जैविक खेती के भ्रम जाल में उलझे देश के लिए छत्तीसगढ़ बन सकता है नजीर - डॉ राजाराम त्रिपाठी

Update: 2021-01-03 10:28 GMT

डॉ राजाराम त्रिपाठी राष्ट्रीय संयोजक भारतीय कृषक महासंघ (आईफा) ने दृढ राजनीतिक इच्छाशक्ति से सर्वाधिक संभावनाशील छत्तीसगढ़ को "सम्पूर्ण जैविक प्रदेश" बनाया जा सकता है. उन्होंने कहा कि जैविक खेती के नाम पर किसानों को "जीरो बजट खेती" का झुनझुना थमाया है वहीं हाइब्रिड बीजों के कारण साग सब्जी तथा अनाजों की देश की सैकड़ों अनमोल प्रजातियां पूरी तरह से विलुप्त हो गई.

डॉ राजाराम त्रिपाठी ने कहा कि जिस तरह एक समय सभी सरकारी विभाग ,सरकार के नीति निर्माता, कृषि वैज्ञानिक, कृषि विश्वविद्यालय एक सुर में हरित क्रांति और उन्नत खेती के नाम पर किसानों को हाइब्रिड बीज, जीएम बीज ,रासायनिक खाद तथा दवाइयों के फायदे समझा रहा था, उसी तरह आजकल हमारे देश में भी "जैविक खेती" की बयार बड़े जोरों से चली हुई है। पर देश का किसान तब भी भ्रम जाल में उलझा हुआ था और आज भी उलझा हुआ है।

देश में सरकारी गैर सरकारी सामाजिक संगठनों यहां तक की पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाले उद्योगों के द्वारा भी इन दिनों जैविक खेती की बात बड़े जोर शोर से की जा रही है।

डॉ राजाराम ने कहा किसरकारी कॉन्फ्रेंस सेमिनार वर्कशॉप तथा प्रदर्शनों में भी जैविक खेती की बड़ी चर्चा होती है। इसके लिए सरकार ने कुछ स्वनामम धन्य विभाग भी बना रखे हैं। लेकिन जब बजट में बंटवारे की बात आती है तो खेती के नाम पर आवंटित बजट का लगभग समूचा हिस्सा रासायनिक खाद बीज दवाइयों के अनुदान के नाम पर बड़ी-बड़ी देसी विदेशी कंपनियां गटक जाती हैं, और जैविक खेती को बजट से चिड़ियों के चुगा बराबर से आवंटन मिल पाता है और साथ ही जैविक खेती के नाम पर किसानों के हाथ में "जीरो बजट" का नामुराद झुनझुना थमा दिया जाता है, जो आवाज तो बहुत करता है पर इसकी आवाज असहनीय होने की हद तक बेसुरी है। इको फ्रेंडली अर्थात पर्यावरण हितैषी खेती के नाम पर देश के किसानों को प्रशिक्षण देने के कार्य में बहुत सारी गैर सरकारी संस्थाएं लगी हुई हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में युवाओं के कौशल विकास के नाम पर सरकारी बजट की छीना छपटी मची हुई है।

सरकारों ने ग्रामीण क्षेत्रों में वोटों की राजनीति के तहत बहुसंख्यक मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए लुभावने नारों के साथ अनाज , खाद्यान्न, नमक, तेल, बीज ,खाद , पौधेआदि मुफ्त बांटने की जो योजनाएं चलाई हुई है उन्होंने एक पूरी की पूरी पीढ़ी को मुफ्त खोर बना दिया है। श्रम की अवमानना दिनों दिन बढ़ते जा रही है।

मुफ्त खोरी की प्रतियोगिता के दौर में, अगर किसानों को बिना एक पैसे खर्च किए ही ,भरपूर जैविक उत्पादन देने वाली खेती करवाने का सब्जबाग "जीरो बजट" खेती पद्धति के नाम पर दिखाया जाए,,तो भला कौन मूरख किसान अपने टेंट से पैसा निकाल कर खेती करना चाहेगा ?

