सरकार मौन तो फिर सुनेगा कौन? सरकारी व निजी डॉक्टर चला रहे है मरीज के दिल पर बुलडोजर : अस्पताल बन गए जेब काटने की दुकान
Govt and private doctors are running bulldozers on the hearts of patients: Hospitals have become pickpocketing shops;
महेश झालानी, वरिष्ठ पत्रकार
राजस्थान की चिकित्सा व्यवस्था एक खतरनाक मोड़ पर पहुंच चुकी है। डॉक्टर, जिन पर आमजन अपने जीवन की रक्षा की उम्मीद लगाए बैठा होता है, अब उन्हीं की सेहत और जेब दोनों पर हमला कर रहे हैं। यह हमला दोतरफा है । एक ओर निजी अस्पतालों की सुनियोजित लूट और दूसरी ओर सरकारी डॉक्टरों की घर बैठे दुकानदारी। मरीज अब अस्पताल में इलाज नहीं, बल्कि एक सुनियोजित शोषण का शिकार बन रहा है।
निजी अस्पतालों में आजकल इलाज कम और बिलिंग ज़्यादा होती है। मामूली बुखार या सिरदर्द को भी गंभीर रूप देकर मरीज को तरह-तरह की जांचों में उलझा दिया जाता है। CRP, HRCT, LFT, KFT, MRI और CT स्कैन जैसी दर्जनों जांचें करवाने के लिए विवश जाता है। डॉक्टर यह सब मरीज की भलाई के लिए नहीं, बल्कि अपने कमीशन के लिए करते हैं। जांच कराने वाले केंद्र और डॉक्टरों के बीच बारीकी से सेटिंग होती है, जिससे हर टेस्ट के बदले डॉक्टर को मोटा कमीशन मिलता है।
यही नहीं, दवाओं का खेल तो और भी बड़ा है। कंपनियों से गिफ्ट और प्रॉफिट के बदले डॉक्टर वही दवाएं लिखते हैं जो अत्यधिक महंगी होती हैं । जबकि बाजार में उन्हीं फार्मूलों की सस्ती जेनेरिक दवाएं उपलब्ध हैं। मरीज को बताया जाता है कि बाहर की दवाएं असर नहीं करेंगी । जबकि हकीकत यह है कि डॉक्टर अपनी जेब भरने के लिए ही महंगी दवाएं लिखकर मरीजों की जेब पर बेरहमी से डाका डाल रहे है ।
सबसे दुखद पहलू तब सामने आता है जब एक मरीज की मौत के बावजूद उसे वेंटिलेटर पर रखकर उसके परिजनों से लाखों रुपये वसूले जाते हैं। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इस तथ्य को उजागर करते हुए कहा था कि "मौत के बाद भी मरीज को वेंटिलेटर पर रखा जाता है ताकि मोटी रकम वसूली जा सके।" यह कथन एक नेता का राजनीतिक बयान नहीं, बल्कि एक क्रूर हकीकत की ओर इशारा है।
उधर, सरकारी अस्पतालों की स्थिति भी कम भयावह नहीं है। यहां डॉक्टर केवल औपचारिकता निभाने आते हैं । कभी दो घंटे, कभी उससे भी कम। असली खेल उनके घरों पर चलता है, जहां उन्होंने खुद के मेडिकल स्टोर और क्लीनिक खोल रखे हैं। मरीजों को अस्पताल में देखकर घर बुलाया जाता है और वहीं पर न केवल फीस वसूली जाती है, बल्कि दवाएं भी बेची जाती हैं । वह भी डॉक्टर द्वारा खुद के नाम पर बनवाए गए ब्रांड की।
यह दवाएं न तो किसी बड़े फार्मा ग्रुप की होती हैं, न इनकी गुणवत्ता की कोई गारंटी होती है। महज़ 3 से 5 रुपये में बनने वाली दवाएं 50 से 100 रुपये में मरीज को थमाई जाती हैं। मरीज को बताया जाता है कि बाहर से दवा लाओगे तो असर नहीं करेगी, जबकि डॉक्टर की मंशा सिर्फ अपने ब्रांड की बिक्री होती है।
इस पूरे खेल पर राज्य का ड्रग विभाग पूरी तरह मौन है। न तो किसी सरकारी डॉक्टर के मेडिकल स्टोर पर छापा पड़ता है, न ही उनके ब्रांडेड उत्पादों की कोई निगरानी होती है। यह चुप्पी कई सवाल खड़े करती है ।क्या विभाग जानबूझकर आंखें मूंदे बैठा है? क्या इसमें ऊपरी मिलीभगत है? सरकार को नकारा अधिकारियों को हटाकर नई पहल करनी चाहिए । वरना मेरे जैसे पत्रकार लिखते रहेंगे और मरीज को लूटने वाला माफिया अनवरत अपना धंधा बेखौफ होकर करता रहेगा ।
वहीं दूसरी ओर, सरकार की चिरंजीवी योजना और आरजीएचएस (RGHS) जैसी स्वास्थ्य योजनाएं भी अब सिर्फ दस्तावेजों तक सीमित रह गई हैं। ये योजनाएं गरीबों और कर्मचारियों को राहत देने के लिए शुरू की गई थीं, लेकिन निजी अस्पताल और डॉक्टर इनका दुरुपयोग कर रहे हैं। ब्रांडेड दवाएं लिखी जाती हैं और उनका भुगतान भी सरकारी फंड से ले लिया जाता है, जबकि नीति के अनुसार केवल जेनेरिक दवाओं का भुगतान किया जाना चाहिए।
इस सबके बीच चिकित्सा मंत्री गजेंद्र सिंह खींवसर और शासन सचिव की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। क्या उन्हें इस लूट की जानकारी नहीं है? क्या वे जानबूझकर चुप हैं? अब तक किसी भी बड़े डॉक्टर या अस्पताल के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई सामने नहीं आई है। राज्य की चिकित्सा व्यवस्था आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहां डॉक्टर मरीज के जीवन रक्षक नहीं, बल्कि जेब काटने वाले व्यापारी बन चुके हैं। अगर सरकार ने समय रहते इस पर सख्त कार्रवाई नहीं की, तो आमजन की सेहत से खिलवाड़ और उसकी आर्थिक लूट दोनों एक भयंकर महामारी का रूप ले लेंगा ।
नोट : कृपया जनहित के लिए तैयार इस रिपोर्ट पर ज्यादा से ज्यादा अपनी प्रतिक्रिया दे ताकि गूंगी, बहरी और अंधी सरकार को जगाया जा सके ।