युवा समाजकर्मी शर्मिष्ठा सोलंकी बोलीं, दलितों में सबसे अधिक दयनीय दशा वाल्मीकि समुदाय की है

सरकार के पास अच्छी और कारगर योजना का घोर अभाव

Update: 2021-07-28 12:05 GMT

अपने देश में आजादी के 75 सालों के बाद भी दलितों में सबसे ज्यादा दयनीय दशा वाल्मीकि समुदाय के स्त्री, पुरुष और बच्चों और बुजुर्गों की है। वे सामाजिक,आर्थिक और स्वास्थ्य की दृष्टि से घोर उपेक्षा के शिकार हैं। इस समुदाय की कई पीढ़ियां आजीविका के लिए पारम्परिक कार्य सफाई ही करने को अभिशप्त हैं। आजीविका के लिए उनके लिए कोई भी वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है। यह बात गुजरात की युवा समाज कर्मी शर्मिष्ठा सोलंकी ने स्पेशल कवरेज न्यूज से खास मुलाकात कार्यक्रम में कहीं।

एक सफाई कर्मी के परिवार में जन्मी और समाज में सफाई कर्मचारियों की स्थिति पर पी एच डी कर रहीं शर्मिष्ठा कहती हैं कि अपने समाज में चार वर्ण हैं,जिनमें ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र हैं, इनमें शूद्र को छोड़ कर सभी वर्णों के लोग अपने पारंपरिक पेशे से मुक्त हो गए हैं,लेकिन शूद्रों में खास कर वाल्मीकि समुदाय के लोग अपने पारंपरिक कार्य मतलब सफाई कार्य से कभी खुद को मुक्त नहीं कर पाए हैं। उनकी पीढ़ियां गली, मोहल्ला और शौचालय साफ करते हुए खप गईं। वे अगर किसी तरह किसी दूसरे पेशे को अपना भी लेते हैं तो जैसे ही लोग जान जाते हैं कि वे वाल्मीकि समुदाय के हैं तो इसके बाद उनका बहिष्कार होने लगता है। शर्मिष्ठा सवाल उठाती हैं कि जब सभी समुदायों में परिवर्तन हो रहा है तो उसकी लहर से उनका समुदाय ही क्यों अछूता रह गया है। उनका कहना है कि इस समुदाय के लोगों की आजीविका में बदलाव नहीं आने से वे विकास का कोई लाभ नहीं उठा पाते। वे आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं, गंदगी की सफाई करते करते वे बीमार भी होते रहते हैं। क्योंकि वे व्यसन भी करते हैं। दारू और बीड़ी की आदतें भी इसलिए घर कर जाती हैं क्योंकि वे नशे की हालत में ही सफाई करने को अभ्यस्त हो जाते हैं। और जाति व्यवस्था भी इस समुदाय के लोगों के लिए इतना क्रूर है कि उनको इंसान तक नहीं समझा जाता है। वे सामाजिक रूप से बहिष्कृत ही रहते हैं। वे कहीं और जगह टिक नहीं पाते।

शर्मिष्ठा बताती हैं कि सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर जहां भी सफाई कर्मचारियों की नियुक्ति होती हैै, वहां खास तौर से वाल्मीकि समुदाय के लोगों को ही नौकरी मिल जाती है। और इस समुदाय के लोगों की आर्थिक हालत इतनी खराब होती है कि वे यही नौकरी करने को मजबुर होते हैं, यहां अन्य जॉब की तरह प्रतिस्पर्धा भी कम होती है और उनके लिए दूसरे विकल्प भी नहीं होते हैं।

इस समुदाय के कल्याण के लिए सरकारी प्रयासों के घोर अभाव पर शर्मिष्ठा ने कहा कि इस समुदाय के लोगों की सामाजिक,राजनैतिक,आर्थिक और स्वास्थ्य की दृष्टि से कोई व्यापक अध्ययन और शोध भी नहीं होता। जबकि दूसरे अन्य विषयों पर बहुत अध्ययन और शोध होते हैं। एक बार नहीं दोबारा तिबारा होते हैं। लेकिन वाल्मीकि समुदाय के लोगों की परिस्थिति पर अध्ययन और शोध नहीं के बराबर हुआ है। शर्मिष्ठा सोलंकी कहती हैं कि सबसे दुखद है कि इस समुदायों के लोगों का सर्वे भी ठीक से नहीं होता। अगर ठीक से सर्वे और आंकड़े सरकार को उपलब्ध कराया जाएगा तो वह एक अच्छी योजना का डिजाइन कर सकती है। समाज कर्मियों को और अधिकारियों को मिल कर एक बेहतर योजना बनाई जानी चाहिए। कई सदियों से इस समुदाय के लोग वहीं के वहीं अटके पड़े है।

शर्मिष्ठा सोलंकी कहती हैं कि मेरी मां एक सफाई कर्मचारी रही हैं। बचपन से इनको देखा है कि बहुत काम करके भी उनकी हालात में बेहतरी नहीं आईं। सोलंकी कहती हैं कि बचपन में कई दिन तो हम लोग भूखे भी सो जाते थे क्योंकि कहीं से ना अनाज मिलता था और उसे खरीदने के लिए भी पैसे नहीं होते थे। सामाजिक तिरस्कार तो होता ही था। इन्हीं परिस्थितियों में मैंने अपनी पढ़ाई जारी रखने की कोशिश की। बीच में एकाध बार पढ़ाई छूट भी गई थी। लेकिन मेरे मन में वाल्मीकि समुदायों की हालत को देख कर कई सवाल उठते रहते थे। इन्हीं सवालों ने मुझे ऊंची शिक्षा हासिल करने के लिए बाध्य कर दिया। वह कहती हैं कि मैंने पी एच डी का कार्य सफाई कर्मचारियों की हालात पर शुरू किया तो कइयों ने कहा कि इस विषय पर शोध करने में काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा क्योंकि इस विषय पर पहले से कोई डाटा और दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं। चुनौतियां से डरना नहीं है। मुझे वाल्मीकि समुदाय के हित में इस विषय पर ही शोध करना सही लगा।

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