प्रदेश में निकल चुकी है प्रशासन की शवयात्रा,अफसर पूर्णतया मस्त : जनता हो रही है त्रस्त
राजस्थान का प्रशासन आज जिस गहरी जड़ता में धँसा हुआ है, उसका असर इतना व्यापक है कि पूरा तंत्र जैसे लकवाग्रस्त हो गया हो। शासन की नीयत चाहे कितनी भी सक्रिय या संवेदनशील क्यों न हो, लेकिन ज़मीनी स्तर पर उसकी आत्मा मर चुकी है। आदेश जारी होते हैं, फाइलें सरकती हैं, नोटिंगें बढ़ती हैं, बैठकें होती हैं । लेकिन जनता तक न राहत पहुँचती है और न ही सिस्टम की मौजूदगी महसूस होती है।
यह ऐसा प्रशासन है जो चल तो रहा है, पर दिशा और जीवन दोनों से विहीन होकर।सबसे चौंकाने वाला उदाहरण है सरकार का वह विफल प्रयोग, जिसमें कलेक्टरों, सचिवों और मंत्रियों को जिलों में नियमित दौरे और रात्रि विश्राम करने के आदेश दिए गए थे। उद्देश्य था कि अफसर जनता के बीच जाकर सुनें, समझें, और शासन की नब्ज़ पकड़ें। लेकिन यह योजना शुरू होने से पहले ही दम तोड़ गई।
आदेश निकले, विज्ञप्तियाँ बटीं, मीटिंगें सज गईं—बस असर कहीं नहीं। अफसर अपने कमरों में लौट गए और जनता इंतज़ार करती रह गई कि शायद कभी कोई ऊपर वाला धरती पर भी उतरे। इस व्यवस्था की रीढ़, प्रशासनिक सुधार विभाग, खुद बेजान हो चुका है। यह वही विभाग है जिसे निगरानी, समीक्षा और पालन सुनिश्चित करना था । पर यही अब अकर्मण्यता का पर्याय बन गया है।
विभाग के निकम्मेपन की वजह से न नियमित समीक्षा, न पालन की जांच, न किसी अधिकारी पर कार्रवाई। जिन जिलों में महीनों से एक सचिव का नामोनिशान नहीं, वहाँ के रिपोर्ट कार्ड फिर भी “संतोषजनक” बताए जा रहे हैं। यानी जो सो रहा है, वही जागे रहने का प्रमाण दे रहा है!इस निठल्लेपन की कीमत जनता चुका रही है। गाँवों में शिकायतें सड़ रही हैं, योजनाएँ कागज़ों पर पूरी और जमीन पर अधमरी हैं और प्रशासन जनता से मिलने से जैसे डरता है।
दुखद पहलू है कि बिना फील्ड विज़िट, बिना रात्रि विश्राम, शासन की संवेदनशीलता सिर्फ रिपोर्टों की भाषा में कैद रह गई है। ये वही हालात हैं जहाँ जनता को अब यह कहना पड़ रहा है कि—राजस्थान का प्रशासन “ऑफिस में चार्ज, फील्ड में डिसचार्ज” की स्थिति में पहुँच चुका है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि जब सुधार लाने वाला ही निष्क्रियता का केंद्र बन जाए, तो सुधार की उम्मीद किससे की जाए?
प्रशासनिक सुधार विभाग आज अपने ही अस्तित्व पर सवाल बन चुका है। आदेशों का पालन न हो, बैठकें न हों, मूल्यांकन शून्य हो, और कोई जवाबदेही तय न हो तो यह विभाग आख़िर क्यों बना हुआ है? यह निष्क्रियता अब सिर्फ सुस्ती नहीं, शासन के तंत्र पर लगा एक स्थायी कलंक बन चुकी है।
अगर सरकार ने अब भी इस जड़ ढाँचे को झकझोर कर नहीं जगाया, तो आने वाले दिनों में राजस्थान का फील्ड प्रशासन लाश की तरह हो जाएगा और उसकी चिता पर आम जनता की उम्मीदें जलती दिखाई देंगी। हकीकत यह है कि इस विभाग का जिम्मा ऐसे अधिकारी दिया जाता है जिसे "ठिकाने" लगाना होता है । बाद में वही अफसर सरकार को ही "ठिकाने" लगाने के रास्ता ढूंढता है ।
पिछली गहलोत सरकार जनता की समस्याओं के प्रति उदासीन रही । नतीजतन जनता ने उसे बेरहमी के साथ बेदखल कर दिया । हालत यही रहे तो बीजेपी को भी रोने के लिए मजदूर नही मिलेंगे । सत्ता की बजाय उसे विपक्ष बैठना ही होगा ।