संपादकीय

अशोक के सिंहों में उलझ गया सत्ता और विपक्ष, जबकि अन्य गौड़ मुद्दों पर खामोशी!

Shiv Kumar Mishra
13 July 2022 11:46 AM GMT
अशोक के सिंहों में उलझ गया सत्ता और विपक्ष, जबकि अन्य गौड़ मुद्दों पर खामोशी!
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शकील अख्तर

किसी भी देश का राष्ट्रीय चिन्ह ( Emblem) उसके मूल चरित्र का परिचायक होता है। भारत एक सदियों पुराना देश। शांत, गंभीर। अशोक के सारनाथ के सिंह इसलिए भारत के उद्दात चरित्र के सही प्रतिनिधि थे। मगर सोमवार को जब सबने नया चिन्ह देखा तो आश्चर्य में पड़ गए। एक झटका सा लगा।

सिंह तो शांत प्रवृति का जीव है। बचपन से सबने पढ़ा है। और फिर आज तो वाइल्ड लाइफ पर इतने चैनल और प्रोग्राम आ रहे हैं कि न पढ़ने वाले केवल देखने वाले भी जानते हैं कि जंगल का राजा सिंह को इसलिए कहा गया है कि वह क्रोधित मुद्रा में नहीं शांत गरिमामयी मुद्रा में रहता है। हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी तो वाइल्ड लाइफ की किसी शुटिंग में थे भी उनके फोटो देखे हैं उन्हें मालूम होगा कि वन्य पशु मनुष्य की तरह दूसरों को मारते, डराते, शक्ति प्रदर्शन करते नहीं रहते। अपने दायरे में, जो सिंह का भी होता है संतोष के साथ रहते हैं।

पता नहीं इन मामलों में सरकार को कौन सलाह देता है मगर जो भी हो उसका एस्थेटिक सेंस (Aesthetic sense ), सौन्दर्य बोध कलात्मक नहीं है। खूबसूरती, आंखों की, दिल की भावनाओं की चीज है। नए राष्ट्रीय चिन्ह में मुंह फाड़े सिंह, सिंह नहीं रह गए वे भेडिए जैसे कुटिल, डरावने नजर आ रहे हैं। उद्वीग्न!

कला अंदर से निकलती है। उसमें प्रेम, करुणा, शांत भाव आवश्यक तत्व हैं। विशालकायता नहीं। अभी नए संसद भवन पर जो राष्ट्रीय चिन्ह स्थापित किया है उसकी उंचाई, वजन, भीमकायता बताई जा रही है। कितने लोह पाशों से उसे साधा गया है यह बताया जा रहा है। मीडिया तो बैंड है जैसा आदेश होगा बजाने लगेगा। कभी कभी तो लगता है बैंड बाजे से भी उसकी तुलना बैंड वालों को अपमान है। बैंड से आप श्मशान में "ले जाएंगे, ले जाएंगे दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे" बजाने को कहो तो वह नहीं बजाएगा। मगर इस टीवी से कहा जाए तो यह श्मशान में "ओ लड़की आंख मारे" भी कहने लगेगा। दिन को रात, आदमी को औरत, फूल को कांटा कुछ भी कहलवा सकते हैं। अभी इसने कहा ही था कि 1971 बांग्ला देश बनाने में इन्दिरा गांधी का कोई योगदान नहीं था वह तो सेना का काम था। इसी तरह लगभग उसी समय यह भी कहा था कि चीन के भारतीय सीमा में घुसने में केन्द्र सरकार का कोई दोष नहीं है यह तो भारतीय सेना की गलती है। तो वह ठीक एक ही जैसे दो मामलों में अलग अलग फैसले सुना सकता है। और फिर आज मीडिया को क्या दोष देना जब सारे इंस्टिट्यूशन ही शरणागत हुए पड़े हैं। सब यही कह रहे हैं कि जैसे चाहो हमारा उपयोग करो बस अभय दान देते रहो।

