जातिवाद पर विखरा समाज में सच क्या होता है ?

जातिवादी राजनीति और वैचारिक खेमों मे बंटकर हिन्दू समाज को एक करने की परिकल्पना को साकार करना संभव नही।

Update: 2022-05-07 08:06 GMT

जबतक जातिवाद के नाम पर हिन्दू जातियां एक दूसरे से लड़ने में, एक दूसरे को नीचा दिखाने में, अलग अलग जातिवादी खेमों में बंटकर कभी ब्राह्मणवाद के विरोध में तो कभी दलितों के विरोध में, कभी अलग अलग जातिवादी मोर्चा बनाकर आपस में ही लड़ते रहेंगे और अपनी जाति को अन्य से उच्च साबित करने का प्रयास करते रहेंगे, तब तक हिन्दू समाज में कोई भी सामाजिक परिवर्तन नहीं आ सकता।

सामाजिक परिवर्तन केवल संवाद से ही आ सकता है। यह एक दूसरे के जातिगत वैचारिक मतभेदों को किनारे कर एक साथ बैठकर मतभेद के मुख्य बिंदुओं को इंगित करते हुए उसके निदान के लिए सामुहिक प्रयत्न की रुपरेखा को तय करने से आयेगा। विभिन्न विश्वविद्यालयों, राजनीतिक रैलियों और जातिगत सम्मेलनों में लगने वाले नारे यथा "हम लड़कर लेंगे, ब्राह्मणवाद की क़ब्र खुदेगी, जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी, हम देखेंगे" जैसे नारे लगाने में और सुनने में कुछ पल के लिए कानों को सुख प्रदान करते होंगे।

लेकिन सच यही है कि संघर्ष और उन्माद के बदले मोहब्बत और बराबरी नहीं मिल सकती। उसके लिए सभी हिन्दू समाज की जातियों को एक दूसरे के प्रति वैमनस्यता एवं ऊंचे नीच का भाव छोड़कर समाज में व्याप्त जातिगत विभेद की समस्या को समाप्त करने के लिए सामुहिक प्रयत्न करना पड़ेगा।

जातिवाद की अवधारणा आज हमारे समाज में इतनी व्यापक हो गई है कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को किसी न किसी जाति से जोड़कर देखता है। जातिवाद पूर्ण रूप से स्व-लाभ पर केन्द्रित व्यवस्था है, इसमें में कैद प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को किसी न किसी जाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) का मान लेता है और कल्पनाओं में खोकर अपनी जाति को श्रेष्ठ मानकर दूसरे लोगों को नीची नजरों से देखता है। यह मानसिकता सामाजिक एकता और अखंडता की सबसे बड़ी दुश्मन है।

महान विचारक चंदन सिंह विराट के अनुसार "जातिवाद एक गंभीर प्रकृति की मानसिक भ्रष्टता है जो किसी व्यक्ति की सोच, महसूस करने की क्षमता या दूसरे जाति / समुदाय के प्रति उसके व्यव्हार को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है।"

डॉ रविन्द्र प्रताप सिंह (अभाविप)

भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद नई दिल्ली

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