संपादकीय

Samajwadi Party News : क्या समाजवादी पार्टी सहयोगी दलों को उचित सम्मान दे रही है?

Shiv Kumar Mishra
10 Jun 2022 5:00 AM GMT
Samajwadi Party News : क्या समाजवादी पार्टी सहयोगी दलों को उचित सम्मान दे रही है?
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Samajwadi Party giving due respect to allies

Samajwadi Party

निखिल सिंह "अरविन्दु"

उत्तर प्रदेश में विधान परिषद चुनाव होने को है सपा ने सहयोगी दलों को मौका न देकर एक बार खुद पर यह सवालिया निशान लगा दिया है कि क्या समाजवादी पार्टी अपने सहयोगी दलों को उचित सम्मान नहीं दे रही है? जैसा कि राज्यसभा चुनाव के दौरान देखने को मिला। पहले तो सपा केवल अपनी ही पार्टी को उच्च सदन में भेजना चाहती थी लेकिन जैसे ही मीडिया के गलियार में यह बात हवा होने लगी कि सपा अपने सहयोगी दलों को किनारे करने में लगी है। तब सपा ने स्थिति को भांपते हुए सहयोगी रालोद के मुखिया जयंत चौधरी के साथ-साथ जावेद अली और सपा समर्थित निर्दलीय कपिल सिब्बल के नाम पर मुहर लगाया। हालांकि पहले जयंत चौधरी की जगह डिंपल यादव के नाम पर चर्चा हो रही थी, लेकिन 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव को देखते हुए रालोद को निराश नहीं करना चाहते थे। जिससे पश्चिमी यूपी में सपा के वोट बैंक में कोई सेंधमारी ना हो पाए।

अब विधान परिषद चुनाव के दौरान में सहयोगी दलों की नाराजगी सामने आने लगी है। जैसा कि सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के मुखिया ओमप्रकाश राजभर की अपने बेटे को विधायक बनाने की छटपटाहट सामने आई है। सपा द्वारा एमएलसी प्रत्याशियों स्वामी प्रसाद मौर्या, जसमीर अंसारी, करहल से पूर्व विधायक सोबरन यादव के बेटे मुकुल यादव और आजम खान के करीबी शाहनवाज खान को की घोषणा के बाद ओमप्रकाश राजभर काफी नाराज चल रहे है। उन्होंने अपनी निराशा जाहिर करते हुए कहा कि "यदि 38 सीट लेकर 8 सीट जीतकर वो राज्यसभा जाने के योग्य होते है, तो हम 16 सीट लेकर 6 सीट जीतने वालो की इतनी उपेक्षा क्यों।"

ओमप्रकाश राजभर के पुत्र अरविंद राजभर विधान परिषद उम्मीदवारों के फैसले के बाद उन्होंने ट्विटर के जरिए सपा पर निशाना साधते हुए कहा कि "झूठी तसल्ली के सिवा कुछ ना दे सका, वह किस्मत का देवता भी शायद गरीब था।" अरविंद राजभर जिन्होंने विधानसभा चुनाव में भाजपा के अनिल राजभर को कड़ी टक्कर दी थी बावजूद इसके उन्हे हार का सामना करना पड़ा। तभी से कयास लगाए जा रहे थे कि इस मेहनत का फल उन्हें एमएलसी बनाकर दिया जाएगा। लेकिन अब स्थिति सामने आ ही चुकी है।

वहीं दूसरी तरफ सपा के सहयोगी दल महान दल के अध्यक्ष केशव देव मौर्य ने अखिलेश यादव पर उपेक्षा का आरोप लगाते हुए सपा गठबंधन से नाता तोड़ लिया है। जिससे सवाल उठता है क्या वास्तव में सपा सहयोगी दलों का सम्मान नहीं कर रही है? शिवपाल यादव को अपनी ही पार्टी के चिन्ह पर चुनाव लड़वाकर अब सपा शिवपाल यादव को सपा का विधायक नहीं मानती है। वहीं केशव प्रसाद मौर्य को धूल चटाने वाली पल्लवी पटेल को भी सपा का विधायक नहीं माना जाता है जबकि पल्ली पटेल ने भी शिवपाल यादव की तरह सपा के चिन्ह पर चुनाव लडा था। यह एक तरह से विश्वासघात जैसा लगता है। भरोसे में लेकर पार्टी के चिन्ह पर चुनाव लड़वाकर अब पार्टी का विधायक मानने से इनकार किया जा रहा है। पल्लवी पटेल यदि चुनाव के दौरान अपने फैसले पर अडिग रहती तो शायद आज यह स्थिति सामने नही आती। एक बारगी पल्लवी पटेल ने सपा के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लडने से इनकार कर दिया था। कहते है कि "राजनीति की चाल में कब क्या चल जाए, फैसले हमारे ही सही साबित हो जाए"

