नजरिया

कविता: राष्ट्र में व्याप्त बुराइयों से संघर्ष करना भी कहलाता है राष्ट्र प्रेम

सुजीत गुप्ता
15 Aug 2021 7:24 AM GMT
कविता: राष्ट्र में व्याप्त बुराइयों से संघर्ष करना भी कहलाता है राष्ट्र प्रेम
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उल्टे पथ पर यदि चलें तो लक्ष्य नहीं पा सकते है; बोकर बबूल का पेड़, कभी आम नहीं खा सकते हैं।


वर्षा धन की कहीं हो रही, कहीं पर सूखा ताल है;

कोई फेकता खीर पूड़ियाँ, कोई भूखा कंगाल है।

असमानता आज देश में बनती जाल जंजाल है;

जरूरतमंद खड़ा देखता , पेटू खाता माल है।

एक राष्ट्र की संतानें भेदभाव का बोझ ढो रही है।

देखकर बच्चों की हालत को भारतवर्ष है रो रहा ।

अफीम हेरोइन चरस भांग का फैल रहा व्यापार है;

सिगरेट शराब तम्बाकू से सब भरा हुआ बाजार है।

जन सामान्य या हाईप्रोफाइल बनते सभी शिकार है;

टैक्स के लालच में आकर के सरकारें लाचार है।

होकर मस्त जवानी आज दुर्व्यसनों में खो रही है।

देखकर बच्चों की हालत को भारतवर्ष विचार रहा•••

रूप रंग की चाहत में अब सारा विश्व दीवाना है ;

गंदी फिल्में वेब सीरीज का आ गया बुरा जमाना है।

छोटे - छोटे बच्चों के हाथों में अश्लील खजाना है;

अर्द्धनग्नता को परोस कर मकसद रुपये कमाना है।

जाग रही अब बेशर्मी और नैतिकता सो रही •••

देखकर बच्चों की हालत को भारतवर्ष रो रहा।

उल्टे पथ पर यदि चलें तो लक्ष्य नहीं पा सकते है;

बोकर बबूल का पेड़, कभी आम नहीं खा सकते हैं।

मूल काटकर सुख का हम समृध्दि नहीं ला सकते है;

भटकें अगर बचपन, जवानी उत्कर्ष नहीं पा सकते हैं।

वही फसल अच्छी होगी 'हित' बौद्धिक विचार जहां होगा,

सम्पूर्ण भारत बौद्धिक होगा तब, खुशहाल सारा संसार होगा।

(कवि अजय कुमार मौर्य, पी-एचडी शोधार्थी, तुलनात्मक धर्म दर्शन विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी)

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