"मजनू का टीला: ज़द्दोज़हद जिंदगी की..."

Update: 2018-08-10 11:43 GMT

एक महल हो सपनों का. भले ही हर आम इंसान महलों के ख्वाब देखता हो पर हक़ीकत में अपने रहने के लिए एक छत जुटा पाना भी उसके लिए बड़ा मुश्किल काम हैं. लेकिन मुश्किलें कैसे मुसीबतों का रुप ले लेती हैं. ये आजाद तिब्बत के सपने के साथ भारत आए तिब्बती लोगों से बेहतर और कौन जान सकता है. जिनके जद्दोजहद से बने घर को बार-बार बनाया और बसाकर उजाड़ा जाता है. चलो अब यादगारों की अंधेरी कोठरी खोले..कम से कम एक दो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा. दिल्ली भारत का दिल जो अपने-आप में समाये है न जाने कितनी ही किस्से कहानियां और विरासत. आज हम आपको रुबरु करायेंगे दिल्ली की एक ऐसी जगह से जिसका नाम ही महज़ काफी है. उस जगह तक आपको खींचने में. वक़्त किस कदर इंसान की ज़िन्दगी में बदलाव लाता है, इसका अंदाजा तो खुद वक़्त को भी नहीं है. कभी जो अपना है कब खुद से दूर हो जाता है इस बात का एहसास भी नहीं हो पाता और खुद ज़िन्दगी बचाने की कोशिश में मौत से भागते भागते ना जाने कौन सी सरहद पार कर जाता है. जब उसे एहसास होता है कि मेरी जान तो बच गई, मैंने अपनी साँसे तो बचा ली पर ज़िन्दगी को कही दूर छोड़ आया. इस तरह की बातें या कहानियां अगर फिल्मों में देखीं जाए तो दिल को छूं लेती हैं पर क्या आपको पता है की उनमे से कई कहानियां सच्चाई पर आधारित होती हैं? ऐसी ही दर्दनाक कहानियों का एक छोटा सा मोहल्ला हैं दिल्ली जैसे महानगर में जिसे हम "मजनू का टीला" नाम से जानते हैं.!!


हां जी हां...मजनूं का टीला एक जगह जहां की दीवारों पर दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों की तमाम यादें चस्पा हैं. आइये इस नगरी को थोड़ा और करीब से जाने. मजनूं का टीला सत्तर हजार वर्गमीटर इलाके में बसा है. साढ़े तीन सौ से अधिक मकान हैं. नौ हजार की आबादी है. ज्यादा आबादी दक्षिण भारत के बौध्द मठों और वहां किसानी करने लगे तिब्बती निर्वासितों का मिलन स्थल है. यही ठहर कर वो धर्मशाला की तरफ रवाना होते है. पहले पहल यहां तिब्बती आए और इस वीराने में झोपड़ियां डालकर रहने लगे. शुरुआत में कूलीगिरी रेल पटरी बनाने का काम किया और फिर लुधियाना से इनका रिश्ता हुआ. लुधियाना के ऊन व्यापरियों ने इन्हें उधार पर गर्म कपड़े दिये और ये डिज़ाइन देकर लुधियाना के व्यापरियों से स्वेटर, मफलर और मोजे बनवाते रहे. उन्हें देशभर के तिब्बती बाजारों में ले जाकर बेचते रहे. लुधियाना ने इन्हें व्यापारिक समर्थन दिया जिसकी बदौलत इनके पास कुछ पूंजी आई. धीरे धीरे ये अपने बच्चों को पढ़ाने लगे...अब उनमें से कुछ कॉल सेंटर नें नौकरी कर रहे हैं. कई विदेश जा चुके हैं तो कुछ को होटलों में चाइनीज खाना बनाने की नौकरी कर रहे हैं. इन सबसे जो पैसा आया उसका असर यहां की इमारतों पर हुआ पहले तो पक्के मकान बने फिर उनमें किरायेदार ठहरने लगे धीरे-धीरे यहां की आबादी बढ़ने लगी और बड़ी संया में बौध्द मठों ने धर्मशालाएं बनवाई. आबादी बढ़ने के साथ-साथ कमाई का जरिया भी बढ़ा और अच्छी कमाई से यहां के निवासियों का गुजारा होने लगा. बौध्द मठों में बिहार के कई गरीब बालिग बच्चों को नौकरियां दी जाने लगीं. इसलिए यहां आपको कई ट्रैवल एजेंट घूमते दिखेंगे. एक समय में जहां इमारतों का बनने का काम जोर-शोर से चल रहा था. वहीं फलहाल यहां किसी तरह के निर्माण कार्य पर रोक लगी हुई है।


