संपादकीय

नेहरू के बाद कौन ?' के प्रश्न का जवाब कामराज ने ही दिया था : के. कामराज जयंती विशेष

Desk Editor
15 July 2021 8:26 AM GMT
नेहरू के बाद कौन ? के प्रश्न का जवाब कामराज ने ही दिया था : के. कामराज जयंती विशेष
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कामराज का सम्बन्ध उस युग से था जब एक कांग्रेस वालंटियर एक सूरमा होता था..

क्षेत्रवाद बढ़ रहा है, राष्ट्रवाद घट रहा है..

सलेम जिले के एक गाँव का सादा सा विवाह , कुल 50 मेहमान आए थे। मुख्यमन्त्री की गाड़ी आई और बाहर निकले कुमारस्वामी कामराज। लड़की का पिता एक गरीब हो चुका कांग्रेसी कार्यकर्ता था। उसने मुख्यमन्त्री को निमंत्रित तो किया था पर उनकी शादी में शामिल होने की रत्ती बराबर आशा नहीं थी। कामराज ने अपने मित्र के साथ फुरसत के भाव में नाश्ता किया और दोनों पुराने दिनों की बातें करने लगे। कामराज बोले, 'हम कभी एक साथ जेल में रहे। आज भी दोस्त हैं।' उन्होंने आदर के साथ दिया गया नारियल ग्रहण किया, कार में बैठे और चल पड़े। एक मिनट बाद अपने ड्राइवर को कार रोकने को कहा। अपनी चेकबुक निकाली, एक चेक काटा और ड्राइवर से कहा कि, उनके मित्र को दे आए। इस सुलूक और बड़ी रकम के कारण उस कांग्रेसी कार्यकर्ता की आँखें आँसुओं से भर आई। कामराज का क़द न तो उनके उच्च आदर्शों की देन था न उनके व्यक्तित्व की। यह मिला जनता के साथ उनके उल्लेखनीय सम्पर्क और वित्तीय लाभ के प्रति उपेक्षा के भाव के कारण।

तमिलनाडु में शायद ही कोई कांग्रेसी कार्यकर्ता रहा हो जिसे व्यक्तिगत रूप से न जानते हों। और कोई चेहरा कभी वे भूलते नहीं थे। जिस शख्स ने भारत में दो प्रधानमन्त्रियों को गद्दी पर बिठाया- लालबहादुर शास्त्री और इन्दिरा गांधी को-वह मामूली से कपड़े पहनता था और एक पुराने, लम्बे-चौड़े बँगले के अनाज के कोठर में रहता था। वे सफ़ेद लुंगी और खादी का बना कुर्ता पहनते थे। कुर्ते की ख़ास विशेषता उसकी आधी आस्तीनें थीं-आधी आस्तीन की सामान्य लम्बाई की दोगुनी। आस्तीनें तुरही की तरह लगातार बढ़ती गईं और जाहिर था कि उनको बनाया ही इस तरह गया था कि मद्रास के गर्म मौसम में उन्हें ठंडक दें। लम्बी-चौड़ी काठी को देखते हुए सर बहुत छोटा था। आफ्टर नेहरू,हूँ ? के लेखक वेलीज़ हैंगन ने उनका बहुत सही वर्णन किया है, 'कामराज, पान के पत्ते जैसी पलकों वाले, चुप्पे और भावहीन, एक लुटेरों के जहाज़ के कप्तान की तरह दिखते हैं।'

'नेहरू के बाद कौन ?' के प्रश्न का जवाब कामराज ने ही दिया। 1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने सुझाया कि कामराज प्रधानमन्त्री बनें। उन्होंने इनकार कर दिया और लालबहादुर शास्त्री को चुना। शास्त्री की मृत्यु के बाद उन्होंने प्रधानमन्त्री पद के वास्ते श्रीमती इन्दिरा गांधी को खड़ा किया। उन्होंने कांग्रेस के कप्तान के रूप में 1969 के विभाजन से पहले पाँच वर्षों तक अच्छे-खासे कौशल के साथ पार्टी का मार्गदर्शन किया।

