देवगढ़ की वह पहली रात

Update: 2020-07-28 09:52 GMT

कायनात काजी 

मन के किसी कोने में बचपन में एक सपना पोटली बांध कर रख दिया था कि 1 दिन ऐसा आएगा कि मैं मध्य भारत में सतपुड़ा के जंगलों में भीतर कहीं गहराइयों में जाकर कुछ दिन गुजरूंगी।

इतने सारे वर्षों में कितनी ही बार मैंने उन सपनों को काट छांट कर सीधा उल्टा किया था लेकिन ऐसी नौबत नहीं आ पाई थी कि जिंदगी मुझे इतनी मोहलत देती कि मैं अपने शहर की आधुनिक जिंदगी को पीछे छोड़ एक टुकड़ा जिंदगी जंगल में जी आती। लेकिन मैं मानती हूं कि सपने देखना नहीं छोड़ना चाहिए अपने सपनों को पालना चाहिए तब भी जब उनके पूरा होने की कोई उम्मीद दिखाई ना देती हो।

मेरे ऐसे कितने ही सपने रहे हैं जो बहुत इंतजार के बाद पूरे हुए हैं। इंसान को जिंदगी में सपने देखना नहीं छोड़ना चाहिए।

और फिर वह दिन आया कि मैं सतपुड़ा के जंगलों में रहने के लिए पहुंच गई। मैं जैसे-जैसे छिंदवाड़ा शहर की हलचल को पीछे छोड़ रही थी वैसे वैसे जंगल में और गहरे प्रवेश कर रही थी। या यह कहें कि जंगल मेरे भीतर प्रवेश कर रहा था। एक स्थान पर आकर जहां सतपुड़ा की पहाड़ियों के घुमाव शुरू हुए और हम घाट चड़ने लगे मुझे एहसास हुआ कि आधुनिकता जिसे हमने बहुत कस के पकड़ा हुआ है वह धीरे धीरे मेरे हाथ से सरक रही है। मोबाइल से नेटवर्क के टावर के डंडे धीरे धीरे चुपके से गायब रहे थे। और जैसे ही हम घाट उतरना शुरू हुए वह बैरी झट से गायब हो गए। बिल्कुल उस प्रेमी की तरह जो मुश्किल आते ही फुर्र हो जाता है।

अब मैं कहां हूं यह मैं किसी को बता भी नहीं सकती। जंगल के बीच लेकिन जिस की खबर मुझे भी नहीं है। पहली पहली बार ये एहसास हौलाने वाला होता है। हम संपर्क में रहने के इतने आदी हो गए हैं कि संपर्क टूटने के एहसास से भी डर जाते हैं।

हम घाट उतरे और देवगढ़ फॉरेस्ट गेस्ट हाउस में पहुंचे। जहां चारों तरफ चीड़ के पेड़ों से घिरा गेस्ट हाउस खामोशी से वर्षों से खड़ा हुआ था। आने वाले कुछ दिनों तक यह मेरा निवास होने वाला था।

हमारा पहला दिन तो उस टेंपरेरी निवास को रहने लायक बनाने में बीत गया। मेरे खाने की व्यवस्था इस गेस्ट हाउस से 1000 मीटर के फासले पर स्थित देवगढ़ गांव में एक आदिवासी परिवार में की गई थी। जहां से चूल्हे की रोटी और बढ़िया खाना बन कर आता था। जंगल में घूमने के बाद तेज भूख लगना स्वाभाविक है जिसका इंतजाम को ईश्वर ने कर दिया था। लेकिन अभी वह होना बाकी था जिसका अंदाजा मेरे बचपन के देखे सपने में भी मैंने सपने में नहीं सोचा था।

