संपादकीय

स्त्रियां उपनिवेश और जागीर नहीं

Shiv Kumar Mishra
9 Dec 2021 3:43 AM GMT
स्त्रियां उपनिवेश और जागीर नहीं
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अरविंद जयतिलक

गत दिवस पहले प्रकाशित राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (एनएचएफएस-5) का यह तथ्य चैंकाने वाला रहा कि 14 राज्यों की 30 फीसद महिलाएं पति से पिटने को जायज कहा है। इस सर्वेक्षण के मुताबिक तीन राज्यों में 77 फीसद से ज्यादा महिलाओं ने पति से पिटने का समर्थन किया है। आंकड़ों पर गौर करें तो कर्नाटक की 77 फीसद, तेलंगाना एवं आंध्रप्रदेश की 84, मणिपुर की 66, केरल की 52, महाराष्ट्र की 44, पश्चिम बंगाल की 42 और जम्मू-कश्मीर की 49 फीसद महिलाओं ने पिटने का समर्थन किया है। यहां ध्यान देना होगा कि सर्वेक्षण के तहत महिलाओं से सवाल पूछा गया था कि क्या वे पति से पिटने को ठीक मानती हैं तो अधिकांश महिलाओं का उत्तर 'हां' में था।

फिलहाल राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 का तथ्य कितना वैज्ञानिक और तर्कयुक्त है यह कहना तो मुश्किल है लेकिन जो तथ्य सामने आए हैं वह न सिर्फ ंिचंतित और निराश करता है बल्कि अचंभित भी करता है। सवाल लाजिमी है कि आखिर एक महिला अपने पति के हाथों पिटने का समर्थन कैसे कर सकती है। सर्वेक्षण के दौरान महिलाओं ने कहा है कि चूंकि पति उन पर शक, ससुराल के लोगों का सम्मान न करने, बिना बताए घर से बाहर जाने, संबंध बनाने से इंकार करने और बच्चों का ध्यान न रखने को जिम्मेदार ठहरा पिटते हैं। भला कोई महिला इसे किस तरह जायज ठहरा सकती है। यह कोई पहला सर्वे नहीं है जहां पत्नियों पर पतियों के अत्याचार का मामला सामने आया हो। याद होगा गत वर्ष पहले यूनिसेफ की रिपोर्ट 'हिडेन इन प्लेन साइट' में भी कहा गया था कि भारत में 15 साल से 19 साल की उम्र वाली 34 फीसद विवाहित महिलाएं ऐसी हैं, जिन्होंने अपने पति या साथी के हाथों शारीरिक या यौन हिंसा झेली हैं। इसी रिपोर्ट में यह भी उल्लेख था कि 15 साल से 19 साल तक की उम्र वाली 77 फीसद महिलाएं कम से कम एक बार अपने पति या साथी के द्वारा यौन संबंध बनाने या अन्य किसी यौन क्रिया में जबरदस्ती का शिकार हुई हैं। इसी तरह 15 साल से 19 साल की उम्र वाली लगभग 21 फीसद महिलाएं 15 साल की उम्र से ही हिंसा झेली हैं। 15 साल से 19 साल के उम्र समूह की 41 फीसद लड़कियों ने 15 साल की उम्र से अपनी सौतेली मां या पिता के हाथों शारीरिक हिंसा झेली हैं जबकि 18 फीसद ने अपने पिता या सौतेले पिता के हाथों शारीरिक हिंसा झेली है।

रिपोर्ट में यह भी उद्घाटित हुआ था कि जिन लड़कियों की शादी नहीं हुई, उनके साथ शारीरिक हिंसा करने वालों में पारिवारिक सदस्य, मित्र, जान-पहचान के व्यक्ति और शिक्षक थे। गत वर्ष पहले संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष तथा वाशिंगटन स्थित संस्था 'इंटरनेशनल सेंटर पर रिसर्च आॅन वुमेन'(आईसीआरडब्ल्यु) से भी उद्घाटित हो चुका है कि भारत में 10 में से 6 पुरुषों ने कभी न कभी अपनी पत्नी अथवा प्रेमिका के साथ हिंसक व्यवहार किया है। रिपोर्ट के मुताबिक यह प्रवृत्ति उन लोगों में ज्यादा देखी गयी जो आर्थिक तंगी का सामना कर रहे हैं। 52 फीसद महिलाओं ने स्वीकार किया कि उन्हें किसी न किसी तरह हिंसा का सामना करना पड़ा है। 38 फीसद महिलाओं ने घसीटे जाने, पिटाई, थप्पड़ मारे जाने तथा जलाने जैसे शारीरिक उत्पीड़नों का सामना करने की बात स्वीकारी। यह खुलासे बेहद चिंतनीय और शर्मसार करने वाले हैं। विचार करें तो घर और समाज में पत्नियों और बेटियों को आदर-सम्मान न मिलने का ही नतीजा है कि आज सार्वजनिक स्थानों पर भी उनके साथ ज्यादती होती है। इसका सीधा मतलब यह हुआ कि लोगों में महिला अत्याचार विरोधी कानून से खौफ नहीं है। या यह भी कह सकते हैं कि कानून का ईमानदारी से पालन नहीं हो रहा है। यह स्थिति तब है जब देश में महिलाओं को अपराधों के विरुद्ध कानूनी संरक्षण हासिल है।

