यूपी बीजेपी को जिंदा करने वाले इस नेता को अमित शाह और मोदी क्यों भूल गये?

इसका खमियाजा यह रहा है कि बाजपेयी से पहले प्रदेशाध्यक्ष का पद गया फिर विधानसभा चुनाव में बीजेपी की लहर होने के बाद भी चुनाव हार गए।

Update: 2019-10-31 11:34 GMT

भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश के पूर्व अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी का सियासी वनवास खत्म होने के संकेत अब नहीं दिख रहे हैं। पिछले साल जब अगस्त में दो दिन की बीजेपी कार्यकारिणी के दौरान इसकी पटकथा लिखी दिख रही थी। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के संग कार सवारी और महामंत्री संगठन सुनील बंसल के साथ दो दिन मंच साझा करने के साथ लंबी गुफ्तगू इस ओर इशारा कर रही है। माना जा रहा था बाजपेयी को जल्द संगठन में अहम जिम्मेदारी पार्टी दे सकती है। लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात वाला निकला।

यूपी में अध्यक्ष रहते अमित शाह के साथ बाजपेयी ने पार्टी को 71 और एनडीए को 73 रेकॉर्ड लोकसभा सीटें दिलाई थीं। तभी से बाजपेयी को इसका इनाम मिलने के कयास लगाए जाने लगे थे, लेकिन शाह के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद सुनील बंसल और बाजपेयी के रिश्तों में दूरी आ गई। इसका खमियाजा यह रहा है कि बाजपेयी से पहले प्रदेशाध्यक्ष का पद गया फिर विधानसभा चुनाव में बीजेपी की लहर होने के बाद भी चुनाव हार गए। उसके बाद कई बार शाह की टीम में शामिल होने, राज्यसभा या विधान परिषद में भेजने के साथ योगी मंत्रिमंडल में शामिल होने की चर्चा उड़ती रही, लेकिन ये सब महज चर्चा रही। हालात ऐसे हो गए कि बाजपेयी के खुद के घर के निर्माण को गिराने की तैयारी कमिश्नर ने कर दी, मगर बीजेपी साथ नहीं आई। उनको मीटिंगों में भी खास तवज्जों नहीं मिली। पार्टी में कार्यक्रमों से उनकी दूरी हो गई।

अब पिछली साल अगस्त में जब कार्यसमिति का मेरठ में होने के ऐलान के बाद एकाएक बाजपेयी पार्टी की मुख्यधारा में आ गए थे। कभी सार्वजनिक स्तर पर बात करने से बचने वाले सुनील बंसल मीटिंग की तैयारियों के जायजा के दौरान यहां बाजेपयी से कानाफूसी करते दिखे। खुद उनके घर जाकर चाय पी। लंबी मंत्रणा की। कार्यसमिति के पहले दिन भी मंच पर बाजपेयी को जगह दी गई। वह सुनील बंसल के बिल्कुल बराबर में बैठे थे। दोनों ने कई बार एक दूसरे से बात की। प्रदेश कार्यसमिति के दूसरे दिन भी बाजपेयी मंच पर सुनील बंसल के बराबर में ही बैठे। खूब नजदीकियां दिखाने की कोशिश हुई।

अब आपको पिछली साल प्रदेश कार्यसमिति के अंतिम दिन यानी रविवार को राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने एमपी-एमलए की मीटिंग के बाद अचानक वाजपेयी को बुलाया और दिल्ली जाते वक्त अपने साथ कार में बैठाकर ले गए। वाजपेयी को इस तरह से शाह के अपने साथ ले जाने से सियासी हलकों में चर्चाएं होने लगी। सभी इसको लेकर अपने-अपने कयास लगाने लगे। इस घटना से वाजपेयी खेमे में खुशी है।

हालांकि शाह संग कार पर सवारी को लेकर वाजपेयी खुलकर कुछ बोलने के लिए तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष उन्हें अपने साथ मोदीनगर तक ले गये थे। उनसे घर-परिवार के बारे में पूछा, सियासत को लेकर कोई चर्चा नहीं हुई। उन्होंने सियासी बात ही नहीं की। मैं मोदीनगर से वापस आ गया। मगर राजनीति के जानकार और बीजेपी के नेताओं का मानना है कि वाजपेयी भले ही अभी इस सियासी मुलाकात को लेकर मुंह ना खोलें लेकिन बीजेपी का सियासी माहौल गरम हो गया है।

लेकिन क्या इस जमीनी नेता की अब पार्टी को कोई आवश्यकता नहीं रह गई है। बीते दिनों जब राज्यसभा की सीटें खाली हुई तब भी उम्मीद थी कि लक्ष्मीकांत बाजपेयी अब राज्यसभा चले जायेंगे वो भी मंशा पूरी नहीं  हुई। एक स्कूटर से बीजेपी को जिंदा करने वाले नेता जो क्या यही फल मिलना था। बाजपेयी जब लोग बीजेपी से नफरत करने लगे थे तब घर घर जाकर लोंगों को समझाते थे। 

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