समलैंगिकता का विस्त्रत विश्लेष्ण, सुनकर आपका माथा भी ठनक सकता है पूरी बात!

Update: 2018-09-08 11:23 GMT

आज व्हाट्सएप पर एक व्यंगात्मक लेख पढ़ने को मिला। हमारे देश की सामान्य मानसिकता पर और हम अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को कितनी गंभीरता और वस्तुपरक दृष्टिकोण से लेते हैं, इस पर यह एक गंभीर कटाक्ष है। मेरी राय में यह लेख सभी विवेकशील भारतीय द्वारा खुले दिमाग़ से पढ़ने और उससे भी ज़्यादा गंभीरतापूर्वक मनन करने योग्य है। सभी मित्रों को यह सारगर्भित लेख समर्पित।

" समलैंगिकता पर कोर्ट के निर्णय के साथ ही लोगबाग जाग गए। हमने प्रतिक्रियाएँ देनी शुरू कर दीं क्योंकि हम किस बात पर प्रतिक्रिया देंगे यह हमेशा दूसरे खेमे से तय किया जाता है।

एक सामान्य प्रतिक्रिया है कि लोगों को पप्पू याद आएगा ही आएगा। कुछ हँसी मजाक होगा। समलैंगिकता की उससे ज्यादा प्रासंगिकता हमारे समाज में कभी नहीं थी। अगर कोई समलैंगिक निकल आता है तो हमारे देश में यह थोड़े मजाक और थोड़े कटाक्ष से ज्यादा बड़ा विषय कभी नहीं बनता। आपने किसी को जेल जाते तो नहीं सुना होगा।

पर पश्चिम की बात कुछ और है। यहाँ यह सचमुच दंडनीय अपराध था। ऑस्कर वाइल्ड ने कई साल जेल में गुजारे थे। पर वह तो था ही मोटी चमड़ी वाला। उससे ज्यादा दुखद कहानी है कंप्यूटर के आविष्कारक गणितज्ञ एलन ट्यूरिंग की। ट्यूरिंग बेचारा शर्मीला सा आदमी था। उसे बेइज्जती झेलने की आदत नहीं थी। उसे सजा के तौर पर कुछ साल हॉर्मोन थेरेपी दी गई, फिर उसने आत्महत्या कर ली।

इन दुखद कहानियों का बहुत बड़ा बाजार है। भारतीयों का कोमल हृदय ऐसी ट्रैजिक कहानियों के लिए बहुत ही उर्वर मिट्टी है। तो आज मुझे भी एक-दो सहानुभूति से भरी हुई पोस्ट्स मिलीं, जिनमें समलैंगिकों की व्यक्तिगत पसंद और जीवन शैली के प्रति सम्मान और स्वीकार्यता के स्वर थे।

पर यहाँ किसी के लिए भी समलैंगिक व्यक्तियों के सेक्सुअल ओरिएंटेशन की पसंद और निजता का विषय विमर्श का केंद्र नहीं है। भारत में यूँ ही सेक्स एक ऐसा टैबू है कि कोई सामान्यतः सेक्स की बात नहीं करता। सेक्स टीनएजर्स के बीच एक कौतूहल और जोक्स के अलावा किसी गंभीर चर्चा में कोई स्थान नहीं पाता। इसलिए अगर आप अपने व्यक्तिगत जीवन में समलैंगिक हों तो कोई यूँ भी आपकी निजता में झाँकने नहीं आने वाला।

पर यह वामपंथियों के लिए एक बड़ा विषय है। क्यों? क्योंकि इसमें वामपंथी उद्देश्यों की पूर्ति का बहुत स्कोप है। पहली तो कि इसमें आइडेंटिटी पॉलिटिक्स जुड़ी है। आप आज इसे महत्वपूर्ण नहीं समझते, पर 15-20 सालों में यह एक बड़ा विषय हो जाएगा. जितने समलैंगिक होंगे, उनके लिए यह उनकी पहचान का सबसे बड़ा भाग होगा। उन्हें हर समय हर किसी को यह बताना बहुत जरूरी लगेगा कि वे गे/लेस्बियन हैं।

फिर अगला पक्ष आएगा अधिकारों का - गे/लेस्बियन के अधिकार परिभाषित किये जायेंगे, और जब वे परिभाषित कर दिए जाएंगे तो जाहिर है कि उनका हनन हो रहा होगा, जो कि वामपंथी संदर्भ में हर समाज में होता है। वामपंथी शब्दकोश में समाज की परिभाषा ही यह है, कि वह इकाई जहाँ आपके अधिकार छीने जाते हैं उसे समाज कहते हैं।

फिर #एट्रोसिटी लिटरेचर की बाढ़ आएगी। आपको जरा जरा सी बात पर होमोफोबिक करार दिया जाएगा। कोई यह थ्योरी लेकर आएगा कि हिन्दू सभ्यता में सदियों से समलैंगिकों का शोषण होता आ रहा है। राम ने बाली और रावण को इसलिए मार दिया था क्योंकि दोनों गे थे, और इसी वजह से कृष्ण ने शिशुपाल को मार दिया था।

