संपादकीय

International Women's Day : हौसलों की उड़ान से हक के इंकलाब तक

Shiv Kumar Mishra
8 March 2022 9:48 AM GMT
International Womens Day : हौसलों की उड़ान से हक के इंकलाब तक
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अरविंद जयतिलक

आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है। दुनिया की सभी महिलाओं को आसमान भर बधाई और मंगल शुभकामनाएं। सिर्फ इसलिए नहीं कि आज उनका दिन है। इसलिए भी नहीं कि वे सृष्टि की निरंतरता की अनवरत व आधारभूत परमतत्व हैं। इसलिए भी नहीं कि उनके आंचल में दूध और आंखों में पानी है। इसलिए भी नहीं कि वे हौसलों की उड़ान से जहान भर की बुलंदियों से खेल रही हैं। हां, उन्हें बधाई और मंगल शुभकामनाएं इसलिए है कि वे सदियों से गढ़ी-बुनी वर्जनाओं की खोल को धूल-धुसरित एक नए मूल्य और प्रतिमान को गढ़ रही हैं। उन्हें बधाई इसलिए है कि योनि के कठघरे की परिधि से निकल अपने हक-हकूक की प्रस्तावना का इंकलाब कर रही हैं।

उन्हें बधाई इसलिए है कि हजारों साल से गढ़े-बुने गए समाज के एकध्रुवीय स्वरुप, चरित्र एवं चिंतन की दायरे का विस्तार कर रही हैं। उन्हें बधाई इसएिल कि वे स्वयं के मापने व परखने के पूर्वाग्रही सांचे व सोच को चकनाचूर कर पुरुषवादी कवच का विन्यास कर रही हैं। उन्हें बधाई इसलिए कि वे असमानता और अन्याय के खिलाफ तनकर खड़ा होने के नवाचारों का बीज रोप रही हैं। उन्हें बधाई इसलिए कि वे स्वयं के इतिहासपरक मूल्यांकन को रद्द कर नई व्याख्या को आयाम दे रही हैं। उन्हें बधाई इसलिए भी कि उनकी नई सोच और जीवन-मूल्य को अब समाज आत्मसात कर रहा है। बदलाव के गुणसूत्र को मान्यता दे रहा है। बदलाव की इस सहज प्रतिध्वनि से असमानता की लौह-बेड़ियां स्वतः पिघल रही हैं। नतीजा सामने हैं। कल तक हम लैंगिक असमानता, हिस्सेदारी व भागीदारी को लेकर चिंतित थे। लेकिन आज बदलाव को चक्र घुमता साफ दिख रहा है। लैंगिक असमानता में तेजी से कमी आने लगी है। अभी गत वर्ष पहले ही राष्ट्रीय परिवार सर्वेक्षण के आंकड़ों से खुलासा हुआ कि महिला स्वास्थ्य और शिक्षा में सुधार हुआ है। महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा की वारदातों में कमी आयी है।

वैवाहिक हिंसा पिछले एक दशक में 37.2 फीसदी से घटकर 28.8 फीसदी रह गयी है। सर्वोच्च अदालत ने बेटियों को राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (एनडीए) की प्रवेश परीक्षा में शामिल होने की मंजूरी दे दी है। सरकार भी तैयार है। लेकिन मौंजू सवाल यह है कि क्या समानता के मीनार पर आधी-आबादी विराजमान हो गयी है? बिल्कुल नहीं। देखा जाए तो अभी भी राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों, व्यवसायिक पाठ्यक्रमों में आधी-आबादी की मौजूदगी कम है। अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वे (एआईएसएचई) की रिपोर्ट से उद्घाटित हो चुका है कि राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों और व्यवसायिक पाठ्यक्रमों में बेटियों का नामांकन शैक्षणिक पाठ्क्रमों की तुलना में कम है। शिक्षा मंत्रालय द्वारा जारी सर्वे रिपोर्ट 2019-20 के मुताबिक छात्राओं की मौजूदगी राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों में सबसे कम 24.7 फीसद, सरकारी डीम्ड विश्वविद्यालयों में 33.4 फीसद और राज्य एवं निजी विश्वविद्यालयों में 34.7 फीसद है। वहीं राज्य विधान अधिनियम के तहत आने वाले संस्थानों में छात्राओं की भागीदारी 61.2 फीसद, राज्य की सरकारी विश्वविद्यालयों में 50.1 फीसद और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 48.1 फीसद रही है। गौर करें तो यह आंकड़ा छात्रों के मुकाबले कम है जो एक किस्म से लैंगिक भेदभाव की दीवार को मजबूत करता है। आर्थिक उपक्रमों में भागीदारी की बात करें तो देश के सिर्फ 13.8 प्रतिशत कंपनी बोर्ड में महिला प्रतिनिधित्व है। इसी तरह केवल 14 प्रतिशत महिलाएं नेतृत्वकर्ता की भूमिका में हैं। श्रम के क्षेत्र में नजर दौड़ाएं तो यहां भी पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का प्रतिनिधित्व दयनीय है। प्रशासनिक नौकरियों में महिलाओं की भागीदारी के आंकड़े बताते हैं कि आईएएस में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 20 फीसद से कम है जबकि बैंकों में 22 प्रतिशत के आसपास है। नौकरियों के मामले में विश्व बैंक अपनी रिपोर्ट में पहले ही कह चुका है कि दुनिया भर के कई देशों में महिलाओं की आर्थिक उन्नति में कानूनी बाधाएं हैं। इस कारण महिलाओं को नौकरियां छोड़नी पड़ती है और अपने खर्च को सीमित करना पड़ता है। अच्छी बात है कि भारत में इस तरह का भेदभावकारी कानून नहीं है। लेकिन सच यह भी है कि भारतीय समाज पूरी तरह से दकियानूसी विचारों से उबरा भी नहीं है। महिलाओं को आज भी नौकरी के मामले में अपने परिवारिजनों से इजाजत लेनी पड़ती है।

