1857 में अंग्रेजों ने और इस बार बीजेपी नहीं होने दिया ऐसा!

Update: 2016-01-30 07:56 GMT


देश के अटूट प्रेम को जिसने हमेशा हिन्दू मुस्लिम,सिख,इसाई एकता को मजबूत औऱ आगे बढ़ाने का काम किया है जिनमें कुछ खास त्यौहार औऱ खास प्रोग्राम है। जिसमें मुशायरा देश ही नहीं सरहदों के जोर को भी कमजोर कर देने वाली महफिल है। जिस तरफ मुशायरों औऱ अफसानानिगारों की महफिल सजी हो और उस तरफ तमाम सौहार्द पीठ नहीं बल्कि दिल-से-दिल मिलाकर बैठते है।


1857 में अंग्रेजों और आज बीजेपी ने
एक ऐसी ही महफिल दिल्ली के लालकिलें में मुगलों के समय से सजी आ रही थी जिसे ब्रिटिशी हुकूमत ने 1857 में अपने क्रूर बर्ताव से कुचल दिया लेकिन बाद आज़ादी उसी यासनाई और मोहब्बती करार के साथ दोबारा इसे फ़िजा में पसरे नफरतों के बीज को मोहब्बत के पैगाम में बदलने के लिए उतनी ही सिद्दत और अदब के साथ शुरू किया गया।लेकिन शायद 67वें साल में इसी महफिल को किसी की बुरी नजर लग गई। मोहब्बती महफिल को सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए नहीं सजने दिया गया।

क्यों नहीं मिली मुशायरे को मंजूरी
भारत सरकार ने इस साल गणतंत्र दिवस के मौके पर होने वाले मुशायरें को इज़ाजत नहीं दी। दिल्ली पुलिस ने सुरक्षा का हवाला देते हुए मुशायरें को नामंजूरी दी। इस पर तमाम लोगों ने सवाल खड़े किए प्रोफेसर अख्तरूल वासे ने यहां तक कह दिया कि ” सरकार बेवजह सुरक्षा कारणों को आगे रख रही है जबकि उसने जब पूरी दिल्ली की गणतंत्र दिवस पर सुरक्षा की जिम्मेदारी ली तो शायर औऱ इस महफिल में आऩे वाले लोगों की सुरक्षा जिम्मेदारी क्यों नहीं ले सकती थी।


भाजपाई अपने आदर्श बाजपेयी से सीख लें

देश में सत्ता की कमान संभाले भारतीय जनता पार्टी अगर याद करे तो उसे याद करना चाहिए अपने पार्टी के भारत रत्न अटल बिहारी बाजपेई को। जिन्होंने अपने पड़ोसी मुल्क से मधुर संबंध बनाने के लिए एक ऐसी महफिल सजायी थी। जिसमें खुद सरहद पार से लोग खिचे चले आए थे। मोहब्बत की महफिल में बातें भी बड़े अदब औऱ दोस्ताना अंदाज में हुई जिसमें शब्दों के तीर से घायल दोनों हुए। यह पूर्व प्रधानमत्री अटल बिहारी बाजपेई की दूरदर्शी राजनीतिक कूटनीतिक सोच का ही आलम था जो उन्होेंने ऐसी महफिलें सजा कर रखी ताकि देश ही नहीं बल्कि सरहद पार की लकीरें कमजोर औऱ घुंधली पड़ने लगें औऱ मोहब्बत इस तरह बंटे की सबके दिल भर जाएं।

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