आज ही के दिन मार डाले गए थे 42 लोग, जिसमें 31 साल बाद सज़ा हुई

वो ख़ौफनाक कहानी जो लहू जमा देती है - हाशिमपुरा नरसंहार

Update: 2024-05-22 11:23 GMT

22 मई. वो तारीख, जब 1987 के हाशिमपुरा नरसंहार की बात होती है. उस घटना में 42 मुस्लिमों को गोलियों से भून दिया गया था. मरने वालों को मुस्लिम इसलिए कहा जाएगा, क्योंकि उन्हें मुस्लिम होने की वजह से ही मारा गया था.

22 मई, 1987 की रात थी. प्रांतीय सशस्त्र बलों (पीएसी) का URU1493 नंबर का ट्रक चला जा रहा था. थ्री नॉट थ्री राइफल लिए 19 जवान दूर से ट्रक पर खड़े दिखाई दे रहे थे. जो नहीं दिख रहे थे वो थे ट्रक में सिर नीचे किए बैठे 50 मुस्लिम लड़के. सब के सब घर से अलविदा की नमाज़ अदा करने निकले थे.

इनमें से ज्यादातर घर नहीं लौटे.

इतिहास में ये तारीख हाशिमपुरा नरसंहार के नाम से जानी जाती है. वो काला धब्बा जिसने हमारे पुलिस सिस्टम का खौफनाक चेहरा दिखाया.

बिना किसी वजह, बेगुनाहों को सिर्फ उनके धर्म के आधार पर क़त्ल किया गया और तीस हज़ारी कोर्ट के सबसे लंबे ट्रायल में 2015 में सभी 19 पुलिसवाले बरी करार दिये गए.

मारे गए लोगों के परिवारों को इंसाफ मिला 31 साल बाद. 31 अक्टूबर, 2018 को. दिल्ली हाईकोर्ट ने 16 पुलिसवालों को उम्रकैद की सज़ा दी. फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने कहा,

"आर्म्ड फोर्सेज़ के लोगों ने निशाना बनाकर हत्या की. अल्पसंख्यक समुदाय के लोग कत्ल किए गए. उनके परिवार को न्याय पाने के लिए 31 साल तक इंतजार करना पड़ा."

अप्रैल 1987 में मेरठ में दंगे हुए. पीएसी बुलाई गई. मगर माहौल शांत होने पर हटा दी गई. 19 मई को दोबारा दंगे भड़के. 10 लोग मारे गए. इस बार सेना ने फ्लैग मार्च किया. सीआरपीएफ की 7 और पीएसी की 30 कंपनियां लगाई गईं. कर्फ्यू घोषित कर दिया गया. अगले दिन भीड़ ने गुलमर्ग सिनेमा हॉल को आग लगा दी. मरने वालों की गिनती 22 तक पहुंच गई और 20 मई को देखते ही गोली मारने के आदेश दे दिए गए.

वो काली ख़ौफनाक रात

# पीएसी के प्लाटून कमांडर सुरिंदर पाल सिंह 19 जवानों के साथ मेरठ के हाशिमपुरा मोहल्ला पहुंचे.

# अलविदा की नमाज़ हो चुकी थी. सेना ने पहले से करीब 644 लोगों को पकड़ रखा था. इनमें से हाशिमपुरा के 150 मुसलमान नौजवान थे.

# इन्हें पीएसी के हवाले कर दिया गया. भीड़ में से औरतों और बच्चों को अलग कर घर भेज दिया गया.

# बताया जाता है कि करीब 50 लोगों को पीएसी अपने साथ ले गई. इनमें ज़्यादातर दिहाड़ी मजदूर और बुनकर थे.

# पुलिस की पिटाई में कुछ ने दम तोड़ दिया. बाकी बचे लोग ट्रक में इस तरह से बैठे थे कि दूर से दिखाई न पड़ें.

# ट्रक मुरादनगर के गंगा ब्रिज पर पहुंचा और तीन लोगों को गोली मार कर नहर में फेंक दिया गया.

# जो बाकी बचे उन्हें अपनी नियति का अंदाज़ा लग चुका था. सबने ऊपर वाले को याद किया और हाथापाई करने की ‘आखिरी कोशिश’ की. जैसे ही भीड़ खड़ी हुई, राइफल की गोलियों ने सब को भून दिया. लाशें नहर में ठिकाने लगा दी गईं. कुल 42 लोगों को मारा गया.

कुछ नहर में बहते हुए दूर निकल गए. किसी को खून से सना बेहोश देखकर मुर्दा मान लिया गया. कोई दम साधे लाशों के नीचे भी पड़ा रहा. कुल पांच लड़के ज़िंदा बच गए.

इनमें से कमरुद्दीन को तीन गोलियां लगी थी, आंतें बाहर आ गई थीं. उसी के साथ नासिर था. आगे की कहानी उसी के शब्दों में जो उसने बाद में सुनाई.

"कुछ लोग आ गए. पूछा, 'तुम कौन हो.' हमने उन्हें ये नहीं बताया कि हमें पीएसी के जवानों ने मारा है. हमने बताया कि स्कूटर से आ रहे थे, बदमाशों ने लूटपाट की और गोली मार दी. लेकिन वे लोग समझ गए होंगे.

उन्होंने कहा, 'तुम यहीं ठहरो. बाबा को बुलवाता हूं कि वे पट्टी कर देंगे.'

पर मैं भांप गया, वह दूसरे आदमी से बोला था कि पुलिस को बुलाओ. कमरुद्दीन बोला, 'तू भग जा, मैं तो बचने का नहीं, मेरे चक्कर में तू भी मारा जाएगा.'

तब मैं वहां से भागा. वहां से भागकर पास में ही एक पेशाबघर में छुप गया. अगले दिन करीब शाम चार बजे तक उसी में रहा. वहां से निकलकर मैंने पानी पिया. मेरी दशा ऐसी थी कि लोग मुझे पागल समझकर नज़रअंदाज कर रहे होंगे.''


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