यहां गाड़ियां अंदर नहीं आ सकती क्योंकि गलियां छोटी हो चुकी हैं. जी हां हम बात कर रहे हैं. मजनूं का टीला की. तंगहाल गलियां है इसलिए मंदिर के आंगन और घर के बाहर बने छोटे-छोटे चौराहों पर लोग ठाठ से बैठे चाय की चुस्कियां लेते मिल जायेंगे और तो और यहां के बच्चे भी खेलने के साथ-साथ अपने बचपन को भरपूर जीने की कला बखूबी जानते हैं. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि उन्हें यहां एक सुरक्षित माहौल नजर आता है. इन घरों में अब पारंपरिक चीजें कम होती जा रही हैं. शायद ये समय बदलने का इशारा हैं...इसलिए अब आलम ये हैं कि ये सारे घर मुनिरका या बेरसराय जैसे लगने लगे है. लेकिन आशा की किरण अभी भी नजर आती है. क्योंकि कुछ घर ऐसे हैं जहां अभी भी धूप जलाने का पवित्र चूल्हा बना हुआ है. वहीं लगभग हर जगह मंत्रों से लैस पताके लहरा रहे होते है. तिब्ततियों का प्राचीन पहनावा छुबा लबादा अब कोई नहीं पहनता क्योंकि अच्छी क्वालिटी का छुबा दस से पंद्रह हजार तक का आता है. इसलिए यहां रहने वाली कुछ ही औरतें इन्हें पहनती हैं मगर वो भी हल्के कपड़ों वाले. आपने यमुना के किनारे बने क्लब तो देखे ही होंगे. ये तिब्बती यूथ कांग्रेस का क्लब है. जिसके मालिक ने पैसे की कमी के रण मकान नहीं बनाया. लिहाजा यहां चाय नाश्ते की शानदार दुकान है. चाय के साथ-साथ आप यहां के खूबसूरत नजारे का लुत्फ उटा सकते है. कैरम खेलते हुए खिड़की से नदी को देखना यकीन मानिए दिल्ली में सबसे बेहतरीन जगह होगी जो बेहद खूबसूरत होने के साथ-साथ बहुत सस्ती भी है. एक मजेदार बात जो शायद आप लोगों को नहीं पता. यहां के लोगों को कान की सफाई कराने की आदत हैं. इसलिए दस रुपये में आपको बढ़िया कान साफ करने वाले खूब मिल जायेंगे.।

प्रशासनिक स्तर पर देखा जाये ते यहां की खास बात ये है कि यहां के रेजिडेंट वेलफेयर दफ्तर में हर नागरिक की फाइल बनी हुई हैं....और क्योंकि हर मकान के नीचे दुकान हैं इसलिए सारे दुकानों की गिनती भी की गई है. पूरे मौहल्ले की देखरेख पंचायत परिषद ही करती है जो वेटिंग के बाद सात सदस्यों को चुनती हैं. इन लोगों का सपना है तिब्बत की आजादी. यहां रहने वाले हर तिब्बती ने अपने दिल में एक ही अरमान संजोया हुआ है कि. कभी तो आजाद होगा तिब्बत विस्थापन की मार झेल रहे यहां के लोग विस्थापन के बीतर एक विस्थापन भुगत रहे हैं. मां बाप कई सालों तक कड़ी मेहनत करने के बाद जैसे ही थोड़े स्थायी होने लगे तो उनके बच्चे बाहर चले गए यहां के स्कूल में पढ़ने वाले सभी बच्चे पांचवीं से धर्मशाला या पहाड़ों पर बने तिब्बती स्कूलों में चले जाते हैं..यानी फिर से विस्थापन. कुछ भी स्थाई नहीं हैं. जैसे पूरी बस्ती ही उजड़कर फिर से बसने के इंतजार में हैं. लेकिन सफाई के मामले में यहां के लोग बड़े ही जागरुक हैं. इनके मोहल्ले का कचरा यमुना में ना जाए इसलिए यहां की महिला समिति कचरा उठाने वालों की खुद निगरानी करती हैं. कचरे को दो भागों में बांट दिया जाता हैं...एक प्लास्टिक वाला और दूसरा सड़ने वाला जिससे यमुना में कुछ भी कचरा नहीं जाता. एक शहर के भीतर कई तरह के स्पेस बन गये हैं और सब स्पेस एक दूसरे से अलग हैं. हर मामले में यहां कुछ भी स्थाई नहीं है. अब तो बस पूरी बस्ती फिर उजड़कर तिब्बत में बसने के इंतजार में हैं. यूँ तो तिब्बती अपने अस्तित्व के लिए पिछले 300 सालो से संघर्षरत है. लेकिन जो स्वाधीनता संघर्ष इन्होने 10 मार्च 1959 को शुरू किया था. वह भी आज 60 साल का बुड्ढा हो गया...दो टूक शब्दों में. उनका यह सपना सपना ही रहेगा जब तक तिब्बती लोग चीन के खिलाफ कोई सशत्र खुनी संघर्ष नहीं छेड़ते. तिब्बती लोगों को सच में स्वाधीनता पानी हैं. तो एक निठ्ठले व्यक्तित्व की छवि को त्यागना होगा. जब तक चीन कम्युनिस्ठों के हाथों में है. उनसे इज्जत से अपना क्षेत्र लौटाने की कल्पना करना ही इनकी मुर्खता है. पहली गलती इन तिब्बतियों ने तब की थी जब 1788 में नेपाल के हमले के खिलाफ चीन से मदद मांगी. दूसरी गलती तब की जब ब्रिटेन ने 1905 में ढाई करोड़ में इसे चीन को बेचा.. यह भी इनके निठल्लेपन की ही मिसाल थी. और तीसरी गलती इनके उस पडोसी ने 1954 में कर दी. और जिसने पंचशील के समझौते को करते वक्त इसे चीन का हिस्सा करार दिया. और चौथी और अंतिम गलती 1959 में की जब बिना तैयारी के इन्होंने आजादी की लड़ाई का बिगुल फूका मगर खाना पूर्ति के सिवाए कुछ नहीं किया. अगर तिब्बत वास्तव में स्वाधीनता चाहता है तो इतने सालों तक उन्होंने शांति-प्रिय होने की मिशाल दुनिया को दे दी. और अब उन्हें हथियार उठाने ही पड़ेंगे. अन्यथा वे स्वाधीनता भूल जाए और भाग कर भारत आते रहे और हिन्दुस्तानियों की छाती में मूंग दलते रहे. ।


