दैनिक भास्कर के स्टिंग ऑपरेशन ने विधायकों की करतूतों को बेनकाब कर यह साबित कर दिया कि पत्रकारिता चाहे तो सत्ता के गलियारों में भूचाल ला सकती है। भास्कर की इस पहल स्वागत योग्य है । उसने एक ऐसा प्रयास किया जिससे विधायिका का कुरूप चेहरा बेनकाब होकर रह गया । लेकिन यही निर्भीकता यहीं आकर दम क्यों तोड़ देती है? क्या भ्रष्टाचार केवल विधायक, सांसद और अफ़सरों की बपौती है? क्या न्यायपालिका और मीडिया ऐसी पवित्र गायें हैं जिन्हें छुआ नहीं जा सकता? अगर जवाब “नहीं” है । सच यही है तो फिर इन पर स्टिंग ऑपरेशन आज तक क्यों नहीं हुआ?
हकीकत यह है कि आज हिंदुस्तान में सबसे ज़्यादा स्टिंग ऑपरेशन की ज़रूरत पत्रकारिता को ही है। यह कोई भावनात्मक आरोप नहीं, बल्कि एक खुली चुनौती है। अख़बार और टीवी चैनल अब केवल खबर नहीं बेचते, वे डर, सौदे और चुप्पी बेचते हैं। खबर छापने के भी पैसे और खबर रोकने के लिए भी सौदेबाज़ी । यह अब चोरी-छिपे नहीं, खुलेआम चलने वाला धंधा बन चुका है। थाने, नगर निगम, सचिवालय, उद्योग समूह, हर जगह “मैनेजमेंट” की भाषा बोली जाती है। खबर पहले तैयार होती है, फिर सौदे का इंतज़ार। रकम आई तो खबर दफन, नहीं तो “जनहित” जाग उठता है।
अख़बारों और चैनलों के भीतर एक संगठित और ताक़तवर कॉरपोरेट बीट का वर्षो से माफ़िया सक्रिय है। जिस तरह विधायक कमीशन लेते हैं, उसी तरह कॉरपोरेट खबरें देखने वाले पत्रकार खबर की साइज़ के हिसाब से रेट तय करते हैं। लीड स्टोरी चाहिए तो नक़दी, महंगे उपहार, विदेशी यात्राएँ । यहाँ तक कि कंपनियों के शेयर भी। नकारात्मक खबर रोकनी हो तो अलग सौदा। इन पत्रकारों की असली कमाई उनके वेतन से बीसियों गुना ज़्यादा होती है और यह रकम नीचे तक सीमित नहीं रहती, ऊपर तक बँटती है। संपादकीय मीटिंग खबर तय करने के लिए नहीं, “डैमेज कंट्रोल” और “सेटिंग” के लिए होती है। सवाल सीधा है कि इनका स्टिंग ऑपरेशन कौन करेगा?
धार्मिक और सांस्कृतिक बीट भी अब आस्था नहीं, वसूली का अड्डा बन चुकी है। मंदिर, मठ, आश्रम, धार्मिक आयोजन आदि सब कुछ दान-दक्षिणा की सूची में दर्ज है। बिना चढ़ावे के खबर छपना असंभव नहीं तो कठिन ज़रूर है। मंच पर नाम चाहिए, फोटो चाहिए, विशेष कवरेज चाहिए तो “सेवा सहयोग” अनिवार्य। आस्था को खबर नहीं, ग्राहक बना दिया गया है। कौन कैमरा उठाकर पूछेगा कि श्रद्धा के नाम पर यह सौदा कब से पत्रकारिता बन गया?
शहरों में निर्माणाधीन इमारतों के आसपास कैमरा और माइक लेकर पहुंचने वाले पत्रकार अब रोज़ का दृश्य हैं। नक्शे की खामी, पर्यावरण नियम, फायर एनओसी, सब “ब्रेकिंग” बनते हैं और फिर शुरू होती है सौदेबाज़ी। बिल्डर घबराता है, बातचीत होती है, रकम तय होती है और खबर ग़ायब। यह पत्रकारिता नहीं, खुली ब्लैकमेलिंग है। क्या इनका स्टिंग ऑपरेशन नहीं होना चाहिए? अकेले जयपुर में दर्जनों की संख्या में ऐसे पत्रकार खुले आम लूट खसोट के धंधे में सक्रिय है । क्या इनका स्टिंग ऑपरेशन पत्रकार करेंगे या विधायक ?