जैसे-जैसे सूर्य अस्त हुआ और इस सरकारी गेस्ट हाउस के ऊपर शाम उतर आई। यहां का माहौल बदलने लगा। अभी तक हरियाली से भरे हुए यह सागौन और चीड़ के ऊंचे ऊंचे पेड़ जो मुझे बहुत आकर्षित कर रहे थे और अपनी सुंदरता से मेरे अंदर की बंजर पन को हर रहे थे। रात के अंधेरे में एक अलग रूप में मेरे सामने खड़े थे। जंगल दिन में जितना शांत होता है वह उतना ही रात में जाग जाता है और शोर से भर जाता है। रात हुई और मैं क्योंकि थकान मुझ पर हावी थी बिस्तर पर डालकर बेसुध सो गई। रात के तीसरे पहर मेरी आंख खुली एक आहट से। ऐसा लगा जैसे किसी ने दरवाजा खोलने की कोशिश की हो। दरवाजे पर धक्का देने की आहट ने मुझे झंझोड दिया। मैं अपने बिस्तर पर लेते लेते उस आहट का सुनने की कोशिश करने लगी मेरे कमरे के बाहर के दालान के पार दूर तक फैली हरियाली इसमें झींगुर बोल रहे थे। झिंगरों की आवाज मेरे लिए नई नहीं थीं किन इन आवाजों के बीच एक आवाज जो बिल्कुल नई थी वह मेरे कानों की तरह धीरे-धीरे बढ़ रही थी। छम छम छम....

जैसे कोई पैर में घुंघरू बांध कर धीरे धीरे चल रहा हो। मैं दम साधे उस आवाज को सुनने की कोशिश करने लगी। वो छम छम मेरे ध्यान लगाने से रुक जाती। और फिर से होने लगती।

कितनी देर तक यह क्रम चलता रहा। अभी तक जितनी हॉरर फिल्में देखी थी उन उन सभी के कहानियों के प्लॉट मुझे याद आने लगे। हॉरर फिल्मों में ऐसी सीक्वेंस कई बार देखी है मैंने कि जंगल के बीच बने गेस्ट हाउस में एक बुड्ढा चौकीदार होता है और वहां शहर से आए हुए कुछ लोग रात में आ रुकते हैं। और आधी रात को अचानक छम छम की आवाज आती है। और इनमें से कोई एक व्यक्ति जागता है और उस आवाज के पीछे पीछे जंगल की ओर चला जाता है।

कट टू।

अगले दिन उसकी लाश मिलती है। मुझे समझ में आज तक नहीं आया कि भाई अंधेरे में उठकर उस आवा ज का पीछा करते हुए जंगल में चला क्यों जाता है। जंगल में उस आवास का पीछा करते हुए जाकर क्या उखाड़ लेगा? चुपचाप तान के सो क्यों नहीं जाता।

यहां थोड़ा थोड़ा डर भी लगा।

लेकिन फिर सोचा। जो होना है वह होकर रहेगा। इसलिए फिकर करने की बात नहीं है। भूत प्रेत में विश्वास नहीं रखती। जंगल में जंगली जानवर का डर होना स्वभाविक है। लेकिन आत्माओं का डर मुझे नहीं लगता। मैंने कमरे को अंदर से अच्छे से बंद किया है यह मुझे याद था। दरवाजे कुंडी ताले आत्मा पर तो असर करेंगे नहीं। अगर उसे आना होगा तो कैसे भी आ जाएगी। ज्यादा सोचने से अच्छा यह है कि सो जाओ सुबह देखेंगे।

मैंने भी अपने डर को झटका और तान कर सो गई।

आज यहां रहते हुए मुझे 10 दिन बीत गए हैं। अब इस जंगल के साथ शानासाई हो गई है। मुझे इस से और इसे मुझ से डर नहीं लगता।

हम बड़े मजे से यहां रहते हैं। पास में एक वाटरफॉल ढूंढ लिया है। जो आजकल मेरा पर्सनल स्विमिंग पूल बन गया है। वही जाकर नहाते हैं।

आगे का किस्सा अगली पोस्ट में सुनाऊंगी।

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