आज के लिए एक नवगीत-जगदीश पंकज

Update: 2021-07-28 13:49 GMT

आओ चलो प्रार्थनाओं के गीत लिखें

क्षमा-याचना

पछतावों की भाषा में ।

छोडें भाषा में

भदेशपन के नारे

चिंगारी को

दूर-दूर ही रहने दें

कितना पानी

बहा हमारी नदियों में

मत पूछो

बहता है जितना बहने दें

पतित-पावनी सरिताओं के गोमुख पर

लिखें वन्दना

फिर घावों की भाषा में ।

चलो समय के

संकोचों को दूर रखें

और नमन के

अभिनय का अभ्यास करें

साष्टांग बिछकर

प्रणाम की परिभाषा

दुहराने के फिर से

नये प्रयास करें

आओ चलो याचनाओं के गीत लिखें

बदले युग के

प्रस्तावों की भाषा में ।

हम जिस युग में

साँस ले रहे सकुचाकर

वहाँ असहमतिओं को

सीमित जगह मिली

सहज प्रश्न भी

जहाँ न उत्तर पाते हों

वहाँ जरा आहट से

किसकी नींव हिली

जब आतंक और भय पग-पग पर पसरे

कुछ हल खोजें

फिर गाँवों की भाषा में ।

--जगदीश पंकज (गाजियाबाद) 

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