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क्या देश में 'गृह युद्ध' को आमंत्रित किया जा रहा है ?
हरिद्वार (उत्तराखंड) में पिछले दिनों संपन्न विवादास्पद 'धर्म संसद' में भाग लेने वाले सैकड़ो महामंडलेश्वरों, संतों, हज़ारों श्रोताओं और आयोजन को संरक्षण देने वाली राजनीतिक सत्ताओं के लिए हालिया समय थोड़ी निराशा का हो तो आश्चर्य की बात नहीं। किसी को उम्मीद नहीं रही होगी कि एक समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष प्रारम्भ कर हिंदू राष्ट्र क़ायम करने की मंशा से जिस तरह के उत्तेजनापूर्ण भाषण धर्म संसद में दिए गए उनका न तो देश के एक सौ आठ करोड़ हिंदू उत्साह के साथ स्वागत करेंगे और न ही इक्कीस करोड़ मुसलमान अचानक से डरने लगेंगे।
धर्म संसद में कही गई बातों को यहाँ दोहराने की ज़रूरत इसलिए नहीं कि धार्मिक उत्तेजना फैलाने के आरोप में वक्ताओं के विरुद्ध किसी भी कार्रवाई का होना अभी बाक़ी है ।संदेह है कि न्यायपालिका भी इस बाबत कोई संज्ञान लेना चाहेगी। इस तरह की कोई धर्म संसद अगर किसी अल्पसंख्यक समुदाय ने आयोजित की होती तो उसके आयोजकों और वक्ताओं के ख़िलाफ़ देशद्रोह के हज़ारों मुक़दमे क़ायम हो जाते।(तबलीगी जमात को लेकर मीडिया की मदद से जिस तरह का विषाक्त माहौल कोरोना की दूसरी लहर के दौरान देश भर में बनाया गया था उसका स्मरण किया जा सकता है।)हरिद्वार-आयोजन को लेकर भाजपा के एक राष्ट्रीय प्रवक्ता की एक अंग्रेज़ी समाचार पत्र को दी गई प्रतिक्रिया यही थी कि :' धर्म संसद के विषय में आप धर्म संसद वालों से ही पूछिए।'
धर्म संसदों के आयोजकों और उनके राजनीतिक संरक्षकों को इस बात पर विचार प्रारम्भ कर देना चाहिए कि उनकी मंशा के मुताबिक़ परिणाम नहीं निकले तो आगे क्या करेंगे ? एक मुक़ाम पर पहुँचने के बाद सारे कट्टरपंथी धार्मिक संगठन थक जाएँगे।अल्पसंख्यकों को लेकर हिंदुओं में असुरक्षा का भय पैदा करके सत्ता में बने रहने के प्रयोग सफल नहीं हो पाएँगे।अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ उन्हें किसी नई रणनीति पर ही काम करना पड़ेगा जिसमें यह भी शामिल करना होगा कि सांप्रदायिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किसी भी तरह के शस्त्र प्रशिक्षण अथवा परीक्षण में आम हिंदुओं की कभी कोई रुचि नहीं रही है।
इस बात में भी शक है कि बाबरी ढाँचे के हिंसक तरीक़े से हुए विध्वंस या गोधरा कांड के बाद हुए दंगों के कोई सीक़्वल ही बनाए जा सकें। इस दिशा में कोशिश हुई तो उनकी लागत बहुत ज़्यादा आएगी।राजनीतिक दलों के बीच चलने वाले सत्ता प्राप्ति के षड्यंत्रों ने हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों को ही काफ़ी समझदार बना दिया है। इस समझदारी में हिंदुओं को हुए इस ज्ञान की प्राप्ति भी शामिल है कि इक्कीस करोड़ मुसलमानों को न तो अरब सागर या बंगाल की खाड़ी में धकेला जा सकता है, न उन्हें देश निकाला दिया जा सकता है और न ही बताए जा रहे हिंसक उपायों के ज़रिए ख़त्म किया जा सकता है। धार्मिक कट्टरपंथियों के लिए चिंता का विषय यह होना चाहिए कि अल्पसंख्यक समुदाय अपनी मौजूदा ख़राब आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों को लेकर समाज के दूसरे वर्गों की तरह सरकारों से कोई शिकायतें क्यों नहीं करता और क्यों सत्ता और संसाधनों में अपनी आबादी के मान से भागीदारी की माँग नहीं करता है ! अल्पसंख्यकों ने हरेक परिस्थिति में इस तरह जीना सीख लिया है कि उनके पास खोने के लिए अब कुछ खास बचा ही नहीं है।