खैर तो यह स्थापत्य कला पहली बार नहीं दिखाई है। इससे पहले गुजरात में बनाई सरदार पटेल की प्रतिमा में भी कलात्मक्ता के बदले विशालकायता को ही प्रमुखता दी गई है। लेकिन ऐसा नहीं है कि इसी सरकार में यह हो रहा हो। पतन ( बौद्धिक) तो कहीं भी किसी का भी हो सकता है। कांग्रेस की सरकार ने राजीव गांधी की संसद भवन ऐनेक्सी के बाहर लगाई प्रतिमा ऐसे ही खराब डिजाइन, और केवल पोज देने वाली बनवाकर राजीव की सुन्दर छवि के साथ न्याय नहीं किया। राजीव एक अति सुंदर ( हेंडसम) सुकुमार युवा थे। जब वे प्रधानमंत्री बने तो जो कोई भारतीय, विदेशी पत्रकार उनसे इंटरव्यू लेने जाते थे तो सबसे पहले तो वे उनके सौन्दर्य, शिष्टता पर ही लिखते थे।

तो उनकी प्रतिमा में उनका एक खास अंदाज जनता पर मालाएं फेंकने का दर्शाया गया है। लेकिन यह नहीं देखा कि मूर्ति कला में वह हवा में जाने को तैयार माला, फेंकता हुआ हाथ, उपर गर्दन सुंदर स्वरुप में जा पाएगी या नहीं। अगर बनाने वाले को उससे पहले कुछ बड़े खिलाड़ियों की खेलते हुए मगर लिमिडेट एक्शन में मूर्तियां दिखाई जातीं तो शायद राजीव की वह प्रतिमा थोड़ी बेहतर हो जाती मगर इसमें तो बहुत ज्यादा ही एक्शन दिखाकर सौन्दर्यता को खत्म कर दिया गया।

आधुनिक भारत में सबसे सुंदर और व्यक्तित्व को दर्शाती प्रतिमा नेहरु की है। उनकी चिर परिचित मुद्रा। पीछे हाथ बांधकर विचारमग्न टहलते हुए। नेहरू का पूरा पांडित्य, सुदर्शन व्यक्तित्व, स्निग्ध भाव भंगिमा उनकी इस मुर्ति में परिलक्षित होता है।

मूर्ति व्यकित्व को उकेरने की कला है। उसे नया रंग देने खासतौर से जिसे कला और साहित्य में निषेध किया गया है क्रूर, वीभत्स बनाने की नहीं। राष्ट्र कवि मैथली शरण गुप्त ने राम लक्ष्मण के चरित्र को धीर, वीर, गंभीर कहा था। वही भाव अशोक स्तंभ के सिंहों में है। राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह पूरी दुनिया में जाता है। देश की पहचान होता है। पासपोर्ट के कवर पर बना होता है। किसी भी देश में जाने पर सबसे पहले आपका पासपोर्ट देखा जाता है और पहली निगाह गर्विले मगर शांत भाव और गांभीर्य लिए सिंह पर पड़ती है। जो सामने वाले के चेहरे पर एक आश्वस्ति का भाव पैदा करती है। कोई नकारात्मक नहीं।