भारतीय महिलाओं के अपराधों के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करने तथा उनकी आर्थिक तथा सामाजिक दशाओं में सुधार करने हेतु ढ़ेर सारे कानून बनाए गए हैं। इनमें अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम 1956, दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961, कुटुम्ब न्यायालय अधिनियम 1984, महिलाओं का अशिष्ट-रुपण प्रतिषेध अधिनियिम 1986, गर्भाधारण पूर्व लिंग-चयन प्रतिषेध अधिनियम 1994, सती निषेध अधिनियम 1987, राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम 1990, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005, बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम 2006, कार्यस्थल पर महिलाओं का लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध, प्रतितोष) अधिनियम 2013 प्रमुख हैं। लेकिन इसके बावजूद भी महिलाओं पर अत्याचार थम नहीं रहा है तो इसके लिए हम सिर्फ सरकार या कानून का अनुपालन न होने का बहाना बना निश्चिंत नहीं हो सकते। इस हालात के लिए हमारे समाज की सामाजिक-धार्मिक मनोभावना और दकियानुसी अवधारणा भी जिम्मेदार है। देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो अब भी मानते हैं कि स्त्रियों को बचपन में पिता के अधीन, जवानी में पति और बुढ़ापे में पुत्र के अधीन रहना चाहिए। अगर समाज में इस तरह की भेदभावपरक प्रवृत्ति मौजूद रहेगी तो स्वाभाविक रुप से महिलओं पर अत्याचार बढ़ेगा। यह सही है कि दांपत्य जीवन में पति-पत्नी के बीच तकरार और मनमुटाव होता है। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि संपूर्ण दांपत्य जीवन को ही दांव पर लगा दिया जाए। हालात तब प्रतिकूल होते हैं जब पतियों द्वारा पत्नियों को अनावश्यक प्रताड़ित किया जाने लगता है।

चूंकि आज महिलाएं पढ़ी-लिखी होने के साथ-साथ अपने उत्तरदायित्वों व अधिकारों को अच्छी तरह समझती हैं लिहाजा वह अपने उपर होने वाले अत्याचारों का प्रतिकार करती हैं। यह आवश्यक भी है। भारतीय पुरुष समाज को समझना होगा कि स्त्रियां गुलाम और उपनिवेश नहीं हैं जिसपर कब्जा करके रखा जाए। उचित तो यह होगा कि पति और पत्नी एकदूसरे पर विश्वास करें। पति-पत्नी जितने प्रेम से भरे होंगे, परिवार में सुख की संभावना उतनी ही बढ़ेगी। लेकिन विडंबना है कि हमारा भारतीय परिवार उदात्त जीवन व सनातन मूल्यों का लगातार परित्याग कर रहा है। नतीजा सामने है। दांपत्य जीवन की चुनौतियां बढ़ रही हैं। विचार करें तो इसके लिए सर्वाधिक रुप से पुरुष समाज ही जिम्मेदार है। सवाल लाजिमी है कि जिन कार्यों को करने से पत्नियों को मना किया जाता है वह पति के लिए उचित और आदर्श कैसे हो सकता है? पति और पत्नी गृहस्थ जीवन के दो पहिए हैं। जब दोनों पहिए एक साथ, एक गति और एक लय में आगे बढ़ेंगे तभी गृहस्थी की गाड़ी आगे बढ़ेगी। एक पहिए को कमजोर कर दूसरे को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता।

अक्सर देखा जाता है कि जब कभी पत्नियां अपने अधिकारों और मुक्ति के लिए साहस दिखाती हंै या पति की ही भाषा में जवाब देती हैं तो पति का अहंकार जाग उठता है। वह तमाम शास्त्रों, उपनिषदों और महाकाव्यों का हवाला देकर पत्नियों को लक्ष्मण रेखा की हद में रहने की याद दिलाता है। नैतिकता का हवाला देकर पत्नी धर्म का पाठ पढ़ाता है। यह उपदेश सुनाने लगता है कि पत्नी का आचरण कैसा होना चाहिए और उसे क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए। उसे क्या पहनना चाहिए और क्या नहीं पहनना चाहिए। अगर पत्नी इस फरमान को नकारती है तो फिर उसे कुलटा, व्यभिचारिणी, और परपुरुषगामिनी जैसे घृणित विशेषणों से नवाजकर लांक्षित करता है। यही नहीं आवेश में आकर उसकी निर्ममता से हत्या भी कर देता है। प्राचीन समाज की अधिनायकवादी व्यवस्था और कुप्रवृत्तियों को तो जाने दीजिए आधुनिक समाज की दृष्टि में भी पुरुषों के लिए पत्नियां सिर्फ आखिरी उपनिवेश भर रह गयी हैं। अचंभित करने वाला तथ्य यह कि पुरुष समाज ने खुद के लिए नहीं लेकिन स्त्रियों के लिए जरुर मापदंड तय कर रखा है। पुरुष समाज मान बैठा है कि उसके अत्याचारों को सहना ही पत्नियों केे लिए पति धर्म का पालन है। इसी खतरनाक मानसिकता का परिणाम है कि आज देश में महिलाओं से छेड़छाड़, बलात्कार, यातनाएं, अनैतिक व्यापार, दहेज मृत्यु तथा यौन उत्पीड़न जैसे अपराधों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। उचित होगा कि पुरुष समाज पितृसत्तात्मक मानसिकता के केंचुल को उतार फेंक महिलाओं का सम्मान करे।


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