अब आता है फर्जी सर्कुलेशन का सबसे बड़ा घोटाला। काग़ज़ों में लाखों की प्रसार संख्या, दर्जनों संस्करण और बाज़ार में सन्नाटा। कई अख़बार ऐसे हैं जिनकी घोषित सर्कुलेशन लाखों में है, लेकिन सर्चलाइट लेकर भी पचास कॉपी नहीं मिलतीं। फिर सवाल उठता है कि ये अख़बार छपते कहाँ हैं? अगर ईमानदार स्टिंग हो तो बिजली की खपत, काग़ज़ और स्याही के बिल, प्रिंटिंग मशीनों की क्षमता, स्टाफ की वास्तविक संख्या और वितरण तंत्र, सब सामने आ जाएगा। डर इस बात का है कि ऑडिट हुआ तो पूरा झूठ ढह जाएगा। लेकिन जब हमाम में सब नंगे है तो इनका स्टिंग ऑपरेशन करेगा कौन ? यदि खोजी पत्रकारिता का किसी ने बीड़ा उठाया है तो सबसे पहले उन्हें अपने संस्थान की हेराफेरी को उजागर करने का साहस दिखाना होगा ।
सबसे बड़ा पाखंड वेतन आयोग को लेकर है । जो अख़बार सरकार से करोड़ों के विज्ञापन लेते हैं, वही अपने ही पत्रकारों को आयोग की सिफ़ारिशों के अनुसार वेतन नहीं देते। हज़ारों पत्रकार आज भी बंधुआ और दिहाड़ी मज़दूरों की तरह काम कर रहे हैं । बिना नियुक्ति पत्र, बिना सामाजिक सुरक्षा, बिना भविष्य। आवाज़ उठाई तो बाहर। सवाल सरकार से है । जब आयोग का पालन ही नहीं, तो ऐसे अख़बारों को सरकारी विज्ञापन क्यों? क्या यह जनता के पैसे से मीडिया माफ़िया को पालना नहीं है?
राजस्थान में तस्वीर और भयावह है। यहाँ शराब, बजरी और ज़मीन माफ़िया से भी बड़ा मीडिया माफ़िया खड़ा हो चुका है जो तय करता है कि कौन भ्रष्ट कहलाएगा और कौन पाक-साफ़। यह माफ़िया सत्ता का समानांतर केंद्र बन चुका है। है कोई माई का लाल जो इस व्यवस्था का स्टिंग ऑपरेशन करने की हिम्मत जुटा सके । ऐसा सोचना भी पाप नही, महापाप है । कल ही हो जाएगी संस्थान से रवानगी ।
अब सवाल टालने का वक्त खत्म हो चुका है। जब नेता पर स्टिंग जायज़ है, अफ़सर पर ज़रूरी है तो मीडिया पर स्टिंग से गुरेज क्यों? कौन करेगा कॉरपोरेट सौदों का स्टिंग? कौन करेगा धार्मिक बीट की वसूली का स्टिंग? कौन करेगा निर्माण स्थलों की सौदेबाज़ी का स्टिंग? कौन जनता के सामने बिजली बिल, काग़ज़–स्याही, मशीन क्षमता और वेतन भुगतान के दस्तावेज़ रखेगा?
यह रिपोर्ट किसी एक अख़बार या सरकार के खिलाफ़ नहीं, पूरी सड़ी हुई व्यवस्था के खिलाफ़ आरोपपत्र है। अगर पत्रकारिता को अपनी बची-खुची साख बचानी है, तो उसे दूसरों पर उंगली उठाने से पहले अपने भीतर स्टिंग करना होगा। झांकना होगा खुद के गिरहबान में । वरना इतिहास यह सवाल ज़रूर पूछेगा कि जब लोकतंत्र को सबसे ईमानदार प्रहरी चाहिए थे, तब उसके तथाकथित पहरेदार किस सौदे की मेज़ पर बैठे थे ।
एक भयावह सच्चाई यह भी
राजस्थान हाईकोर्ट के 45 हजार केस लम्बित है । इन केसों में भ्रष्टाचार का एक भी स्टिंग क्यों नहीं? राजस्थान के मीडिया हाउस? पिछले 20 सालों में किसी ने खुद की सड़न कैमरे पर क्यों नहीं उतारी? क्योंकि भ्रष्टाचार सत्ता तक नहीं रुका, राजस्थान के 'पवित्र स्तंभों' में घुस चुका। राजस्थान के टॉप 5 अखबार कागजों पर 18 लाख कॉपियां छापते हैं (राजस्थान ABC 2024), जयपुर में महज 85 हजार बिकती हैं। ये फर्जी सर्कुलेशन दिखाने वाले राजस्थान सरकार से 320 करोड़ विज्ञापन लूट रहे हैं।