बानावत की विधायिका को नही है खतरा, रेवंतराम तथा जाटव का जा सकता है पद

Update: 2025-12-22 10:14 GMT

स्टिंग ऑपरेशन के जरिये सम्मान निधि राशि की बन्दर बांट के चलते बीजेपी विधायक रेवंतराम डांगा और कांग्रेस की संजना जाटव की विधायकी जाना लगभग तय माना जा रहा है । जबकि निर्दलीय ऋतु बानावत को संदेह का लाभ मिल सकता है । ऐसे में उनकी विधायिका को कम खतरा नजर आता है ।

डांगा और संजना जाटव के पास अपने बचाव में न तो कोई ठोस तर्क है और न ही कोई मजबूत आधार । वीडियो भी चीख चीख कर कह रहा है कि दोनों ने विधायक निधि जारी करने के लिए नियोजित रूप से सौदेबाजी की । जबकि ऋतु बानावत की ओर से लेनदेन के कोई पुख्ता सबूत अभी तक सामने नही आए है । जो व्यक्ति निरपराधी होता है, उसी की ओर से सीबीआई जांच की मांग की जाती है । ऋतु बानावत दहाड़ दहाड़ कर कई बार सीबीआई जांच की मांग कर चुकी है । जबकि डांगा और जाटव इस बारे में खामोश है । वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए रेवंतराम डांगा और संजना जाटव का विधायक पद छिन सकता है ।

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पूरे घटनाक्रम पर दृष्टिपात करे तो सम्मान निधि प्रकरण में ऋतु बानावत को अभियुक्त बनाए जाने का सवाल अपने-आप में गंभीर और चिंताजनक है। उपलब्ध तथ्यों को यदि साधारण और निष्पक्ष नजर से देखा जाए तो सबसे पहली बात यही सामने आती है कि न तो उनकी ओर से सम्मान निधि की राशि जारी करने के लिए किसी प्रकार की मांग की गई और न ही कोई पत्र, आदेश या सिफारिश जारी की गई। ऐसे में यह समझना कठिन हो जाता है कि अभियोग की बुनियाद आखिर किस आधार पर रखी गई।

कानून की सीधी-सादी समझ यह कहती है कि किसी को अभियुक्त बनाने के लिए यह साबित होना जरूरी होता है कि उसने स्वयं कोई गलत काम किया हो या कम से कम उस गलत काम में उसकी स्पष्ट सहमति, जानकारी या भूमिका हो। इस प्रकरण में ऐसा कोई ठोस प्रमाण सामने नहीं आता। न कोई ऑडियो, न कोई लिखित दस्तावेज, न कोई आदेश और न ही कोई ऐसा तथ्य जिससे यह कहा जा सके कि विधायक ने राशि के बदले कुछ चाहा या दबाव बनाया।

यदि किसी अन्य व्यक्ति ने अपने स्तर पर कोई बातचीत की या अनुचित मांग की, तो उसके लिए सीधे-सीधे विधायक को जिम्मेदार ठहराना न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। कानून व्यक्ति को उसके अपने कृत्य के लिए दोषी मानता है, न कि रिश्तों, पद या नाम के आधार पर। बिना यह साबित किए कि वह कार्य विधायक के निर्देश या जानकारी में हुआ, उन्हें अभियुक्त बनाना कानून की मूल भावना के खिलाफ प्रतीत होता है।


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यह मामला इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि आज के समय में आरोप लग जाना ही व्यक्ति को दोषी मान लेने जैसा माहौल बना देता है। जबकि सच्चाई यह है कि जब तक मांग और आदेश जैसे बुनियादी तथ्य साबित न हों, तब तक अभियोग केवल संदेह पर आधारित माना जाएगा, प्रमाण पर नहीं।

निष्कर्ष साफ है—जब न कोई मांग साबित है, न कोई पत्र जारी हुआ है और न ही कोई ठोस साक्ष्य है, तो ऋतु बानावत को अभियुक्त बनाना न केवल जल्दबाजी लगता है, बल्कि न्याय की कसौटी पर भी कमजोर दिखाई देता है। जांच का उद्देश्य दोषी को सजा दिलाना होना चाहिए, न कि बिना पर्याप्त आधार के किसी को कटघरे में खड़ा करना। यही न्याय और लोकतंत्र की बुनियादी अपेक्षा भी है।


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