कांग्रेस के प्रति मुसलमानों के मोहभंग का एक बड़ा कारण डॉ. मनमोहन सिंह के इस कथन का झूठा साबित होना भी रहा कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का है।(हरिद्वार की धर्म संसद के एक भाषण में मनमोहन सिंह पर गोली चलाने का कथित मंतव्य पूर्व प्रधानमंत्री के इसी कथन के परिप्रेक्ष्य में व्यक्त किया गया था।)कांग्रेस अपने ऊपर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के आरोप भी झेलती रही और उसने इस समुदाय की बेहतरी के लिए कभी कुछ किया भी नहीं। अल्पसंख्यकों की जैसी सामाजिक-आर्थिक स्थिति आज है वैसी ही कांग्रेस की हुकूमतों के दौरान भी रही। कांग्रेस के शासनकालों की तुलना में अल्पसंख्यक सम्भवतः अटल जी के नेतृत्व वाली एन डी ए की सरकार में अपने को ज़्यादा सम्पन्न और सम्मानित महसूस करते थे।
कहा तो यह भी जाता है कि अटलजी की शानदार छवि और काम के बावजूद 2004 के लोक सभा चुनावों में कांग्रेस के पक्ष में सत्ता परिवर्तन का कारण एन डी ए के शासनकाल के प्रति मुसलमानों की नाराज़गी नहीं बल्कि भाजपा और संघ के अंदरूनी क्षेत्रों में अटलजी के कथित अल्पसंख्यक उदारवाद के ख़िलाफ़ विद्रोह था। पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव नतीजे उदाहरण हैं कि वहाँ के मुसलमानों ने कांग्रेस की नक़ली धर्मनिरपेक्षता का साथ देने के बजाय खुले आम चण्डीपाठ करने वाली ममता की पार्टी के लिए वोट करना अपने लिए ज़्यादा हितकर समझा।पश्चिम बंगाल के सभी हिंदू भी भाजपा के पक्ष में नहीं खड़े हुए। कोलकाता और चंडीगढ़ में हाल में हुए स्थानीय निकायों के चुनावों में भी ममता और केजरीवाल के नरम हिंदूवाद ने भाजपा के कट्टर हिंदुत्व को पीछे धकेल दिया।
धर्म संसद जैसे आयोजनों से उठने वाली आवाज़ें मोदी के नेतृत्व वाले भारत की छवि को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तो क्षति पहुँचा ही रही है, देश के भीतर भी भाजपा की ताक़त को कमजोर कर रही है। योगी के कट्टर हिंदुत्व वाले उत्तर प्रदेश में भाजपा की संघर्षपूर्ण स्थिति इसका उदाहरण है।'हिंदुत्व' की हिंसा के ज़रिए अल्पसंख्यकों पर विजय पाने या उन्हें समाप्त कर देने की कोई भी रणनीति इसलिए सफल नहीं हो सकती कि अब तो कांग्रेस समेत सारी ही पार्टियाँ हिंदुत्व की शरण में पहुँच गईं हैं।
भाजपा अगर धर्म संसद जैसे अतिवादी आयोजनों पर अंकुश नहीं लगाएगी तो उससे मुसलमानों का तो कम नुक़सान होगा, उसके अपने प्रतिबद्ध हिंदू वोट बैंक में ममता, उद्धव, अखिलेश ,केजरीवाल आदि के साथ-साथ अब प्रियंका और राहुल भी बड़ी सेंध लगा देंगे।कहना कठिन है कि सत्ता के इस पड़ाव पर पहुँचकर मोदी अपनी स्थापित छवि में कोई उदारवादी संशोधन/परिवर्तन करना चाहेंगे और यह भी कि क्या संघ का एजेंडा उन्हें ऐसे किसी नए अवतार में प्रकट होने की छूट देगा? हरिद्वार की धर्म संसद के आयोजकों को अगर अपने परिश्रम के 'अपेक्षित' परिणाम प्राप्त नहीं होते हैं तो क्या नागरिकों को आने वाले दिनों में कुछ नए प्रयोगों की भी डरते-डरते प्रतीक्षा करना चाहिए? प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह के एक साक्षात्कार में इस कथन पर चिंता के साथ गौर किया जा सकता है कि :'ये लोग (धर्म संसद के वक्ता) नहीं जानते कि वे क्या कह और कर रहे हैं ! ये लोग देश में खुले तौर पर गृह युद्ध को आमंत्रित कर रहे हैं !'