1980 में कांग्रेस की शानदार वापसी संजय गांधी ने कराई थी

सांसद वरुण गांधी ने अपने पिताजी स्व श्री संजय गांधी के 76 वीं जयंती पर श्रद्धांजलि अर्पित की।

Update: 2022-12-14 10:15 GMT

इमरजेंसी का जिक्र आते ही संजय गांधी बरबस याद आ जाते हैं. देश पर इमरजेंसी थोपे जाने के वे इकलौते कारण नहीं थे लेकिन इस दौर के 21 महीनों की ज्यादतियों के वे पर्याय बन गए थे. संविधानेतर सत्ता का पहला परिचय भी देश को संजय गांधी के जरिए ही हासिल हुआ था. इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी पढ़ाई को लेकर कभी संजीदा नहीं रहे. दून स्कूल से पढ़ाई अधूरी छोड़ी. फिर दिल्ली के सेंट कोलंबाज में दाखिल हुए . आगे कॉलेज की परंपरागत पढ़ाई में उनकी दिलचस्पी नहीं थी.

इंग्लैंड के क्रुए स्थित रॉल्स रॉयस कारखाने में पांच साल की अप्रेंटिसशिप के लिए पहुंचे. फिर उसे भी बीच रास्ते तीन साल में ही छोड़ भारत वापस हो लिए. पर उनको इस सबकी जरूरत ही कहां थीं ? घर वापसी के साल भर के भीतर 22 साल के संजय गांधी देश के सामने एक लुभावना सपना लिए पेश थे. वह था छह हजार रुपए में स्वदेश निर्मित कार मुहैय्या कराने का. इस सपने को पूरा करने के लिए उनके पास सर्वशक्तिमान मां इंदिरा गांधी उपलब्ध थीं.

इंदिरा की अध्यक्षता में सम्पन्न कैबिनेट मीटिंग ने संजय की मारुति कार योजना को फौरन मंजूरी दी. सालाना 50 हजार कार निर्माण का उन्हें लाइसेंस मिला. हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री बंसीलाल ने कौड़ियों के भाव उन्हें 400 एकड़ भूमि दिलाई. इस काम में मददगार अन्य मंत्री और अफसर उन्हें खुश करने को बेताब थे. संजय जिनकी आमदनी साल 1969-70 में महज 748 रुपए थी, जल्द ही उस कार कारखाने के मुखिया हो गए , जिसमें एक करोड़ डॉलर का निवेश होना था. विवादों से घिरी इस परियोजना की संसद से सड़कों तक खूब चर्चा हुई. हालांकि ये कार कभी सड़क पर नहीं आई.

इस्तीफा कतई नहीं

12 जून 1975 को कारखाने से वापसी में संजय गांधी ने सहयोगियों से घिरी मां इंदिरा को चिंतित पाया. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उनका रायबरेली से निर्वाचन अवैध घोषित कर दिया था. अपील के लिए उनके पास बीस दिन का वक्त था. सवाल था कि वे इस्तीफा दें या नहीं? एक सुझाव था कि वे इस्तीफा दे दें और अपील के माफिक फैसले के बाद फिर से कुर्सी संभाल लें. इस्तीफे की ऐसी किसी पेशकश के संजय गांधी सख्त खिलाफ थे. न केवल उन्होंने इसके लिए अपनी मां को रोका बल्कि साथ ही रक्षात्मक मुद्रा की जगह आक्रामक प्रतिरोध की कमान भी उन्होंने संभाल ली.

इंदिरा से इस्तीफा न देने और मुकाबला करने की मांग को लेकर प्रदर्शनों और सभाओं की बाढ़ आ गई. इन कार्यक्रमों की व्यापक कवरेज का इंतजाम किया गया. रेडियो पर इन्हें कम जगह मिलने पर संजय गांधी ने तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल की सार्वजनिक फजीहत कर दी. अपमानित गुजराल की जल्द ही पद से छुट्टी हो गई. आगे उनकी जगह लेने वाले विद्या चरण शुक्ल इस हद तक गए कि उन्हें इंदिरा का "गोयबल्स" तक कहा गया.

इमरजेंसी में निकले अपने सपनों का भारत गढ़ने

25 जून 1975 को देश में आंतरिक आपातकाल लागू हो गया. सिद्धार्थ शंकर रे के साथ संजय गांधी उसके प्रमुख शिल्पियों में थे. विपक्ष और उसके समर्थक जेल में थे. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ताले थे. अदालतें पंगु थीं. समूचे देश पर भयमिश्रित खामोशी की चादर तनी हुई थी.आवाजें सिर्फ सत्ता के समर्थन में उठ सकती थीं. कल तक स्वदेशी कार के सपने को पूरा करने में लगे संजय गांधी अपने सपनों का भारत बनाने के लिए निकल पड़े थे. इन पर सवाल खड़ा करने की कोई जुर्रत नहीं कर सकता था. वे किसी पद पर नहीं थे. लेकिन समूची सत्ता उनके चरणों में थी. प्रधानमंत्री आवास से एक समानांतर पीएमओ काम करता था और वह अन्य किसी संवैधानिक संस्था अथवा पद पर भारी था.

