संपादकीय

इस देश में केवल एक ही दिलीप कुमार था, वो भी चला गया ...

Desk Editor
7 July 2021 5:23 AM GMT
इस देश में केवल एक ही दिलीप कुमार था, वो भी चला गया ...
x
उन्होंने जितनी फिल्मों में काम किया, उससे अधिक फिल्मों को उन्होंने ठुकराया भी..

दिलीप के लेवल को कोई छू ही नहीं सकता..

"पाली हिल के एक बंगले में आधी रात के बाद टेलीफोन की घंटी घनघना उठी। उनींदी अवस्था में एक व्यक्ति ने रिसीवर उठाया। दूसरी ओर से आवाज आई, 'मैं राज'. अभी तेरी फिल्म 'शक्ति' देखी, लाले... बस हो गया फैसला कि इस देश में केवल एक ही दिलीप कुमार है। उसके लेवल को कोई छू ही नहीं सकता!'

फोन करनेवाला कोई और नहीं, अपने समय के मशहूर अभिनेता, निर्माता और निर्देशक राजकपूर थे। सुपर स्टार अमिताभ बच्चन ने दिलीप साहब को 'दादा साहब फालके पुरस्कार' मिलने के समय लिखा था, 'उत्तम नहीं, सर्वोत्तम हैं दिलीप कुमार'। एक बार उन्होंने यहाँ तक कहा, 'अगर कोई एक्टर यह कह रहा है, कि वह दिलीप कुमार से प्रभावित नहीं है, तो वह झूठ बोल रहा है।'

अभिनय की चलती-फिरती पाठशाला माने जानेवाले दिलीप कुमार का असली नाम युसुफ खान है। उनका जन्म पेशावर (जो अब पाकिस्तान में है) में सन् 1922 में हुआ था युवावस्था में वह घर से भागकर पुणे आ गए थे, जहाँ वह आर्मी कैंटीन में सब्जियाँ साफ करने का काम करने लगे। बाद में कुछ पैसे जमा होने के बाद वह एक फुटपाथ पर फल बेचने का काम करने लगे। बाद में वह बंबई आ गए। उन दिनों 'बॉम्बे टाकीज' के हीरो अशोक कुमार 'बॉम्बे टाकीज' छोड़ चुके थे और देविका रानी को एक नए हीरो की तलाश थी।

अचानक एक दिन देविका रानी की नजर युसुफ खान पर पड़ गई और उनसे प्रभावित होकर उन्हें फिल्म 'ज्वार भाटा' (1944) में हीरो का रोल दे दिया और उनका फिल्मी नाम 'दिलीप कुमार' रख दिया। 'ज्वार भाटा' को 'बॉम्बे टॉकीज' की पिछली फिल्म 'किस्मत' जैसी सफलता तो नहीं मिली, परंतु दिलीप कुमार को 'बॉम्बे टॉकीज' में रख लिया गया। उसके बाद उन्होंने 'बॉम्बे टॉकीज' की फिल्में-'प्रतिभा' (1945) और 'मिलन' (1946) में हीरो के तौर पर काम किया। उन्हें फिल्म स्टार के रूप में सन् 1948 में प्रदर्शित 'शहीद' और 'मेला' के बाद ही प्रसिद्धि मिली। सन् 1949 में महबूब खान ने उन्हें अपनी फिल्म 'अंदाज', जिसमें राज कपूर और नरगिस भी थे, काम करने का अवसर दिया। 'अंदाज' को आशातीत सफलता मिली और दिलीप कुमार भारतीय सिनेमा के 'ट्रेजेडी किंग' के नाम से जाने जाने लगे।

'दीदार' (1951) और 'देवदास' (1955), जिनमें दिलीप कुमार की दुखांत भूमिका थी, काफी लोकप्रिय हुई। उनकी अन्य प्रमुख फिल्मों में इंसानियत (1955), मधुमती (1958), पैगाम (1959), यहूदी (1958), मुगल-ए-आजम (1960), गंगा जमुना (1961), लीडर (1964), दिल दिया दर्द लिया (1966), राम और श्याम (1967), गोपी (1970), सगीना (1974), बैराग (1976), क्रांति (1981), शक्ति (1982), विधाता (1982), कर्मा (1986), सौदागर (1991) और किला (1998) शामिल हैं।

