विश्व पर्यावरण दिवस: प्रकृति पर लाओत्से

Update: 2020-06-05 11:30 GMT

सुनील कुमार मिश्र 

चीन मे एक प्रसिद्ध संत हुऐ लाओत्से। लाओत्से के सम्बंध मे कहा जाता है की वो बूढ़े ही पैदा हुये, यह बात बड़ी हैरान करने वाली और प्रकृति विरुद्ध भी मालूम होती है। संभव है लाओत्से जन्म से ही बुद्धत्व को उपलब्ध हो। जैसे छोटे बच्चे के मुँह से हम प्रौढ़ता की बात सुनते है, तो उसको बुढ़ा कहने लगते है। ऐसा ही कुछ उस काल मे लाओत्से के साथ भी घटा हो। जहां लाओत्से के जन्म को लेकर धारणा हैवही लाओत्से के शरीर छोड़ने बारे मे उस काल मे कोई जानकारी उपलब्ध नही है। कहते है कि लाओत्से सशरीर शून्य मे विलीन हो गये। लाओत्से सत्य को प्रकृति से परिभाषित करते है। लाओत्से का पूरा बोध ही प्रकृति पर है।

लाओत्से कहते है "तुम मनुष्य को कोई भी नियम ना दो क्योंकि सभी नियम प्रकृति की पूरी समग्रता को समझे बिना बने है और विनाश का कारण है"

तुम अपने को तराश कर बाजार में बेच सकते हो। तुम्हारी कीमत भी मिलनी शुरू हो जाएगी। लेकिन तब मूल स्वभाव से तुम्हारा संबंध छूट जाएगा। तराशा हुआ जो रूप है वह है संस्कृति। लाओत्से के लिए संस्कृति विकृति का ही अच्छा नाम है। लाओत्से प्रकृति के बिलकुल पागल भक्त है। वह कहते है, जो है, जैसा है, वैसा ही! उसमें तुम इंच भर फर्क मत करना। क्योंकि तुमने फर्क किया कि तुम परमात्मा से ज्यादा समझदार हो गए। प्रकृति को पूरी की पूरी समग्रता के साथ बिल्कुल वैसा ही स्वीकार करो जैसी वो है। संस्कृति एक बनावटी व्यकित्तव का निर्माण करती है और मनुष्य को उसके वास्तविक आंतरिक केन्द्र से दूर कर देती है। एक अलग सा पागलपन निर्मित करती है। संस्कृति के नाम पर जो भी समाज खड़े होगे सब के सब विकृत और प्रकृति विरुद्ध होगे। हर व्यक्ति का अपना खुद का प्रकृति से जोड़ है और वो जोड़ टूट जाने से एक अलग किस्म का पागलपन समाज मे पैदा होगा। जो ना समाज बल्कि प्रकृति के लिये भी विनाशकारी होगा।

लाओत्से अपने शिष्यों को जंगल से लकड़ी लाने को भेजते है। सब लकड़ी लेकर लौटते है। एक शिष्य पूरा हरा पेड़ ही काट लाता है। लाओत्से माथा पकड़ कर बैठ जाता है। वो उस शिष्य से कहता है यह क्या कर दिया तुमने, मूर्ख अनजाने मे तुम अपने ही हाथ काट बैठे। काश! तुम प्रकृति की पूरी समग्रता और उससे अपना जोड़ देख पाते, तो जब तुम हरे पेड़ पर कुल्हाड़ी चलाते तो उसका कष्ट तुम अपने शरीर मे भी अनुभव करते। वृक्ष स्वयं अपनी पुरानी और पक चुकी शाखाओं को सूखा कर मनुष्य के इस्तेमाल के लिये अलग कर देते है। वृक्ष से लकड़ी काटनी नही होती है👉बस वो जो अपने शरीर से तुम्हें देने के लिये अलग कर चुका है, उन शाखाओँ को तलाशना भर होता है...

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