डॉ त्रिपाठी ने कहा कि पर्यावरण हितैषी तथा टिकाऊ खेती के क्षेत्र में "जीरो बजट" जैसे लुभावने किंतु अव्यावहारिक नारों तथा किसानों कौशल विकास हेतु प्रशिक्षण के नाम पर पूरे देश में पैसा उगाही करने वाले अंतरराज्यीय खेमेबाज गिरोह कार्यरत हैं। हर प्रदेश में हर जिले में स्थानी प्रगतिशील किसानों तथा गए सरकारी समाजसेवी संस्थाओं को अपने साथ जोड़ते हुए राज्य तथा केंद्र सरकारों के साथ गठजोड़ कर तथाकथित पर्यावरण हितैषी खेती के कौशल विकास के नाम पर ग्रामीण बेरोजगार युवाओं के लिए प्रशिक्षण आयोजित करके पैसा बनाने वाली संस्थाएं बड़े सुनियोजित ढंग से कार्य कर रही है। कौशल विकास के नाम पर काम कर रहे यह खेमेबाज गिरोह इतने शक्तिशाली हैं, की कई राज्यों में तो यह अपनी सुविधा के अनुकूल योजनाएं तक पारित करवा लेते हैं। देश की सरकारों में इनकी पकड़ इतनी मजबूत है जिए अपने कार्यों में परोक्ष अपरोक्ष रूप से मदद करने वाले प्रगतिशील किसानों को सरकारी मान्यता दिलाने के उद्देश्य से पद्मश्री जैसे पुरस्कार तक दिलवाने में सफल होते हैं । इनकी ताकत का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि हाल में ही बजट की घोषणा के तत्काल बाद केंद्र शासन ने देश में जीरो बजट खेती को बढ़ावा देने की बात सार्वजनिक रूप से कही थी ।

डॉ राजाराम त्रिपाठी ने कहा कि यह जीरो बजट खेती अगर सचमुच बिना एक पैसे खर्च किए हो सकती है तो जितने भी कृषि विश्वविद्यालय की जमीनें हैं,कृषि विज्ञान केन्द्र हैं, रक्षा विभाग के फार्म हैं, सरकारी बीज उत्पादन केंद्र हैं, वहां की खेती तथा प्रबंधन हेतु जनता की गाड़ी पसीने की कमाई, सरकारी मद से करोड़ों रुपए आवंटित करने की क्या आवश्यकता है ? वहां की सारी खेती जीरो बजट पर क्यों नहीं की जा रही है भला ? यह बेअसर तकनीकें विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षणों के नाम पर किसानों में ही क्यों बाटी जा रही है । ज्यादातर ऐसे प्रशिक्षण कहने को तो निशुल्क होते हैं ,पर वास्तव में इन प्रशिक्षणों पर सरकारी मद से किया गया खर्च भी अंततः जनता का ही पैसा होता है।

ज्यादातर प्रशिक्षण देने वालों ने स्वयं ना तो व्यावहारिक रूप से कोई सफल खेती की है ,नाही इन्हें कृषि उत्पादों के सफल विपणन का कोई अनुभव है। कौशल विकास की इन कागजी प्रशिक्षण सत्रों से प्रशिक्षित युवा भी वापस अपने खेतों में जाकर इन तथ्यों को खाना तो प्रयोग कर पा रहे हैं नाही अपने उत्पादों का मूल्य संवर्धन कर उसे बाजार तक पहुंचा पा रहे हैं।