तमिलनाडु में कामराज को लगभग 15 वर्षों तक पूरी-पूरी शक्ति प्राप्त रही। वे समाजवाद के प्रचार से अधिक उसका व्यवहार करते थे। भाषा के प्रश्न पर जब मद्रास में अलगाववादी ताक़तों ने सर उठाया तो उन्होंने सुनिश्चित किया कि एकजुट भारत की छवि आँखों से ओझल न हो। कामराज ताड़ीवानों की जाति (नाडर) से थे। वे मद्रास प्रान्त के रामनाथ जिले में विरुदनगर गाँव में 15 जुलाई, 1906 को पैदा हुए। पाँच साल के थे कि, पिता चल बसे। माता शिवामियाम्मल ने पाला-पोसा। विद्यालय में कुल 6 साल शिक्षा पाई; उसके बाद चाचा की कपड़े की दुकान में काम करने लगे। कामराज के जीवन का मोड़ तब आया जब उन्होंने मदुरई में गांधीजी को बोलते सुना। वही पल था जब राजनीति में आने की इच्छा ने ज़ोर पकड़ा। उन्होंने त्रिवेन्द्रम में एक दुकान खोली पर कुछ माह में छोड़ दी। 1930 के नमक सत्याग्रह में भाग लेना उनका पहला राजनीतिक कृत्य था। दो साल की सजा पाई। झंडा लहराते जुलूसों में चलनेवाले युवा वालंटियर के रूप में वे मद्रास के नेता सत्यमूर्ति के प्रभाव में आए जिन्होंने उनको राज्य कांग्रेस के भावी नेतृत्व के लिए तैयार किया। कामराज को यह नेतृत्व 1939 में मिला। वे 1954 में मद्रास प्रान्त के मुख्यमन्त्री बनने तक कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर रहे।

प्रधानमन्त्री नेहरू ने कहा था कि कामराज के नेतृत्व में मद्रास 'अकेला राज्य है जिससे मुझे शायद ही सरदर्द होता हो।' रोज़मर्रा के तमाम कामों में कामराज फैसला कर्मचारियों पर छोड़ देते थे। हालाँकि वे कांग्रेस के लिए उद्योगपतियों से बड़ी-बड़ी रक़में जमा करने के लिए तत्पर थे, पर वे उनकी तरफ़ से प्रशासनिक मुआमलों में हस्तक्षेप करने से मना कर देते थे, बशर्ते सचमुच कोई अन्याय न हुआ हो। अन्यथा वे जवाब में 'पार्कलम' (देखते हैं) कहकर आगे बढ़ जाते थे। महीने में 20 दिन अपने राज्य के दौरे की आज़ादी पाने के लिए वे रोज़मर्रा के काम अपने साथी मन्त्रियों पर छोड़ देते थे। वे अच्छे श्रोता थे, लोगों की समस्याओं को सुनते थे और उनको हल करने की कोशिश करते थे। आसानी से पकड़ में आ जाते थे और कोई भी व्यक्ति अपनी समस्या लेकर देर रात तक उनके घर में जा सकता था।

एक बार मद्रास में मूसलाधार बारिश हुई और गन्दी बस्तियाँ जलमग्न हो गईं। हालाँकि वे मुख्यमन्त्री थे, फिर भी घुटने-घुटने पानी में डेढ़ मील चले, राहत की व्यवस्था की और रात में उन्हीं बस्तियों के लोगों के साथ ठहरे। लोग वह बात आज भी याद करते हैं। विद्यालयों के गरीब बच्चों के लिए उन्होंने दोपहर के भोजन की योजना शुरू की। नेहरू-राज की गोधूलि में कामराज का सितारा ऊपर की ओर चढ़ रहा था। कुछ कांग्रेसी नेताओं ने एक योजना बनाई जो कामराज योजना के नाम से मशहूर हुई। कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में खुद कामराज ने इसे प्रस्तुत किया : यह कि कांग्रेस संगठन के चोटी के नेता समय-समय पर प्रशासन चला रहे नेताओं के साथ पदों की अदलाबदली करेंगे। कहा, 'अगर कांग्रेसजन स्वेच्छा से कार्मिकों के इस स्वतन्त्र विनिमय को स्वीकार कर लें तो सांगठनिक और विधायी धड़ों में गुटबन्दी की प्रवृत्ति काफ़ी कम हो जाएगी। कामराज ने फिर मुक्त हृदय से वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं की उत्तम प्रतिक्रिया का हवाला दिया जिनमें से अनेक ने मन्त्री-पद छोड़ देने का प्रस्ताव किया था। उन्होंने कहा इस कृत्य से स्पष्ट है कि बलिदान और सेवा की भावना अभी मरी नहीं है। नेहरू ने कामराज योजना को पहले ही स्वीकार कर लिया था। फिर तो 'स्वेच्छा से' जो कुल्हाड़ा गिरा उसके चलते छह मुख्यमन्त्रियों को तथा मोरारजी देसाई और लालबहादुर शास्त्री समेत छह केन्द्रीय मन्त्रियों को 'संगठन-कार्य के लिए मुक्त' कर दिया गया। उनमें सभी राजी-खुशी भी नहीं गए और मोरारजी देसाई, जो मन्त्रिमंडल में नम्बर दो थे और बाक़ी की तरह अपना त्यागपत्र दे चुके थे, जब उसे स्वीकार कर लिया गया तो हतप्रभ रह गए। कामराज योजना किसी सांगठनिक पुनर्गठन का कारण नहीं बनी बल्कि जिन पर कुल्हाड़ा गिरा था उनमें इसने काफ़ी-कुछ नाराजगी पैदा की। पर यह तो साबित हो ही गया कि कांग्रेस में कामराज की एक ताक़त थी।