संजय की जी हुजूरी में लगी टोली

संजय गांधी के इर्दगिर्द युवा समर्थकों की एक टोली थी, जो उनकी हां हुजूरी और बाकी सबकी छीछालेदर करती थी. इंदिरा के कैबिनेट के जिन मंत्रियों ने संजय की ताबेदारी में खुद को पेश कर दिया उनकी पौबारह थी, तो शेष पर हमेशा उनकी तिरछी नजर की तलवार लटकती रही. इसमें ऐसे भी मुख्यमंत्री थे जिन्होंने सार्वजनिक तौर पर उनकी चप्पलें उठाने में परहेज नहीं किया तो दूसरी तौर पर ऐसे भी लोग थे जिन्होंने दरबार में साष्टांग न होने की कीमत चुकाई. संजय का नौकरशाही से काम लेने का अपना अंदाज था और उन्हें किसी भी मामले में 'ना' या कोई अगर-मगर कुबूल नहीं थी. अतिक्रमण और सफाई अभियान में बुलडोजरों के इस्तेमाल का पहला श्रेय संजय गांधी के खाते में है. आबादी नियंत्रण के आंकड़ों की भरपाई के लिए जबरिया नसबंदी के नए कीर्तिमान उस दौर में बने. इसका प्रतिरोध करने वाली भीड़ पर तब गोलियां भी चलीं, जिसमे अनेक जानें गईं. अपने छोटे पुत्र के प्रति अतिशय प्रेम में इंदिरा क्या कुछ देख नहीं पा रही थीं या वे उनसे डरने लगीं थीं ?

चुनाव कराने के संजय थे खिलाफ

21 महीने लग गए इंदिरा गांधी इमरजेंसी की ज्यादतियों को समझने में. 18 जनवरी 1977 को जब उन्होंने चुनाव कराने का फैसला किया तो माना जाता है कि संजय गांधी इसके सख्त खिलाफ थे. संजय को आने वाले दुर्दिनों की आहट साफ सुनाई दे रही थी. इंदिरा उस रायबरेली से एक बार फिर मैदान में थीं , जहां के 1971 का चुनाव रद्द होने के कारण सत्ता में बने रहने के लिए उन्होंने इमरजेंसी का रास्ता चुना था. संजय ने अपने पहले संसदीय चुनाव के लिए मां की बाजू वाली अमेठी सीट चुनी, जहां वे पूरी इमरजेंसी में सक्रिय रहे थे. संजय के सलाहकारों की बलिहारी. संजय की कार पर विपक्षियों द्वारा फर्जी गोली कांड का आडंबर रचा गया. बूथ कब्जाए गए. तमाम धतकरम बाद भी संजय चुनाव हार गए. इंदिरा गांधी भी हार गईं. पूरे उत्तर भारत से कांग्रेस साफ हो गई.

…फिर संघर्ष की भूमिका में

सत्ता में रहते निरंकुश संजय जनता पार्टी शासन के दौरान बदली हुई भूमिका में थे. इस दौर में अदालतों, आयोग की हाजिरी तो सड़कों पर संघर्ष था. रास्ता जेल तक पहुंचा रहा था , लेकिन संजय ने उन जेल यात्राओं को राजनीतिक बना दिया. पीछे चलने वाली उद्दंड युवा टोलियों के तेवर अब जुझारू थे. संजय के समर्थन में तमाम नौजवान अपना सुनहरा भविष्य देख रहे थे. अंतर्विरोधों के बीच जनता पार्टी की सरकार जैसे-तैसे चली. इस पार्टी के भीतरी झगड़ों की लपटें तेज करने के लिए संजय टोली भी ईंधन जुटा रही थी. मोरारजी सरकार के पतन के लिए चरण सिंह के सामने कुर्सी का चारा इसी टोली ने फेंका था. फिर चरण सिंह की ताजपोशी और लोकसभा का एक दिन भी सामना किए बिना विदाई की पटकथा भी इसी मंडली की देन थी.

1980 में कांग्रेस की वापसी के शिल्पकार

1977 में संजय अगर इंदिरा और कांग्रेस के पराभव के प्रमुख कारण बने तो 1980 में वापसी के वे प्रमुख शिल्पकार थे. केंद्र से राज्यों तक कांग्रेस की धूम थी. कुर्सी पर इंदिरा फिर पहुंच चुकी थीं. संजय गांधी ने अमेठी की पहली हार का हिसाब बराबर कर लिया था. अब वे लोकसभा के सदस्य थे. वे मंत्री नहीं थे लेकिन केंद्र से राज्यों तक उनकी छाप और जयजयकार थी. देश ने उनका एक रूप इमरजेंसी में देखा. आगे उनकी क्या कार्यप्रणाली होती , खासतौर पर तब जबकि विपक्ष अब जेल में नहीं था और सदन से सड़कों तक संजय को उनका सामना करना पड़ता!

संजय गांधी हमेशा जल्दी में दिखते थे.

जोरदार ठंड के बीच एक सामान्य कुर्ते-पैजामे में दिखने वाले संजय बात कम और काम ज्यादा में यकीन करते थे. जमीन पर तेज गाडियां चलाने और आसमान में हवाई जहाज उड़ाने के जबरदस्त शौकीन. …और इसी शौक को पूरा करते दिल्ली फ्लाइंग क्लब का विमान 23 जून 1980 को दुर्घटनाग्रस्त हुआ. संजय के साथ इंस्ट्रक्टर कैप्टन सुभाष सक्सेना की इस हादसे में दुखद मृत्यु हो गई. 14 दिसंबर1946 को जन्मे संजय गांधी को सिर्फ 34 साल की उम्र मिली. इसमें आखिरी पांच सालों का इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले अपने नजरिए से मूल्यांकन करते रहेंगे.

सोर्स टीवी 9 

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