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नफ़रतों के हमको , फिर मंज़र नज़र आने लगे... - मुजाहिद चौधरी

Desk Editor
19 July 2021 2:34 AM GMT
नफ़रतों के हमको ,        फिर मंज़र नज़र आने लगे...                       - मुजाहिद चौधरी
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नफ़रतों के हमको फिर मंज़र नज़र आने लगे ।

रंजो गम के फिर नए मौसम नज़र आने लगे ।।

दाग़ दामन के छुपाकर सामने वो आ गए ।

कल के रहज़न अब हमें रहबर नज़र आने लगे ।।

का़तिलों और जा़लिमों की सफ़ में था जिनका शुमार ।

इस नए मौसम में वो रहबर नज़र आने लगे ।।

फिर से लहजे में मोहब्बत की कमी होने लगी ।

फिर से रंजो ग़म के वो मौसम नज़र आने लगे ।।

हर कोई अपनी ही धुन में मस्त है अब दोस्तों ।‌

अब तो दिन में ही हमें मैकश नज़र आने लगे ।।

महफिलें सजने लगीं शामो सहर हर गांव में ।

अब गरीबी मिटने के अवसर नज़र आने लगे ।।

सांप सारे बंद थे अपने बिलों में खौ़फ़ से ।

बीन की आवाज़ पर बाहर नज़र आने लगे ।।

दोस्तों को जो समझते थे फ़क़त़ अपना जहां ।

उनको अपने दोस्त अब दुश्मन नज़र आने लगे ।।

अब मुजाहिद तंग दिल दुनिया से ही उकता गया ।

ख़ून के रिश्ते उसे रसमी नज़र आने लगे ।।*

- मुजाहिद चौधरी, एडवोकेट

स्तंभ लेखक, विश्लेषक, कवि

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