केले की खेती बाराबंकी किसानों के लिए बनी बरदान, आप भी कर सकते है केले की खेती

अतः अगले वर्ष मई माह तक निकली हुई पुत्तियों को सावधानीपूर्वक निकाल कर क्यारियों में लगाते रहना चाहिए जिन्हें नये बाग में रोपण हेतु उपयोग करना चाहिए।

Update: 2020-06-02 13:49 GMT

केला भारतवर्ष का प्राचीनतम, अति स्वादिष्ट तथा पौष्टिक फल है। देश के प्रत्येक भाग में आम की भांति ही केले के पौधे मिलते है। प्रयोगों के आधार पर प्रदेश के पूर्वी तथा तराई वाले क्षेत्र केले की खेती के लिये लाभप्रद है। प्रति इकाई क्षेत्र से अधिक उत्पादन तथा आय प्राप्ति हेतु केला की खेती बेजोड़ है। केले का पौधा तथा पत्ते पूजा तथा अनेकों धार्मिक कार्यों के प्रयोग में आते हैं। केले का प्रयोग फल शाक-भाजी तथा आटे के रूप में किया जाता है। गृहवाटिका उद्यान के लिये केला उत्तम पौधा है।

भूमि तथा जलवायु:

अच्छे जल निकास वाली उपजाऊ, बलुई दोमट अथवा मटियार भूमि केले की खेती के लिये उत्तम है। गर्मतर सम-जलवायु केले की व्यावसायिक खेती के लिये उत्तम है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में केले की खेती सफल होती है। ठण्डे तथा तेज हवा व पाला पड़ने वाले क्षेत्र केले के लिये अनुपयुक्त हैं।

जातियाँ:

उपयोगितानुसार केले की जातियाँ दो भागों में विभाजित की जा सकती है:

1) पका कर खाने वाली

2) शाक-भाजी के लिये

पकाकर खायी जाने वाली जातियाँ बसराई, ड्वार्फ, हरीछाल, अल्पान तथा मालभोग प्रमुख है। शाक-भाजी के लिए मंथन, हजारा कैम्पियरगंज व कोठिया प्रमुख है।

प्रसारण:

केले का प्रसारण पुत्तियों द्वारा होता है, नर्सरी में दो-तीन माह पुरानी पुत्तियां लगाने योग्य हो जाती है। पुत्तियों के रोपण का समय 10 जून से 10 जुलाई तक होता है, लगाते समय भूमिगत तने का 45 सेमी. नीचे की ओर छोड़कर ऊपर का भाग काट देना चाहिये। यदि सिंचाई की सुविधा हो तो इसे अप्रैल-मई में भी लगा सकते हैं।

पौध रोपण:

प्रजाति के अनुसार पौधों का रोपण 2-3 मीटर पर करना चाहिए। बौनी प्रजातियों हरीछाल- रोबस्टा- का रोपण 1.5- 1.5 मीटर पर तथा कोठिया, कैम्पियरंगज 2.5-2.5 मीटर पर रोपित करना चाहिए।

खाद:

केले के लिये 200 ग्राम नत्रजन, 100 ग्राम फास्फोरस तथा 250 ग्राम पोटाश प्रति पौधा के हिसाब से देना चाहिये। पूर्ण फास्फोरस एवं आधा पोटाश तथा नत्रजन की एक तिहाई मात्रा पौधे लगाने के समय देना चाहिये।

एक तिहाई नत्रजन माह अगस्त सितम्बर तथा शेष एक तिहाई नत्रजन तथा शेष आधी पोटाश अगले वर्ष जून में फल आते समय देना चाहिए।

सिंचाई:

केले में पानी की अधिक आवश्यकता होती है। मैदानी भागों में गर्मी में सप्ताह में एक बार तथा जाड़ों में हर 15 दिन के अन्तर पर सिंचाई आवश्यक होती है। दो सिंचाई बाद निराई आवश्यक है। पानी की बचत के लिये पौधों को नाली में रखना चाहिये। इन्हीं नालियों में पानी देना चाहिये। पौधा जब बड़ा हो जाय तो उसकी जड़ों के चारों ओर मिट्टी चढ़ा देना चाहिये।

कटाई-छटाई:

केले के बारे में कहा जाता है कि "केला रहे अकेला"। केले के पौधे में निकलने वाली पुत्तियों को बराबर निकालते रहना चाहिए अन्यथा पैदावार पर इनका प्रभाव पड़ता है। अतः अगले वर्ष मई माह तक निकली हुई पुत्तियों को सावधानीपूर्वक निकाल कर क्यारियों में लगाते रहना चाहिए जिन्हें नये बाग में रोपण हेतु उपयोग करना चाहिए।

फलत:

पौधे लगाने के एक साल में फूल आने प्रारम्भ हो जाते हैं। फूल आने के लगभग चार माह में फल तैयार हो जाते हैं। जब केले की धार का विकास लगभग 1/2 हो चुका हो तब नीचे लटकते हुए लाल फूल के गुच्छे को काटकर अलग कर देते हैं। केले से लगभग 200-250 कु. प्रति हेक्टर पैदावार ली जा सकती है। फल वाले पौधे को आवश्यकता पड़ने पर बांस के डन्डे से सहारा दे देना चाहिए।

फलों को कृत्रिम ढंग से पकाना:

केले को कमरे में इकट्ठा कर पकाना अच्छी विधि है। कमरे के लगभग तीन भाग को केलों से भर देते हैं। फिर इन्हें केले की पत्तियों से ढक देते हैं। एक भाग के कोने में उपले आदि जलाकर धुआं देने की क्रिया 30-50 घण्टें तक करते हैं। पुआल या सूखी पत्तियों में रखकर भी बन्द कमरे में पका लेते हैं।

कीड़े तथा बीमारियां:

बंची टाॅप तथा अंगमारी प्रमुख बीमारियां है तथा बनाना बीटिल व तनाछेदक कीट द्वारा पौधों की हानि होती है। बंची टाॅप बीमारी विषाणु जनित है। ग्रसित पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिये। अंग मारी बीमारी से ग्रसित फलों पर प्रारम्भ में काले धब्बे बनते हैं, बाद में आपस में मिलकर बड़े हो जाते हैं। रोकथाम के लिये ताम्रयुक्त फफंदी नाशक दवा को पौधों पर छिड़कना चाहिये।

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