नेहरू की मृत्यु के बाद कामराज ने प्रधानमन्त्री के रूप में लालबहादुर शास्त्री के एकमत चुनाव को कुशलता से निबटाया। न कोई मुक़ाबला, न टकराव, न कोई क्षेत्रीय दबाव। कांग्रेस ने एकराय से अपना नेता चुना। जनवरी 1966 में शास्त्री की मृत्यु के बाद, जो लोग कामराज को जानते थे, उन्हें भी यह पता था कि नेहरू परिवार के प्रति उनकी निष्ठा इतनी पक्की है कि वे श्रीमती इन्दिरा गांधी को अपने उम्मीदवार के तौर पर पेश करेंगे। यही उन्होंने किया।

कामराज राजनीतिक शतरंज के मँजे हुए खिलाड़ी थे पर 1967 के चुनावों में जब द्रमुक की लहर ने तमिलनाडु को धो दिया तब उनकी भी हार हुई। कामराज हिलकर रह गए। कामराज पर दूसरी चोट 1969 में पड़ी जब श्रीमती गांधी ने, जिनको उन्होंने प्रधानमन्त्री बनवाया था, कांग्रेस के दोफाड़ कर दिया। कामराज पुरानी कांग्रेस के साथ ही रहे।

1975 में आपात्काल की घोषणा के बाद उन पर तीसरी मार पड़ी। यूँ तो उनकी मृत्यु के बाद श्रीमती गांधी ने दावा किया कि कामराज अपनी कांग्रेस पार्टी को उनकी पार्टी के करीब लाना चाहते थे, पर दूसरों के साक्ष्य उनके इस वक़्तव्य की काट करते हैं। जो लोग कामराज को जानते थे, बतलाते हैं कि जब उनके अनेक पुराने साथी कैद कर लिए गए तो उन्हें कितनी गहरी पीड़ा हुई। आपात्काल की घोषणा के कुछ माह के अन्दर वे चल बसे। अखिल-भारतीय स्तर पर उनके धूमकेतु जैसे उदय ने स्पष्ट कर दिया कि राजनीतिक यश की वृद्धि में न तो शिक्षा की कमी कोई बाधा होती है न अंग्रेज़ी पर पकड़ की कमी। उनकी महत्त्वाकांक्षा अपने लिए नहीं थी; उनका मुख्य सरोकार पार्टी और देश से था। अपनी लोकछवि के

विपरीत वे अंग्रेजी भी समझ लेते थे और अलग-थलग होने पर छोटे-मोटे वाक्य भी बोल लेते थे। उनके साथ मेरे साक्षात्कार का तमिल से अनुवाद किया गया था, पर ये मेरी खुशनसीबी थी कि मैंने उनके दुर्लभ अंग्रेजी वक्तव्यों में एक वक्तव्य सुना था : 'Regionalism is going up; nationalism is going down.' (क्षेत्रवाद बढ़ रहा है। राष्ट्रवाद घट रहा है।) 2 अक्तूबर, 1975 को उनकी मृत्यु हुई। उनके एक समकालीन ने लिखा था : 'कामराज का सम्बन्ध उस युग से था जब एक कांग्रेस वालंटियर एक सूरमा होता था, एकनिष्ठ समर्पण-भाव के साथ आदर्शों वाला व्यक्ति होता था...उन्होंने एक मामूली कांग्रेसी कार्यकर्ता के रूप में काम शुरू किया जिसके पास साम्राज्य की शक्ति से लड़ने के लिए सत्याग्रह के गांधीवादी हथियार से अधिक कुछ भी नहीं था। चौथाई सदी के संघर्षों के दौरान उन्होंने 3,000 से अधिक दिन जेल में गुज़ारे और मद्रास राज्य के एक प्रभुत्वशाली और प्रिय नेता बनकर उभरे।' एक क्षेत्रीय नेता होकर भी वे राष्ट्रीय मंच पर आत्मविश्वास के साथ चहलकदमी करते रहे, पर अपने जीवन के अन्तिम दिनों में अपनी क्षेत्रीय जड़ों की ओर वापस मुड़ गए जहाँ उनको सबसे अधिक राहत मिलती थी। वे जैसे जीते रहे वैसे ही मरे-एक मामूली कुँवारे की तरह।

स्रोत - महानता की छाप - R. M Lala

संपादित - प्रत्यक्ष मिश्रा

prataykshmishra@gmail.com

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