसकी चार कॉलम की शानदार फोटो चार कॉलम की खबर के साथ छापी है। यह खबर आज द हिन्दू में भी लीड है। शीर्षक के अनुसार करंट लगने से नौ लोगों की मौत हो गई है। दि एशियन एज के अनुसार 10 लोग मरे और हिन्दुस्तान टाइम्स में 11 लोगों की मौत की खबर है। स्पष्ट है कि एक-दो लोगों की मौत (भले किसी महानगर में बाढ़ आने, करंट लगने से हुई हो) खबर ही नहीं है। या खबर के लिए मौत का आंकड़ा सही होना जरूरी नहीं है। दूसरी ओर चुनाव आयोग अपने ऊपर लगे आरोपों का फैक्ट चेक कर लेता है और इनकरेक्ट (सही नहीं है) का ठप्पा लगा देता है पर राहुल गांधी ने कहा, कि वह इधर-उधर की बात न करे, बल्कि कर्नाटक सीआईडी को सबूत दें तो खबर छापने वाले कई लोंगों के हाथ-पांव फूल गये।
इंडियन एक्सप्रेस ने बिहार चुनाव की तीसरी ताकत, प्रशांत किशोर (जो भाजपा और इंडिया गठबंधन दोनों से अलग है) का इंटरव्यू छापा है और उनका यह कहा शीर्षक है कि, चुनाव प्रचार बिहार की समस्याओं पर होना चाहिये न कि वोट चोरी या घुसपैठिया। प्रशांत किशोर ने कहा है कि चाहे राहुल गांधी वोट चोरी की बात करें या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह घुसपैठिया की बात करें , बात ये है कि इनमें से कोई भी बिहार, राज्य से पलायन, बेरोज़गारी या शिक्षा की स्थिति के बारे में बात नहीं कर रहा है। वोट चोरी के मुद्दे का क्या करना चाहिये, चुनाव आयोग गलत कर रहा है या सही, जो हुआ वह सही है या नहीं, इसपर उनकी कोई राय मुझे अभी तक सुनने-देखने को नहीं मिली है। आज टाइम्स ऑफ इंडिया की लीड सीबीआई का आरोप है कि बैंक बिल्डर गठजोड़ या मिलीभगत के 6 मामले मिले हैं। जाहिर है टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए यह भाजपा या सत्तारूढ़ दल और चुनाव आयोग की मिलीभगत से ज्यादा महत्वपूर्ण खबर है। सरकारी प्रचार वाली आज की एक दिलचस्प खबर हैं, आयुष्मान भारत योजना से स्वास्थ्य क्षेत्र में क्रांति आई (दि एशियन एज) तीन कॉलम। दूसरी ओर, देशबन्धु की खबरों का शीर्षक है, 1. वोट चोरी और बेरोजगारी का सीधा रिश्ता 2. पटना में यूथ कांग्रेस का जोरदार प्रदर्शन 3. बचत उत्सव न बन जाये चपत उत्सव 4. 23 महीने बाद जेल से रिहा हुए सपा नेता आजम खान। अमर उजाला में खबर है, सेना की जाली मुहर से भूटान से लाई गई 36 लक्जरी कारें (अमर उजाला)। सेना के खिलाफ कोई बोल दे तो भाजपा के लोग उसे देशद्रोही साबित कर देंगे लेकिन सेना जो कर रही है उसका पता सरकार को तब लगता है जब चिड़िया चुग गई खेत।