सन् 1959 में दिलीप कुमार और राज कुमार ने फिल्म 'पैगाम' में एक साथ काम किया था। उसके बाद 32 वर्ष बाद सन् 1991 में दोनों ने सुभाष घई की फिल्म 'सौदागर' में काम किया। वह राज्यसभा के सदस्य भी रहे। उन्हें भारतीय फिल्मों के सर्वोच्च सम्मान 'दादा साहब फालके पुरस्कार' के अलावा पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'निशान-ए-पाकिस्तान' से नवाजा गया। दिलीप कुमार ने अभिनेत्री सायरा बानो से 1966 में विवाह किया। उस समय दिलीप कुमार की उम्र 44 और सायरा बानो की महज 22 वर्ष थी। 1980 में कुछ समय के लिए आसम से दूसरी शादी भी की। 1980 में उन्हें सम्मानित करने के लिए 'मुंबई का शेरीफ' घोषित किया गया।

दिलीप ने 1961 में 'गंगा-जमुना' फिल्म का निर्माण भी किया, जिसमें उनके साथ उनके छोटे भाई नासीर खान ने काम किया। 'गंगा-जमुना' में दिलीप कुमार का अभिनय हालीवुड के मशहूर निर्देशक डेविड लीन को इतना पसंद आया कि अपनी फिल्म 'लारेंस ऑफ अरेबिया' (1962) में अभिनय करने का प्रस्ताव लेकर खुद भारत आ गए। लेकिन दिलीप कुमार ने यह फिल्म करने से मना कर दिया और उन्हें जो भूमिका दी जा रही थी, वह वह बाद में मिस्र के अभिनेता ओमर शरीफ को दी गयी, जो इस फिल्म के बाद हॉलीवुड फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता बन गए।

कहा जाता है कि, अगर दिलीप कुमार ने यह प्रस्ताव मान लिया होता तो हॉलीवुड में भारतीय कलाकारों एवं फिल्मकारों के लिए उसी समय से दरवाजे खुल जाते। यही नहीं 'थीफ ऑफ बगदाद' जैसी विश्व प्रसिद्ध फिल्म बनाने वाले हंगेरियन निर्माता-निर्देशक अलेक्जेंडर कोर्डा भी दिलीप कुमार से एक फिल्म बनाने के सिलसिले में मिले थे, लेकिन वह योजना फलीभूत नहीं हुई।

दिलीप कुमार के बारे में कहा जाता है कि, उन्होंने जितनी फिल्मों में काम किया, उससे अधिक फिल्मों को उन्होंने ठुकराया भी, लेकिन कम फिल्मों के बावजूद उनका वर्चस्व हमेशा बना रहा। सन् 1970, 1980 और 1990 के दशक में उन्होंने कम फिल्मों में काम किया। 1998 मे बनी फिल्म 'किला' उनकी आखिरी फिल्म थी। उन्होंने रमेश सिप्पी की फिल्म 'शक्ति' में अमिताभ बच्चन के साथ काम किया। इस फिल्म के लिए उन्हें 'फिल्मफेयर अवार्ड' भी मिला।

सन् 2015 में वरिष्ठ लेखक-गीतकार जावेद अख्तर ने परफेक्टिंग इंडियन सिनेमा पर एक सेमिनार के दौरान मीडिया से बातचीत में कहा था कि, इस पीढ़ी के अभिनय मानकों में पिछले युगों युगों से काफी हद तक सुधार हुआ है, लेकिन फिर भी दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन या बलराज साहनी की क्षमता वाला कोई नहीं है।

भारतीय सिनेमा में दो पीढियों तक लगातार हीरो बने रहनेवाले कलाकार के विषय में यदि विचार करें तो केवल एक ही नाम उभरता है और वह है देवानंद। और यदि एक सदी तक महानायक के रूप में बात की जाए तो वह नाम है, दिलीप कुमार। देवानंद, दिलीप कुमार और राज कपूर 1950 के दशक के सबसे बड़े स्टार बने रहे।

भारतीय सिनेमा पर जिस एक शख्स ने सबसे अधिक छाप छोड़ी और आज तक अभिनय की कसौटी बना हुआ है वह और कोई नहीं दिलीप कुमार हैं, जिन्होंने फिल्मी अभिनय की पूरी अवधारणा को बदल दिया। भारतीय सिनेमा में 1940 से लेकर 1960 का एक दौर था, जब भारतीय दर्शकों के दिलों पर दिलीप कुमार का ही राज चलता था। दिलीप कुमार एक महान् कलाकार हैं और उनके उत्कृष्ट अभिनय के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा। अलविदा महान सदी के महानायक ,दिलीप कुमार 'साहब' !!

- संपादित अंश

स्रोत - हिंदी सिनेमा के 150 सितारे

Next Story