कठघरे में न्यायपालिका और नए प्रधान न्यायाधीश का आगमन

Update: 2018-10-05 06:26 GMT

अनिल जैन

भारत के 46वें प्रधान न्यायाधीश के रूप में जस्टिस रंजन गोगोई ने ऐसे समय में देश की सर्वोच्च अदालत के मुखिया का पदभार संभाला है, जब हमारी समूची न्याय व्यवस्था पर संदेह के बादल मंडरा रहे हैं, उस पर तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं। खुद जस्टिस गोगोई भी सवाल उठाने वालों में शामिल रहे हैं। उन्होंने कुछ महीनों पहले (जनवरी 2018 में) सुप्रीम कोर्ट के अपने तीन अन्य साथी जजों के साथ मिलकर ऐतिहासिक कदम उठाते हुए प्रेस कांफ्रेन्स के जरिये न्यायपालिका से जुडे व्यवस्थागत बुनियादी सवाल उठाए थे। उन्होंने प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्र पर स्थापित व्यवस्था को तोडने-मरोडने का आरोप लगाते हुए देश को बताया था कि सर्वोच्च अदालत में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। यह बताते हुए चारों जजों ने आगाह किया था कि अगर यही स्थिति जारी रही तो देश में लोकतंत्र जीवित नहीं बचेगा।

जस्टिस गोगोई सहित चारों जजों ने प्रधान न्यायाधीश की कार्यशैली पर सवाल उठाए थे लेकिन उनकी मंशा पर कुछ नहीं कहा था। सरकार को लेकर भी चारों में से किसी जज ने कोई टिप्पणी नहीं की थी। इसके बावजूद सरकार के मंत्रियों और सत्तारुढ दल के प्रवक्ताओं और समर्थक वकीलों ने इन जजों के बयान पर जिस तरह आक्रामकता के साथ प्रतिक्रिया जताई थी और प्रधान न्यायाधीश का बचाव किया था, वह न्यायपालिका की पूरी कलंक-कथा को समझने के लिए पर्याप्त है।

दरअसल, चारों वरिष्ठ जजों ने न्यायपालिका की जिस स्थिति को लेकर चिंता जताई थी, उस स्थिति का निर्माण कोई नया नहीं है। निचली अदालतों को छोड भी दें तो देश के विभिन्न हाई कोर्टों में ऐसी स्थिति बहुत पहले से चली आ रही है, जो न्यायपालिका में आम आदमी के भरोसे को तोडती है। बीते दशकों में इन हाई कोर्टों ने कई ऐसे फैसले सुनाए हैं, जिन्हें किसी भी तरह से कानून या न्याय सम्मत नहीं कहा जा सकता।

पिछली शताब्दी के अस्सी के दशक की बात है- मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए इंदौर नगर निगम के छह इंजीनियरों को भ्रष्टाचार के आरोप में निलंबित कर उन्हें गिरफ्तार करने का आदेश दिया था। सभी छह इंजीनियर जेल में थे। उनकी जमानत के आवेदन पर कई दिनों तक सुनवाई चली। सुनवाई के दौरान उन इंजीनियरों को अदालत लाया जाता था। सुनवाई करने वाली पीठ के दोनों जजों ने दो सप्ताह से भी ज्यादा समय तक चली सुनवाई के दौरान महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ टैगोर, कीट्स, वर्ड्सवर्थ, शेक्सपियर, मार्क ट्वेन, वॉल्टेयर आदि दुनियाभर के तमाम साहित्यकारों, दार्शनिकों, विचारकों के उद्धरणों के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रवचन देते हुए आरोपी इंजीनियरों को खूब खरी-खोटी सुनाई। स्थानीय अखबारों में इस मामले की खबरों को खूब जगह मिली। दोनों जजों ने भी खूब वाहवाही बटोरी। दिलचस्प अंदाज में मामले का दुखांत यह हुआ कि दोनों जजों ने अपनी सेवानिवृत्ति के चंद दिनों पहले मुकदमे का निपटारा करते हुए सभी आरोपी इंजीनियरों को 'ठोस सबूतों के अभाव में' बरी कर दिया तथा सरकार की जांच एजेंसी को जमकर लताडा। सभी छह इंजीनियरों की सेवाएं फिर से बहाल हो गईं और वे एक फिर पहले की तरह सीना तानकर 'लोकसेवा' में जुट गए। अदालत के फैसले पर कौन उठाता सवाल? उठाता तो अवमानना का मामला बन जाता।