ऐसा नही है कि राज्यसभा चुनाव के दौरान से ही समाजवादी पार्टी पर सहयोगी दलों की उपेक्षा करने का आरोप लगा है। चुनाव परिणाम आने के बाद से ही सहयोगी दलों की उपेक्षा का आरोप लगाना शुरू हो गया था l। यदि इसी तरह से सहयोगी दलों की उपेक्षा होती रही तो लोकसभा चुनाव आने तक सपा के सभी सहयोगी दल सपा से किनारे हो सकते हैं।

आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव के दौरान यह कयास लगाए जा रहे थे कि सपा यहां से सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के प्रत्याशी को मौका दे सकती है जिससे सपा पर सहयोगी दलों की उपेक्षा के लग रहे आरोपों को निराधार बताया जा सके। लेकिन विधानसभा चुनाव में परिवारवाद को तिलांजलि देने वाले अखिलेश यादव ने आजमगढ़ उपचुनाव में धर्मेंद्र यादव को प्रत्याशी बनाया है। यहां से पहले डिंपल यादव के लड़ने की चर्चा थी। अब यह सवाल उठने लगा है कि क्या आजमगढ़ जैसे क्षेत्र में समाजवादी पार्टी को कोई स्थानीय नेता इसके योग्य नहीं मिल सका। जिससे धर्मेंद्र यादव पर दांव लगाना पड़ा। लगता है अखिलेश नही चाहते थे की यह लोकसभा सीट हमारे परिवार से बाहर किसी और के हाथों में जाए। क्योंकि राजनीति में कब कौन किधर चल दे यह समझना मुश्किल है।

शिवपाल सिंह यादव, ओमप्रकाश राजभर और पल्लवी पटेल समाजवादी पार्टी की रणनीति पर सवाल उठाते रहे हैं मगर खुद कुछ कर नहीं पाते। ऐसा लगता है जैसे उन्होंने अपने हाथ को स्वयं बांधकर गठबंधन धर्म का पालन जनता को दिखा रहे है। हालांकि यह कोई गठबंधन धर्म का पालन नही बल्कि यह इनकी मजबूरी है। राजभर के रिश्ते भाजपा से तल्ख है, पल्लवी कभी भाजपा से जुड़ना नही चाहेंगी क्योंकि सामने उनकी बहन अनुप्रिया पटेल है और रही बात शिवपाल सिंह यादव की सपा की बातों में आकर अपनी पार्टी की लुटिया लूटा बैठे और कार्यकर्ताओं ने भी उनका साथ छोड़ दिया है। भाजपा में उनके बड़े दुश्मन यूपी के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य है। इसीलिए कहा जाए तो सपा का साथ छोड़ेंगे तो अकेले ही पड़ जायेंगे। बाकी आगे का क्या होगा ये वक्त आने पर देखा जायेगा।

ओमप्रकाश राजभर की बात है जिस भी दल के साथ रहे हो उन्हें कभी उचित सम्मान भी नहीं मिला है जैसा कि वह हर बार कहते रहे हैं। भाजपा में थे तो जिस सम्मान के हकदार थे और पाने के बावजूद भी उन्हें लगा उचित सम्मान नहीं दिया जा रहा है। अब सपा में आने के बाद भी वही राग अलाप रहे हैं। अब आने वाले लोकसभा चुनाव तक देखा जाएगा कि क्या सपा के सहयोगी दल एक-एक करके उसका साथ छोड़ देंगे या लोकसभा चुनाव गठबंधन के तहत लड़ेंगे।

(लेखक पत्रकार है और जुड़ापुर, जौनपुर के निवासी है)

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