राजू ने ना कभी बॉडी शेमिंग की और ना फूहड़ता...

Update: 2022-09-21 13:28 GMT

संजय श्रीवास्तव 

लखनऊ में हमारे मित्र रहते हैं, जो गीतकार हैं. 90 के दशक में मुंबई की फिल्मी दुनिया में संघर्ष कर रहे थे. खुद पत्रकार थे लेकिन साल में कई बार संभावनाएं तलाशने मुंबई जाते रहते थे. वह अक्सर मुंबई जाकर राजू श्रीवास्तव के घर ठहरते या फिर उनसे मुलाकात जरूर करते. तब तक राजू की जिंदगी पटरी पर आने लगी थी.90 के दशक के शुरू में मुंबई आने के बाद जब उन्होंने स्टैंडअप कॉमेडी शुरू की तो उन्हें आसानी से स्वीकार नहीं किया गया. कहीं ठेठ यूपी कस्बाई अंदाज पर तो कभी चेहरे - मोहरे को लेकर.

अब वो गीतकार मित्र भी कई फिल्मों के लिए गीत लिख चुके हैं. जगह बना चुके हैं. नाम है वीरेंद्र वत्स. राजू श्रीवास्तव का नाम तो हम सभी 90 के दशक में सुन चुके थे. वह हर बार मुंबई से लौटने के बाद जिस तरह उनकी चर्चा करते, उससे हम उनके बारे में काफी कुछ जानने लगे थे. उनके खासे संघर्ष वाली कहानियां भी हमने सुनीं. फाकेमस्ती वाले शुरुआती स्ट्रगल के बारे में जाना. हालांकि ये संघर्ष रंग लाने लगा और लोग उनकी प्रतिभा के कायल होने लगे.

राजू श्रीवास्तव निम्नवर्गीय कायस्थ परिवार से ताल्लुक रखते थे. परिवार कानपुर का रहने वाला. पिता रमेश चंद्र श्रीवास्तव उन्नाव कचहरी में मुलाजिम. पिता बलई काका के नाम से कविताएं भी लिखते थे. लिहाजा जब बेटे ने कॉमेडियन बनने के लिए मुंबई जाने का फैसला किया तो पिता ने जाने दिया. शुरुआती सालों में सपोर्ट भी किया. कहना चाहिए राजू ने तमाम मुश्किलों के बाद 90 के दशक के आखिर तक पहचान तो बना ली.

उन्हें प्रोग्राम मिलने लगे. स्टेज प्रोग्राम्स में बुलावा आने लगा. इतना कमाने लगे थे कि मुंबई में अंधेरी में छोटा फ्लैट खरीद चुके थे. जो तब के हिसाब से बड़ी बात थी. वह खुद कानपुर के थे. ससुराल लखनऊ की. लिहाजा मुंबई में इन दो शहरों के लोगों के लिए हमेशा दिल से उपलब्ध रहते थे. जो मदद कर पाते थे, वो करते थे. दोस्तों के कहने पर कभी मुफ्त तो कभी बहुत कम पैसों में शो भी किये.

वह बहुत क्रिएटिव थे. चाहे आप जितने तनाव में हों लेकिन अगर उनके पास कुछ देर बैठ लें तो सारा तनाव गायब हो जाता था. तनाव में भी हंसाने की कला उन्हें बखूबी आती थी. साधारण बातों में एंगल तलाशना, उसे हास्य में पिरोकर विशेष और ठेठ देसी अंदाज में पेश करना उनकी ऐसी खूबी थी, जो उन्हें दूसरे स्टैंडअप कॉमेडियन से अलग करती थी.

साफसुथरी स्टैंडअप कामेडी, हंसाते-हंसाते और पेट पकड़कर लोगों को हंसाने के बाद भी वह अपनी कॉमेडी में सामाजिक सुधार के संदेश छोड़ते थे. चाहे रेलवे प्लेटफॉर्म हो या फिर शादी में खाने की थाली या फिर बस में सफर या फिर गांव का जीवन-हर जगह उनकी नजर गई और हर जगह से उन्होंने कॉमेडी निकाली, हर जगह की विद्रूपताओं को उन्होंने हास्य की मार से मारा.

जब वह 90 के दशक में कॉमेडी में आए तब फिल्मी दुनिया में कॉमेडियन तो थे लेकिन कॉमेडी का स्कोप स्टेज पर होते हुए भी बहुत कमाऊ नहीं था. बहुत सम्मानजनक भी नहीं था. घरबार छोड़कर मुंबई एक सपना लेकर चले आना. फिर उसे खुद गढ़ना आसान नहीं था. आज जो स्टैंडअप की दुनिया में तमाम सितारे नजर आते हैं, युवाओं के लिए ये मनपसंद फील्ड बन चुका है, उसके लिए काफी हद तक क्रिएटिव कॉमेडी करने वाले राजू श्रीवास्तव का शुक्रिया अदा करना चाहिए.