यहाँ तक आप इसे नॉनसेंस समझ कर झेल लोगे। लेकिन तब यह समस्या बन के आपके बच्चों की तरफ बढ़ेगा, क्योंकि उन्हें रिक्रूट चाहिए। समाज के 2-3% समलैंगिक सामाजिक संघर्ष के लिए अच्छा मटेरियल नहीं हैं। बढ़िया संघर्ष के लिए इन्हें 10-15% होना चाहिए। तो ये स्कूलों में समलैंगिकता को प्रचारित करेंगे, उसे प्राकृतिक और फिर श्रेष्ठ बताएंगे। समलैंगिक खिलाड़ियों और फ़िल्म स्टार्स की कहानियाँ बच्चों तक पहुंचने लगेंगी. इसे ग्लैमराइज किया जाएगा।

मुझे कैसे पता? क्योंकि यह सब हो चुका है। यह सारा ड्रामा 1950-60 के दशक में अमेरिका में और 70-80 के दशक में इंग्लैंड और यूरोप में खेला जा चुका है। समाज में परिवार नाम की संस्था इनके निशाने पर है, इसलिए ये एक समलैंगिक परिवार की कहानी चलाने में लगे हुए हैं। समलैंगिक शादियाँ, उनके गोद लिए हुए बच्चे। परिवार के समानांतर एक संस्था खड़ी की जा रही है। साथ ही यह वर्ग नशे के लिए भी बहुत अच्छा बाजार है, डिप्रेशन का भी शिकार औसत से ज्यादा है और इस वजह से सोशल सिक्योरिटी सिस्टम यानी मुफ्तखोरी की व्यवस्था का भी अच्छा ग्राहक है।

जो चीज सबसे ज्यादा चुभेगी आपको, वह है उनका समलैंगिकता का विज्ञापन। जैसे कि धूप में आप काले हो रहे हैं । बोल कर आपको फेयरनेस क्रीम बेच दी जाती है। युवाओं और किशोरों को बताया जाएगा कि उनके जीवन में जो कुछ खालीपन है, जो कूलत्व घट रहा है उसकी भरपाई सिर्फ समलैंगिकता से हो सकती है। बहुत से टीनएजर्स सिर्फ पीअर प्रेशर में, कूल बनने के लिए समलैंगिकता के प्रयोग करते हैं। इसे यहाँ कहते हैं "एक्सप्लोरिंग योर सेक्सुअलिटी"।

हर शहर में हर साल गे-प्राइड परेड के आयोजन होंगे, जिनमें लड़के पिंक रिबन बाँध कर और लिपस्टिक लगा कर और लड़कियाँ सर मुंड़ा कर LGBT की फ्लैग लेकर दारू पीते और सड़कों पर चूमते मिलेंगे। यह विज्ञापन और रिक्रूटमेंट इस परिवर्तन का सबसे घिनौना पक्ष है। आज जो बात इससे शुरू हुई है कि अपने बेडरूम में कोई क्या करता है यह उसका निजी मामला है, तो मामला वह निजी रह क्यों नहीं जाता, उसे पूरे शहर को प्रदर्शित करने और पब्लिक का मामला बनाने की क्या मजबूरी हो जाती है? कैसे एक व्यक्ति का सेक्सुअल ओरिएंटेशन उसकी पूरी आइडेंटिटी बन जाता है?

इसकी हद सुनेंगे? कुछ दिन पहले ही एक स्कूल में एक महिला को बुलाया गया एनुअल डे में चीफ गेस्ट के रूप में। उनकी तारीफ यह थी कि वे LGBT के लिए एक चैरिटी चलाती थीं। यह चैरिटी बच्चों को समलैंगिकता को प्राकृतिक रूप से स्वीकार्य बनाने का काम करता है। उन महिला ने बच्चों को सेमलैंगिकता की महिमा बताई। फिर अपनी चैरिटी आर्गेनाईजेशन के बारे में बताया, बीच में दबी जुबान में डोनाल्ड ट्रम्प को गालियाँ भी दीं। उसने अपनी लिखी और छपवाई हुई नर्सरी बच्चों की एक तस्वीरों वाली कहानियों की किताब भी दिखाई. उसमें बतख, बंदर, हिरण की कहानियाँ थीं खास बात यह थी कि उन कहानियों में सभी पात्र समलैंगिक थे।

सोच सकते हैं आप? स्कूल समलैंगिकता का प्रचार कुछ ऐसे कर रहे हैं कि 2-3 साल के बच्चों को भी समलैंगिकता के बारे में बताया जा रहा है।

समलैंगिकता पर यह आंदोलन सिर्फ उन कुछ लोगों को निजता और यौन-प्राथमिकताओं के अधिकार का प्रश्न भर नहीं है जो नैसर्गिक रूप से समलैंगिक हैं (अगर समलैंगिकता को आप यौन-विकृति ना भी मानें...) समझें यह वामपंथ का एक और रिक्रूटमेंट काउंटर भर खुला है।"

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