बस ज़रा और कांग्रेस होने की जरूरत है

Update: 2021-10-18 03:24 GMT

शकील अख्तर

कांग्रेस के लिए काम करने वाले बहुत लोग हैं। अपने अपने तरीके से ये लोग उस विचार के लिए जिसे आइडिया आफ इंडिया कहते हैं काम करते रहते हैं। कभी पृष्ठभूमि में, कभी खतरे उठाकर और कभी आलोचनाओं का केन्द्र बनकर भी। मगर हिम्मत नहीं हारते। इस समय वे उत्साह में हैं। कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक जिसे बहुत कामयाब माना जा रहा है के बाद एक खास शख्सियत ने बहुत पते की बात कही। कहा कि कांग्रेस वापस लौट रही है। बस ज़रा और कांग्रेस होने की जरूरत है!

इस ज़रा और में ही भारत की और कांग्रेस की सारी शक्ति छुपी हुई है। भारत किसका है? कांग्रेस किसकी है? जैसा कि राहुल ने सीडब्ल्यूसी में कहा कि गरीबों, वंचितों, शोषितों, दलितों, महिलाओं की। हर उस कमजोर की कांग्रेस है, जिसका कोई नहीं है। आइडिया आफ इंडिया भी क्या इससे अलग है? आइडिया आफ इंडिया यानि भारत का संविधान। जो शुरू होता है हम भारत के लोग से! कौन हैं हम भारत के लोग? वही जिनके लिए राहुल ने सीडब्ल्यूसी में कहा कि मैं इन्हें राज दिलाना चाहता हूं। ताकि इन पर जुल्म न किया जा सके। इसीलिए हमने पंजाब में एक दलित को मुख्यमंत्री बनाया। हम चाहते हैं कि दलित, पीड़ित, वंचित समाज का राज आए। ताकि कोई उनकी बहन बेटी की तरफ आंख उठाकर देखने की हिम्मत भी नहीं करे। राहुल ने कहा कि इसीलिए मुझे आपका साथ चाहिए।

और यही वह भावना और आकांक्षा जरा और कांग्रेस में है। कांग्रेस मतलब भी वही है। जो उसके संविधान के पहले पेज पर ही लिखा है कि " भारत में समाजवादी राज कायम करना। " क्या है समाजवादी राज? इसे भी स्पष्ट किया गया है कि वह राज्य जिसमें अवसरों की, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की समानता हो। राहुल ने खुद को अध्यक्ष बनाने की मांग पर यही कहा कि मुझे विचारों में स्पष्टता चाहिए। किससे कहा? उन्हीं कांग्रेस के लोगों से जो उनसे अपील कर रहे थे कि अध्यक्ष बन जाइए। तो राहुल उनसे यही स्पष्टता चाहते हैं कि भारत किसका? कांग्रेस किसकी? क्या अंबानी अडानी की? या भारत के लोगों की? जिनके लिए कांग्रेस समान अधिकारों की बात करती है।

शनिवार को हुई कांग्रेस वर्किंग कमेटी की मीटिंग कई मायनों में ऐतिहासिक रही। एक और दोस्त, लेखक जिन्होंने लिखा कि " देखने हम भी गए पे तमाशा न हुआ! " की तरह। मीडिया को लगता था कि सोनिया, राहुल के धुर्रे उड़ेंगे। गालिब के उड़ेगें पुर्ज्रे की तरह। मगर मीडिया का मुंह इस तरह बंद हुआ कि दो दिन से बक् भी नहीं निकल रही। जी 23 तो कहां बिला गया पता ही नहीं है। मीटिंग में जो उसके सबसे सीनियर सदस्य थे गुलामनबी आजाद और आनंद शर्मा वे सोनिया की इस बात का कोई प्रतिवाद नहीं कर सके कि मैं ही अध्यक्ष हूं। पूर्णकालिक, काम करती हुई।

कैसा बेहूदा सवाल था कि फैसले कौन लेता है। मगर शांत और संयत रहते हुए सोनिया गांधी ने इसका भी जवाब दिया कि फैसले मैं लेती हूं। और उन्होंने यह बात कही नहीं। बहुत बड़प्पन और भारीपन हैं उनमें। मगर सभाकक्ष में यह ध्वनि अपने आप गूंज रही थी कि सोनिया जी ने ही यह फैसला लिया था कि आप राहुल के साथ लखीमपुर मामले में राष्ट्रपति से मिलने जाएंगे। और इन कमेटियों में रहेंगे। चिट्ठी लिखने के बाद करीब एक साल हो रहा है। मगर सोनिया ने इस दौरान कभी डिस्क्रिमेशन नहीं किया। कोई सवाल नहीं किया। तब भी नहीं जब जम्मू में बागी सम्मेलन कर लिया। प्रधानमंत्री मोदी की प्रशंसा के गीत गा लिए। बस धीरे से इतना ही कहा कि मीडिया के जरिए बात न करें। कौन सी पार्टी है ऐसी जो अपने आन्तरिक मामलों में मीडिया के जरिए बात करने वाले नेताओं को इतने लंबे समय तक बर्दाश्त करती हो?