वह कॉमडियन बने कैसे. आखिर कब उन्हें महसूस हुआ कि वो ऐसा कर सकते हैं या इसमें भी करियर बना सकते हैं - इसका अंदाज उन्हें स्कूल से कॉलेज आते आते होने लगा था. पहले वह स्कूल में अपने टीचर्स की नकल उतारते और मिमिक्री करते और कॉलेज में पहुंचते तक इसमें माहिर हो चुके थे. लड़के गोलबंद होकर उन्हें खड़ा कर देते. फिर मजा लेते रहते. इसी जमाने में उन्होंने टीचर्स के अलावा अमिताभ बच्चन और नेताओं की मिमिक्री करनी शुरू कर दी थी. अमिताभ उनके पहले आदर्श भी थे.

उनके साथी उनसे कहने लगे थे कि यार तुम तो बहुत अच्छी कॉमेडी करते हो, क्यों नहीं इसी को अपना करियर बनाते हो. राजू श्रीवास्तव को भी लगने लगा कि हां ये कला तो उनके अंदर है, वो इसमें कुछ कर सकते हैं. हिम्मत का काम तो था लेकिन उन्होंने ठान लिया कि कॉमेडी ही करते हैं. घर में जब कहा होगा तो निश्चित तौर पर उस जमाने में किसी पिता के लिए इसकी इजाजत देना आसान तो नहीं रहा होगा लेकिन जब पिता खुद कविता लिखते हों और क्रिएटीविटी का मतलब समझते हों तो उन्होंने मान ही लिया होगा. पिता को भी भरोसा हो गया होगा कि उनका बेटा जो कह रहा है, वो कर दिखाएगा.

तो ये कहना चाहिए जब वह संघर्ष कर रहे थे तो उनके पास परिवार और दोस्तों के तौर पर काफी तादाद में शुभचिंतकों की ऐसी पलटन भी थी, जो हमेशा उनका हौसला बढ़ाती रहती थी. हालांकि 90 के दशक के बाद राजू श्रीवास्तव ने अपनी कॉमेडी को भी काफी इंप्रुवाइज किया. उसे एक अलग लेवल पर ले गए. असल में वह कॉमेडी के शंहशाह बने "द ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैंलेंज" टीवी शो के बाद.

इस कॉमेडी के पहले सीजन में उन्होंने गजोधर काका के जिस कैरेक्टर को अपनी कॉमेडी के पिटारे से निकाला तो वह सुपरहिट हो गया. गजोधर काका यूपी के गांव से मुंबई में नौकरी करने जाते हैं और उनके पास फिल्मी दुनिया के सितारों से लेकर इस नगरी के बारे में अपने हास्यबोध अंदाज में कहने को बहुत कुछ ऐसा है, जो कौतुहल भी पैदा करता है और हंसाता भी है.

"द ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज" में तब शेखर सुमन और नवजोत सिंह सिद्धू उसके जज थे. दोनों राजू श्रीवास्तव की कॉमेडी पर हंसते भी थे और बहुत दाद भी देते थे. देखते देखते दूसरे सभी प्रतियोगियों को पछाड़कर वह फाइनल तक पहुंचे. सेंकेंड रनरअप बने. इसके बाद राजू श्रीवास्तव का सिक्का जो हवा में उछला तो फिर उछलता ही रहा. वह वाकई कॉमेडी स्टार बन गए. उनकी दुनिया बदलने लगी. उनके अच्छे दिन आ गए. उन्हें एक एक शो के लिए लाखों रुपए मिलने लगे.

इसके बाद भी राजू श्रीवास्तव ने कभी जमीन नहीं छोड़ी. सादगी नहीं छोड़ी. जमीन से जुड़ी अपनी कॉमेडी नहीं छोड़ी. हालांकि उनकी कॉमेडी का तड़का तब खूब लगता था जबकि वह नेताओं की नकल उतारते हुए उनकी कॉमेडी करते थे. एक बार जब वह लालू यादव के सामने 08 मिनट तक उनकी नकल उतार कर कामेडी करते रहे तो पूरा हाल पेट दबाकर लहालोट हो रहा था. लालू खुद हंस रहे थे. उन्हें खुद शाबासी भी दी.

सबसे बड़ी बात जो उनकी कॉमेडी को दूसरों से अलग करती है, वो ये है कि उन्होंने कभी बॉडीशेमिंग वाली कॉमेडी नहीं की, कभी अश्लीलता नहीं की और कभी फूहड़ नहीं हुए. जिसे तकरीबन आजकल हर कॉमेडियन अपना हथियार बना रहा है. राजू श्रीवास्तव भौतिक तौर पर तो गए हैं लेकिन उनकी सारी कॉमेडी हर ओर बिखरी हुई है और हमेशा हंसाती रहेगी. 

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