देशों की आजादी का इतिहास बताता है कि आजादी के दिवानो ने उसी मुल्क में रहकर शासन के खिलाफ बगावत की जंग और कुर्बानियां दी हैं...तिब्बत की आजादी की जंग की बात हिमाचल में भी कई लोगों के गले नही उतरती जबकि निर्वासित सरकार यहीं चल रही है. ऐसे लोगों का तर्क है कि चीन जोर शोर से आजादी की मांग भी नही उठाई. कई लोग तो यहां तक कहते है कि गुलाम मुल्क से भागने वालों पर लोग रहम तो कर सकते हैं. मगर आजादी रहमत नही शहादत से मिलती है. खैर लोगों के मुंह बन्द थोडे ही कर सकते हैं. रही तिब्बत की आजादी की बात...तो वही ढाक के तीन पात. धर्मशाला (हिमाचल) में रहकर तिब्बत की स्वाधीनता की मशाल जला रहे. तिब्बती समुदाय के बुद्धीजीवियों का छटा शिष्टमण्डल भी चीनी सरकार के प्रतिनिधियों से बात कर उल्टे पांव लौट आया. तिब्बत की आजादी को लेकर कोई आश्वासन मिला. न ही निर्वासित तिब्बतियों को स्वदेश आने का आमन्त्रण मिला. हालांकि तिब्बत से पहले भी कई मुल्क गुलाम तथा आजाद हुए.!!

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए.!

मेरे सीने में नहीं तेरे सीने में सही, हो कही भी आग. लेकिन आग जलनी चाहिए.!!

विस्थापन का दंश ही सही बसने-उजड़ने की मजबूरी ही सही पर फिर भी इन्होंने कभी किसी बात की शिकायत नहीं की क्योंकि इनका एक ही है आजाद तिब्बत देश के लिये प्यार हो, मिलकर शांति से रहने की आदत हो या फिर सफाई और व्यवस्था के साथ गुजर बसर करना वाकई ये लोग जाने-अनजाने में. कई मायनों में हम भारतीयों को सीख देकर.

भारत माता का कर्ज हमसे बेहतर तरीके से चुका रहे हैं. जबकि उनकी आँखों में उनकी बातों में चकाचौंध बाज़ार के अँधेरे गलियारों का दर्द है, ये दर्द है देश छोड़ने का, अपनों से दूर होकर ज़िन्दगी से सामना करने का...पर फिर भी वो जी रहे हैं मुल्क को आज़ाद कराने का, अपने देश वापस लौटने का, अपनी मिट्टी में आखिरी सांस लेने का सुनहरा ख्वाब देखते हुए. उनके इस ज़ज़्बे को सलाम है. शायद इसे ही कहते हैं ज़द्दोज़हद जिंदगी की.!!

कुंवर सी. पी. सिंह टी. वी. पत्रकार

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