यह तो मोदी और अमित शाह का राज है। आडवानी और वाजपेयी ने उमा भारती जैसी नेता को पार्टी से निकाल दिया था। उमा भारती से लाख राजनीतिक विचारों के मतभेद हों। मगर उन जैसा जमीन से उठकर शिखर तक राजनीति में इन जी 23 में कौन सा नेता आया है? अपने अकेले की दम पर 2003 में मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार पलट दी थी। इनमें से कोई इतनी मेहनत कर सकता है? कभी करके दिखाई? कोई एक चुनाव अपनी दम पर निकाला? सवाल तीखे हैं। चुभेंगे। मगर शुरूआत इन्होंने ही की। और शायद अकेले में मानते हों कि कभी सोनिया, राहुल, या प्रियंका ने उनकी इज्जत में कमी नहीं आने दी। तब भी चुप रहे जब अपने अलावा सबको जी हुजूर बता दिया। बहुत ही भड़काने वाला बयान था। मतलब जो कांग्रेस अध्यक्ष का समर्थक है वह जी हुजूर। और बाकी जी 23 प्लस! कहां हैं अब प्लस? यहां तो 23 में ही माइनस माइनस दिख रहे हैं। लोग तो 2- 3 कहने लगे। वह 2- 3 भी कौन हैं। उनके नाम भी पता नहीं। शनिवार से तो एक भी नहीं बोला। मीडिया फोन पर फोन कर रहा है। कैमरे लेकर दरवाजे तक पहुंच गया। बिना कैमरा आने की परमिशन मांगी। मगर कोई नहीं मिलता।

राजनीति में एक साहसिक फैसला सारी बिसात पलट देता है। सारी चालाकियां धरी रह जाती हैं। वह तो ठीक है, धर्मराज को हारते दिखाना था। संदेश था। लेकिन अगर अर्जुन गांडीव लेकर खड़े हो जाते तो? पांसे कहीं दिखते? शकुनी मामा से लेकर दुर्योधन किसी की हिम्मत होती की चौपड़ पर बैठा रह जाता?

प्रियंका ने हिम्मत की। रात को ही लखीमपुर की तरफ चल दीं। गिरफ्तार हुईं तो कह दिया कि चाहे जितने दिन रख लो, मिले बिना वापस नहीं जाऊंगी। यहां से राहुल रवाना हो गए। बाकी सब इतिहास है। लेकिन अगर प्रियंका और राहुल की यह जीत नहीं होती तो क्या जी 23 ऐसे खामोश रहती? और सबसे बड़ी बात जो ज्यादातर लोग फेंस पर बैठे थे कि देखें क्या होता है। राहुल या जी 23 में से कौन भारी पड़ता है। उन्हें अगर यूपी में प्रियंका और राहुल की बड़ी होती तस्वीर नहीं दिखती तो क्या इस तरफ आते! सीडब्ल्यूसी में समवेत स्वर में चिल्लाlते राहुल, राहुल!

पंजाब में अमरिन्द्र सिंह को हटाना राहुल का बड़े हौसले का काम था। सारे विधायक, कार्यकर्ता उनसे नाराज थे। किसी की परवाह नहीं करते थे। मगर रुतबा ऐसा था कि कोई सोच भी नहीं सकता था कि महाराजा को हटाया भी जा सकता है। राहुल ने न केवल उनको हटाया बल्कि एक दलित को महाराजा की जगह बिठा दिया। यह क्रान्ति थी। भाजपा से लेकर मायावती, अकाली तो सब हिले ही कांग्रेस में भी भूकंप आ गया।

और इसके बाद लखीमपुर। सरकार द्वारा रोकने की हर कोशिश के बाद भी प्रियंका और राहुल लखीमपुर पहुंच गए। प्रियंका की बनारस की रैली में भीड़ उमड़ पड़ी। इसके बाद जी 23 के ओसान ढीले पड़ गए। यही "जरा सा और कांग्रेस हो जाना" है। आउट आफ बाक्स जाकर सोचना और करना। जब भारत में उच्च शिक्षा की कोई मांग, कान्सेप्ट नहीं था। तब नेहरू ने आईआईटी, आईआईएम, एम्स बनाए। इन्दिरा गांधी ने सेठों के हाथ से लेकर बैंकों के दरवाजे गरीबों के लिए खोल दिए। कृषि रिण से लेकर बेरोजगार युवाओं और छोटे दूकानदारों को आसान शर्तों पर सब्सिडी के साथ कर्ज दिए। आज तो बड़े बड़े लोग कर्ज लेकर भाग गए। मगर तब हर गरीब, छोटे व्यापारी, युवा ने अपनी किस्तें दीं। कर्ज चुकाया। शायद यही जरा सा और कांग्रेस हो जाना है। इसी में सब समाहित है। गरीब की तरफ झुकना, स्टूडेंटों के लिए उच्च शिक्षा की व्यवस्था करना, सबको समान अवसर देना, दलित को मुख्यमंत्री बना देना, किसानों के लिए लखीमपुर पहुंच जाना सब। शायद जरा सा और मदद के लिए हाथ बढ़ा देना!

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