इस गरमी में कहाँ और क्यूँ जा रहा हूँ ? ऐसे निपट ग्रामीण अँचल में मुझे कौन सुनने आएगा भला ? लेकिन हजारों की संख्या में श्रोता देख!

चेहरे पर ख़ुशी समेटे, कार में मुझे देखकर हाथ हिलाते, प्रणाम करते हज़ारों लोग. मन हुआ कि एक-एक से उतर कर मिलूँ, हाल-चाल पूछूँ,

Update: 2019-05-22 08:16 GMT

हिंदी के जाने माने कवि डॉ कुमार विश्वास ने अपने एक कार्यक्रम को लेकर लिखा है कि रोज कहीं न कहीं कार्यक्रम होते ही हैं पर कुछ जगह जाता हूँ तो मन का एक हिस्सा छूट सा जाता है और रिश्ते की एक डोर साथ बंध सी जाती है. उदयपुर से पचास-साठ किलोमीटर दूर एक ठेट मेवाड़ी क़स्बे झाड़ोल में कुछ पुराने कवि-सम्मेलनीय अनुजों ने ज़िद करके बुला लिया. आधे-अधूरे मन से निकला दिल्ली से, कि इस गरमी में कहाँ और क्यूँ जा रहा हूँ ? ऐसे निपट ग्रामीण अँचल में मुझे कौन सुनने आएगा भला ?




पर कल रात सौ-सौ किलोमीटर दूर से आए पंद्रह-बीस हज़ार श्रोताओं का जो रेला उस दूरस्थ क़स्बे में देखा तो मन भर आया. रात के डेढ़ बजे लगभग दो घंटे का काव्यपाठ करके जब लौट रहा था तो उस बीहड़ मेले की भीड़ के रेलें में मेरी उदयपुर लौटने की कार फँस गई. पार्किंग एरिया की तरफ़ नज़र डाली तो अजीब नजारा था. लोग जीपों में, बसों में, कारों, मोटरसाइकिलों के अलावा ट्रैक्टर-ट्रौली और पिकअप वाहनों तक में लद कर कविता सुनने आए थे. 




 जगह-जगह महिलाएँ, लड़कियाँ, बुज़ुर्ग अपने-अपने वाहनों के पास खड़े धीरे-धीरे भीड़ के प्रवाह में लौट रहे अपने सहयात्रियों की प्रतीक्षा कर रही थीं. चेहरे पर ख़ुशी समेटे, कार में मुझे देखकर हाथ हिलाते, प्रणाम करते हज़ारों लोग. मन हुआ कि एक-एक से उतर कर मिलूँ, हाल-चाल पूछूँ, हिंदी के एक अदना बेटे से प्रति उन सबके इस अपार प्यार के लिए आभार कहूँ. पर पुलिस वालों ने न उतरने दिया. सोचता हूँ कि राजनीति के करोड़ों रुपयों से बटोरी भीड़ की इस स्वत: स्फूर्त भीड़ से तुलना न करके, सर्जन के इस सत्य मार्ग को चुनने का निर्णय कराना, ईश्वर की ही तो प्रेरणा है.  क्या कहूँ ? ईश्वर समझता ही होगा मेरा अनकहा, आप सब के इस प्यार से हूँ तो आप इस अनुभव के सुख-संगी हैं .

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