बेकाबू अपराध और सिर्फ 28 फीसदी मामलों में दोष सिद्ध होना मांफी: जिसका नाम उत्तर प्रदेश है
पी चिदंबरम का साप्ताहिक कॉलम (@PChidambaram_IN);
नई दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में 29 सितंबर, 2020 को एक लड़की की मौत हो गई। 22 सितंबर को मजिस्ट्रेट को दिए बयान में लड़की ने कहा था कि 14 सितंबर को उस पर हमला कर बलात्कार किया गया और इसमें उसने हाथरस जिले के अपने गांव बूलगढ़ी के चार लोगों का नाम लिया था। लड़की के मरते ही पुलिस बिना किसी देरी के उसके शव को गांव ले गई और 30 सितंबर तड़के ढाई बजे उसका अंतिम संस्कार कर डाला।
लड़की एक गरीब दलित परिवार की थी। जो चार लोग गिरफ्तार किए गए, उनके रिश्तेदारों ने पीड़ित परिवार को 'नीची कौम' करार देते हुए कहा कि 'उसे तो वे दूर से भी नहीं छूना चाहेंगे'। भारत में ऐसे हजारों बूलगढ़ी हैं। इन गांवों में कुछ ही दलित परिवार होते हैं, इन दलितों के पास थोड़ी-सी जमीन होती है या नहीं भी होती है और आमतौर पर ये अलग बस्ती में रहते हैं, कम पैसे और निचले दर्जे का काम करते हैं और दूसरे प्रभावशाली जातीय समूहों पर निर्भर रहते हैं। पीड़ित लड़की के पिता के पास दो बैल और दो बीघा जमीन है और वह पास के स्कूल में अंशकालिक तौर पर सफाई कर्मचारी का भी काम करते हैं।
महात्मा फुले, पेरियार ईवी रामास्वामी, बाबासाहेब आंबेडकर जैसे महान समाज सुधारकों से प्रेरणा और साहस हासिल करके कुछ राज्यों में दलितों ने अपने को राजनीतिक रूप से संगठित तो किया है, लेकिन उनकी स्थिति में सुधार बहुत ही मामूली हुआ है।
बेकाबू अपराध
भारत में बलात्कार व्यापक रूप से व्याप्त अपराध है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल यानी 2019 में बलात्कार की बत्तीस हजार तैंतीस वारदातें हुईं (इनमें पॉक्सो के मामले शामिल नहीं हैं), जिनमें तीन हजार पैंसठ वारदातें उत्तर प्रदेश में हुईं। दोष सिद्ध होने की दर लगभग अट्ठाईस फीसद है, कई आरोपी दोषी ठहराए गए हैं। अपराध के बाद कुछ दिनों तक शोर रहता है, लेकिन जल्दी ही यह खत्म हो जाता है। कुछ मामले 'आयोजन' का रूप ले लेते हैं। बूलगढ़ी का मामला भी ऐसा ही है और उसके कारण हैं।
सब महामारी से ग्रस्त
बूलगढ़ी का मामला एक ऐसा उदाहरण है, जहां चंदपा पुलिस थाने के एसएचओ से लेकर पुलिस अधीक्षक तक और अलीगढ़ के जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य से लेकर जिला मजिस्ट्रेट, राज्य के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (कानून और व्यवस्था) और राज्य के मुख्यमंत्री तक दंडमुक्ति के विषाणु से संक्रमित हैं। लगता है जैसे उत्तर प्रदेश में पूरे अधिकारी वर्ग को इस महामारी ने संक्रमित कर डाला। मुख्य भूमिका अदा करने वालों के शब्दों और कार्रवाइयों पर गौर फरमाएं :
– एसएचओ ने पीड़िता की हालत देखी, उसकी मां और भाई को सुना, हमले और हत्या की कोशिश का मामला दर्ज किया, और पीड़िता को अलीगढ़ के एक अस्पताल में भिजवा दिया, लेकिन मेडिकल जांच के लिए नहीं कहा। यहां तक कि उसने यह संदेह भी नहीं किया कि पीड़िता पर यौन हमला हुआ होगा।
– एसपी ने बहत्तर घंटे के भीतर मेडिकल जांच, जो कि जरूरी है, नहीं करा पाने के बारे में इन शब्दों में सफाई दी कि 'कुछ व्यवस्थागत खामियां हैं, जिनके लिए हम सबको मिल कर काम करने की जरूरत है।'
– जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य ने यह स्वीकार किया कि अस्पताल में फॉरेंसिक जांच इसलिए नहीं हो पाई क्योंकि 'पीड़िता और उसकी मां ने यौन हमले के बारे में कुछ नहीं बताया, इसलिए हमने जांच नहीं की।'
– पुलिस अधीक्षक के साथ जिलाधिकारी ने पीड़िता का अंतिम संस्कार उसके परिवार वालों की की गैरमौजूदगी में रात में कर देने का फैसला कर लिया था। पुलिस अधीक्षक ने कहा- 'मुझे बताया गया कि इस इलाके में रात में अंतिम संस्कार करना असामान्य नहीं है…।'
– जिलाधिकारी का एक वीडियो पीड़िता के परिवार से यह कहते हुए रिकार्ड हुआ है कि मीडिया तो एक-दो दिन में चला जाएगा, लेकिन 'हम ही यहां आपके साथ रहेंगे'। पीड़िता के भाई ने बताया कि जिलाधिकारी ने उनसे यह भी कहा कि अगर लड़की कोरोना से मर जाती तो क्या उन्हें मुआवजा मिलता।
– राज्य के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (कानून और व्यवस्था) ने जोर देकर कहा कि फॉरेंसिक रिपोर्ट के मुताबिक पीड़िता के साथ बलात्कार नहीं हुआ था, उसकी योनि पर वीर्य का कोई अंश नहीं मिला और जो जख्म थे, वे पुराने और ठीक हो चुके थे (उन्हें आइपीसी की धारा 375 और इस विषय पर कानून पढ़ना चाहिए)।
– उत्तर प्रदेश सरकार के अफसरों ने गांव को सील कर दिया, वहां से हाथरस जाने वाली सड़कों को धारा 144 लगा कर बंद कर दिया गया और गांव में मीडिया और राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के प्रवेश को रोक दिया गया।
– उत्तर प्रदेश सरकार ने एसआइटी की जगह मामले की जांच सीबीआइ से कराने का फैसला किया। उसी समय शैतानीभरी और प्रतिशोध की भावना दिखाते हुए उत्तर प्रदेश पुलिस ने अज्ञात लोगों के खिलाफ साजिश, जातीय विद्वेष फैलाने और राजद्रोह के मामले दर्ज कर लिए। हाल में एक पत्रकार को गिरफ्तार कर उस पर आरोप जड़ दिए गए।
अन्याय क्यों
एक ऐसे राज्य में जहां प्रशासन पूरी तरह मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के नियंत्रण में है, क्या यह संभव है कि उपर्युक्त कार्रवाइयों में से हरेक (एसएचओ के अपवाद के साथ) के बारे में मुख्यमंत्री को उसी वक्त या उसके तत्काल बाद जानकारी नहीं रही होगी? हमला 14 सितंबर को हुआ था और मुख्यमंत्री का पहला बयान तीस सितंबर को आया, जब उन्होंने एसआइटी का गठन कर दिया था। जबकि असल अफसर जमात यही अकड़ दिखाती रही कि कुछ भी अनहोनी नहीं हुई थी।
हर अन्याय के मूल में सजा से मुक्ति का भाव होता है, जो हमारी व्यवस्था में मजबूती के साथ पैठ चुका है- मेरी ताकत ही मेरी तलवार, मेरे सीने पर लगा तमगा (आइएएस, आइपीएस, डॉक्टर) ही मेरा कवच है, मेरी जाति के लोग मेरे लिए लड़ेंगे, मेरी सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी कोई खामी या मिलीभगत बर्दाश्त नहीं करेगी… आदि। जब तक अधिकारी वर्ग सरकार का आदेश मानने से इनकार नहीं करता, तब तक सरकारें दोषमुक्ति के भाव को बर्दाश्त करती रहती हैं। अब आप समझ गए होंगे कि अन्याय क्यों बना रहता है, क्योंकि माफी न्याय पर हावी है।
[इंडियन एक्सप्रेस में 'अक्रॉस दि आइल' नाम से छपने वाला, पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस नेता, पी चिदंबरम का साप्ताहिक कॉलम। जनसत्ता में यह 'दूसरी नजर' नाम से छपता है। हिन्दी अनुवाद जनसत्ता से साभार। मुख्यशीर्षक मेरा।]