फिलहाल सरकार और स्वयंसेवी संगठनों के प्रयास से देश में महिला सशक्तिकरण को लेकर जागरुकता बढ़ी है और जीवन के कई क्षेत्रों में महिलाएं परचम लहरा रही हैं। गौर करें तो इसका श्रेय भारतीय संविधान और सर्वोच्च अदालत को जाता है जहां भारतीय संविधान स्त्री-पुरुष दोनों को समान अधिकार प्रदान करता है। सर्वोच्च अदालत संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करता है। भारतीय संविधान में शिक्षा, सेवा, राजनीति इत्यादि सभी क्षेत्रों में पुरुषों व महिलाओं को बराबर के अधिकार दिए हैं। भारतीय संविधान में लैंगिक असमानता को मिटाने यानी समानता को बल प्रदान करने के लिए कई प्रावधान किए गए हैं। संविधान में स्पष्ट कहा गया है कि धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर महिलाओं से भेदभाव नहीं किया जा सकता। दो राय नहीं कि इन संवैधानिक प्रावधानों और गत वर्षों में हुए सरकारी प्रयासों के परिणामस्वरुप भारत में लैंगिक विभेद में कमी आयी है। उसके सकारात्मक परिणाम सामने आ रहे हैं। उदाहरण के तौर पर देश के विभिन्न राज्यो की पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण प्रदान किया गया है। इस पहल से पंचायतों में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बढ़ी है।

हाल ही में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में संपन्न हुए पंचायत चुनाव में पुरुषों से ज्यादा महिलाएं पंच परमेश्वर चुनी गयी हैं। 53.7 फीसदी पंचायतों में सत्ता अब महिलाओं के हाथों में है। राज्य में ग्राम प्रधान के 58,176 पदों पर चुनाव हुए जिसमें 31,212 पदों पर महिलाओं ने जीत हासिल की। कुछ ऐसा ही आंकड़ा देश के अन्य राज्यों में भी है जहां महिलाओं की भागीदारी और प्रतिनिधित्व बढ़ रहा है। लेकिन यहां ध्यान रखना होगा कि संख्या के लिहाज से भले ही यह आंकड़ा प्रतिनिधित्व को मजबूती देता हो पर एक सच यह भी है कि नेतृत्व की बागडोर अभी भी पुरुष अभिभावकों के ही हाथों में ही है। बात चाहे गांव, ब्लाॅक या तहसील की हो अथवा जिला स्तर की सभी आवश्यक स्थानों पर निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के पति या अभिभावक ही उनके दायित्वों का निर्वहन करते देखे जा रहे हैं। यह स्थिति ठीक नहीं है। इससे निर्वाचित महिला सरपंचों की भूमिका महज एक रबर स्टैंप बनकर रह गयी है। यह हस्तक्षेप पंचायतों में महिलाओं की भूमिका को सीमित करने के साथ ही पंचायती राज के पावन उद्देश्यों को नष्ट करता है। एक अरसे से संसद में महिला आरक्षण को लेकर बहस जारी है। लेकिन विडंबना है कि अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सका है। नतीजा संसद और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी कम है।

लोकसभा में कुल महिला सदस्यों की संख्या तकरीबन 79 है जो कुल सदस्यों के 15 फीसदी के आसपास है। इसी तरह राज्यसभा में महिलाओं की संख्या तकरीबन 25 है यानी 10 फीसदी है। अच्छी बात यह है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में हुए विस्तार के बाद अब मंत्रिमंडल में कुल महिला मंत्रियों की संख्या तकरीबन एक दर्जन तक पहुंच गयी है। लेकिन विचार करें तो यह अभी भी पुरुषों के मुकाबले कम है। गत वर्ष प्रकाशित डब्ल्यूईएफ (वल्र्ड इकनाॅमिक फोरम) ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2020 के अनुसार भारत राजनीतिक सशक्तिकरण के मामले में 18 वें स्थान पर है। आर्थिक भागीदारी और अवसर में 149 वें, शिक्षा प्राप्ति में 112 वें, स्वास्थ्य और उत्तरजीविता में 150 वें तथा समग्र सूचकांक में 108 वें स्थान पर है।

मंत्रालयिक पदों पर 30 फीसदी महिलाओं के साथ भारत की रैंकिंग 69 वीं है और संसद में महिलाओं के मामले में 17 फीसदी के साथ 122 वीं है। भारत के 28 राज्यों में से वर्तमान में केवल पश्चिम बंगाल में एक महिला मुख्यमंत्री हैं। देश का एक भी राज्य ऐसा नहीं है जहां महिला मंत्रियों की संख्या एक तिहाई हो। 65 फीसदी राज्यों के मंत्रिमंडल में 10 फीसदी से कम महिला प्रतिनिधित्व है। यह स्थिति चिंतित करने के अलावा लोकतांत्रिक भारत में आधी आबादी के साथ लैंगिक भेदभाव को उजागर करने वाला है। उचित होगा कि आधी-आबादी स्वयं इन चुनौतियों से पार पाने के लिए हौसलों की उड़ान को इंकलाबी तेवर दें।

Shiv Kumar Mishra

Shiv Kumar Mishra

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