डॉ राजाराम त्रिपाठी ने कहा कि छत्तीसगढ़ प्रदेश की अगर बात करें तो डेढ़ दशक बाद, किसान आकांक्षाओं की पंखों पर सवार होकर सत्ता में लौटी कांग्रेस सरकार ने, अभी तक तो अपना फोकस गांवों तथा किसानों पर लगातार बनाए रखा है। नरवा गरुवा घुरवा बाड़ी, गोठान योजना, गोबर खरीदी योजना किसान न्याय योजना जैसे ठेठ गांव , खेती और किसानों से जुड़ी योजनाओं के जरिए प्रदेश के किसानों की दशा दिशा बदलने के लिए जो सुधार कार्य शुरू किये हैं, उसके परिणामों पर पूरे देश की नजर है। वर्तमान प्रादेशिक नेतृत्व यदि दृढ़ राजनैतिक इच्छा शक्ति प्रकट करें तो सर्वाधिक संभावनाशील प्रदेश छत्तीसगढ़ को जैविक प्रदेश में बदला जा सकता है। इन योजनाओं की सही रूप से गांव तथा खेतों में उतरने पर निश्चित रूप से या प्रदेश पूरे देश के लिए एक नजीर बनेगा।

डॉ राजाराम त्रिपाठी ने कहा कि गांव गांव में हर किसान को अपने खेतों पर ही जैविक खाद बनाना ही होगा, क्योंकि अब यह साबित हो गया है कि दस साल पहले जितनी फसल लेने के लिए उस समय की तुलना में दोगुनी रासायनिक खाद डालनी पड़ रही है । इससे किसान कर्ज के जाल में फंस रहे हैं । हालिया अध्ययन में रासायनिक खाद की खपत और उत्पादन के बीच नकारात्मक सह-संबंध के बारे में साफ साफ बताया गया है। जिन क्षेत्रों में खाद की खपत कम है वहां फसल की उपज अधिक है । यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि खाद कंपनियों को कभी ऐसे निर्देश नहीं दिए गये कि वे मिट्टी के पोषक तत्वों में संतुलन का भी ध्यान रखें, ताकि विविध प्रकार से भूमि में रासायनिक तत्वों का हानिकारक जमावड़ा न हो । आंख मूंदकर विदेशों से आयातित तकनीकों को स्वीकार कर लेने की प्रवृत्ति किसानों पर अब बहुत भारी पड़ रही है ।

डॉ राजाराम त्रिपाठी ने कहा कि वास्तव में इन महंगी तकनीकों के प्रलोभन ने कृषक समुदाय की खाल ही उतार दी है । फसल उगाने से बचने वाली रकम इन तकनीकों की खरीद और रख-रखाव में चली जाती है । इससे खेती की लाभदायक का घटते जा रही है ,और खेती पर संकट बढ़ता जा रहा है । अब हम आते हैं भारत की जैविक खेती पर। ज्यादा नहीं लगभग सत्तर साल पहले यह देश पूरा का पूरा शत प्रतिशत जैविक कृषि करता था। हर फसल, अनाज,साग, सब्जी फलों की अनगिनत किस्मों के अलग-अलग स्वाद ,खुशबू ,आकार प्रकार, रंग रूप वाले बीज थे हमारे पास। गाय भैंस बकरी आदि की अवशिष्ट पदार्थों तथा खरपतवार आदि से शुद्ध जैविक उपजाऊ खाद बनाने की अपनी परंपरागत कारगर तकनीकें थी, और फसलों तथा पशुओं की बीमारियों के नियंत्रण के लिए भी प्रभावी परंपरागत उपाय थे। यह खेती पूरी तरह से जहर रहित, और लगभग मुफ्त थी। आज जरूरत है कि हम फिर से अपनी जड़ों की ओर लौटें और अपनी परंपरागत तकनीकों के साथ ही आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के साथ आवश्यक संतुलित समन्वय कर अपनी खेती-बाड़ी को गुणवत्तापूर्ण जहररहित उत्पादन के लिए तैयार करें और खेती को एक सतत लाभदायक उद्यम बनाएं। आखिर देश के एक अरब छत्तीस करोड़ लोगों का पेट भरने के लिए तथा पच्चीस करोड़ बेरोजगार युवाओं को रोजगार देने के लिए हमारे पास इसके अलावा भला और दूसरा रास्ता भी तो नही है।

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