विश्वास है इसे विदेश विभाग के काबिल अधिकारी समझते हैं। वे अधिकारी जिन्होंने कोई भी सरकार आई हो भारत की विदेशों में हमेशा एक गरिमामयी, बड़े राष्ट्र की छवि बनाई है। पता नहीं कैसे कह दिया कि 2014 से पहले भारत में जन्म लेना शर्मिन्दगी की बात होती थी। 2014 से पहले विदेशों में तैनात भारत के विदेश सेवा के अधिकारियों ने इस किस तरह लिया? क्या उनके 2014 से पहले के अनुभव थे कभी कोई लिखेगा। हम यह नहीं कहते विदेश का मामला है कि 2014 के बाद का अनुभव कैसा रहा? हमारा मानना है और सभी भारत को प्रेम करने वालों, देश को लेकर गौरवान्वित होने वालों का मानना है कि देश बड़ी चीज है। निरंतरता में चलती है। सरकारों के आने जाने से देश के के मूल चरित्र में कोई फर्क नहीं पड़ता है। सरकारों से ज्यादा स्थाई तो ब्युरोक्रेसी, कार्यपालिका है। वे बेहतर जानते हैं कि दुनिया में भारत का नाम किन से है। सम्राट अशोक का युद्ध से मोह भंग, मानव के प्रति करुणा का भाव उदय होने और उसके प्रतीक उनके सारानाथ के शांत गरिमामयी सिंहों से है या क्रुद्ध सिंहों से जो सिर्फ गलत परिस्थितियों में ही आक्रामक मुद्रा दिखाते हैं। भय में, भूख में, वन में गलत पारिस्थितिकी पैदा करने की कोशिशों से। इसी तरह गांधी एक नाम हैं दुनिया में। हमारे यहां भारत में इस समय सबसे ज्यादा गालियां उन्हें दी जाती हैं। गाली देने वालों का सम्मान होता। प्रधानमंत्री सिर्फ इतना कहकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं कि मैं उन्हें कभी दिल से माफ नहीं कर पाऊंगा। मगर इससे क्या कोई संदेश जाता है? अपमान तो और बढ़ता ही जा रहा है। मगर इससे क्या दुनिया में गांधी का कद कम हो गया? प्रधानमंत्री जहां भी जाते हैं वहां के राष्ट्राध्यक्ष उन्हें गांधी को याद करते मिलते हैं।

इतिहास बनाने वाली महान हस्तियों को ऐसे नहीं मिटाया जा सकता। हां उनसे बड़ी लकीर खींचकर उनसे ज्यादा प्रकाशमान हुआ जा सकता है। मगर उसके लिए सत्य, करुणा, प्रेम, भाईचारा और भेदभाव रहित विशाल ह्रदयता की जरूरत होती है। देश में और महान व्यक्ति निकलें यह कौन नहीं चाहता। भारत की भूमि है ही इतनी उर्वर जिसे कहते हैं वीर प्रसुता तो और शख्सियतें उभर कर सामने आना चाहिए। धीर, वीर, गंभीर। वीरता किसमें चलती हुई हवा को थपकी देने में नहीं। हवा के विपरीत सच और और देश हित में कहने में साहस की वीरता।

आज भक्त लोग खुश हो सकते हैं। क्योंकि उनकी कोई जवाबदेही ( आन्सरेबल) नहीं है। मगर देश में अशांति, एक दूसरे के प्रति अविश्वास, असुरक्षा का माहौल जिस तरह बना है उससे क्या उन लोगों को कोई बैचेनी, चिंता नहीं है जिनसे इतिहास जवाब मांगेगा? हम नहीं मानते देश के नेता हैं। हो सकता है संगठन की विचारधारा शांति की अपील करने से रोकती हो। मगर इसी संगठन से वाजपेयी भी आए थे। और इसी कुर्सी से जहां आज मोदी जी हैं राष्ट्रधर्म को सबसे उपर रखकर उसे अपनाने की बात कही थी।

वाजपेयी इसीलिए याद आए। इतिहास में जा चुका कोई भी व्यक्ति सिर्फ अच्छे कारणों से ही याद आएगा। आडवानी ने आज चाहे जितने दुःख भी भोग लिए हों मगर वे फिर भी कभी अच्छे कारणों के लिए याद नहीं आएंगे। देश को अच्छे कारण मिलेंगे नहीं। केवल विभाजनकारी बातें मिलेंगी। देश सकारात्मकता से ही चल सकता है। वोट कुछ समय के लिए मिल सकते हैं। मगर इतिहास नहीं। जो नेहरू को मिला, गांधी को और सैंकड़ों साल पहले हुए अशोक महान को। इतिहास का पहला ग्रेट "अशोक दे ग्रेट" ही कहा गया। उन्हीं के स्तंभ के ये सिंह है। इतिहास में अजर अमर। उन्हें बदला नहीं जा सकता।

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