हमारी न्यायपालिका की संदेहास्पद कार्यशैली की यह बानगी तीन दशक से भी ज्यादा पुरानी हो चुकी है लेकिन भारतीय न्याय व्यवस्था की स्थिति में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आया है। बल्कि यूं कहे कि हालात और ज्यादा संगीन होते गए हैं। इस सिलसिले में ताजा और पुख्ता प्रमाण सुप्रीम कोर्ट के चार जजों द्वारा उठाए गए सवालों को माना जा सकता है। हालांकि अदालतों में होने वाली गडबडियों को लेकर सर्वोच्च अदालत के भीतर से ही पहले भी मामलों की सुनवाई के दौरान आवाजें उठती रही हैं और पीठासीन जजों ने अपनी मातहत अदालतों को कई बार फटकार भी लगाई है। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट के भी कई फैसलों पर सुप्रीम कोर्ट के ही कई पूर्व न्यायाधीशों ने गंभीर सवाल उठाए हैं, लेकिन आजाद भारत में यह पहला मौका था जब सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने अप्रत्याशित रूप से मीडिया के माध्यम से देश से मुखातिब होकर सुप्रीम कोर्ट के मुखिया को ही सवालों के कठघरे में खडा करते हुए देश के लोकतंत्र को खतरे में बताया था।

ऐसे समय में जब भ्रष्टाचार का कैंसर हमारे सामाजिक-सार्वजनिक जीवन की रग-रग में फैल चुका हो, जिसके कारण सहज नागरिक-जीवन बिताना बेहद मुश्किल हो गया हो और हमारी समूची शासन व्यवस्था की वैधता सवालों के घेरे में हो, तब आम आदमी के लिए न्यायपालिका ही एक ऐसी संस्था हो सकती है, जो उसकी आहत उम्मीदों का सहारा बन सके। लेकिन हमारा राष्ट्रीय दुर्भाग्य है कि उम्मीदों का यह सहारा भी भ्रष्टाचार की इस बीमारी से नहीं बच पाया है। हालात की इसी गंभीरता को भांपते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 26 नवंबर 2010 को इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक फैसले के खिलाफ सुनवाई करते हुए कुछ जजों की ईमानदारी और नीयत पर बेहद मुखर अंदाज में सीधे-सीधे सवाल उठाते हुए काफी तल्ख टिप्पणियां की थीं।

सुप्रीम कोर्ट ने देश के इस सबसे बडे हाई कोर्ट से निकलने वाली भ्रष्टाचार की सडांध पर आग बबूला होते हुए कहा था, 'शेक्सपियर ने अपने मशहूर नाटक 'हेमलेट' में कहा है कि डेनमार्क राज्य मे कुछ सडा हुआ है। यही बात इलाहाबाद हाई कोर्ट के बारे में भी कही जा सकती है। यहां के कुछ जज 'अंकल जज सिंड्रोम' से पीडित हैं।' सुप्रीम कोर्ट के इस आक्रोश की वजह यह थी कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाते हुए बहराइच के वक्फ बोर्ड के खिलाफ एक सर्कस कंपनी के मालिक के पक्ष में एक अनुचित आदेश पारित कर दिया था, जबकि यह मामला इस हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ के अंतर्गत आता था। इस मामले के पहले से भी इलाहाबाद हाई कोर्ट के बारे में सुप्रीम कोर्ट के पास कई गंभीर शिकायतें थीं, जिनको लेकर उसने अपना आक्रोश जाहिर करने में कोई कोताही नहीं की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था- 'इस हाई कोर्ट के कई जजों के बेटे और रिश्तेदार वहीं वकालत कर रहे हैं और वकालत शुरू करने के कुछ ही वर्षों के भीतर वे करोडपति हो गए हैं, उनके आलीशान मकान बन गए हैं, उनके पास लकदक गाडियां आ गईं हैं और वे ऐश-ओ-आराम की जिंदगी जी रहे हैं।'

सुप्रीम कोर्ट की इन्हीं टिप्पणियों से आहत इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपनी छवि और गरिमा की दुहाई देते हुए एक समीक्षा याचिका दायर कर सुप्रीम कोर्ट से इन टिप्पणियों को हटाने की गुजारिश की थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 10 दिसंबर 2010 को न सिर्फ इस याचिका को निर्ममतापूर्वक ठुकरा दिया था, बल्कि उसने और ज्यादा तल्ख अंदाज मे कहा था- 'देश की जनता बुद्धिमान है, वह सब जानती है कि कौन जज भ्रष्ट है और कौन ईमानदार।' अपनी पूर्व में की गई टिप्पणियों को हटाने से इनकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह भी साफ कर दिया था कि उसकी ये टिप्पणियां सभी जजों पर लागू नहीं होती हैं, क्योंकि इस हाई कोर्ट के कई जज काफी अच्छे हैं, जो अपनी ईमानदारी व निष्ठा के जरिये इलाहाबाद हाई कोर्ट का झंडा ऊंचा किए हुए हैं। सुप्रीम कोर्ट यह भी कहा था कि इलाहाबाद हाई कोर्ट को उसकी टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया जताने के बजाय आत्म-चिंतन करना चाहिए।

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