आचरण का जिक्र हो, कुरैशी साहब की बात हो और विद्रोही जी की याद न आए यह संभव ही नहीं : शकील अख्तर

ग्वालियर के पत्रकारों में सबसे जनपक्षघर और जमीनी सच्चाईयों को जानने वाले। बेहद भले आदमी मगर पत्रकारिता के तेवर बहुत कड़े। ग्वालियर के अखबारों में गुजर नहीं हुई।

Update: 2021-09-13 13:47 GMT

आज के वक्त में कोई सोच भी नहीं सकता। शायद वह आखिरी दौर था अपना अख़बार शुरु करने का। और उसे कामयाबी के शिखर तक भी ले जाने का। कुरैशी साहब ने यही किया। ग्वालियर के ए एच कुरैशी। अनवर हुसैन कुरैशी। जिन्हें ज्यादातर लोग आचरण वाले कुरैशी जी के नाम से जानते थे।

आचरण एक समय ग्वालियर के तीन प्रमुख अखबारों में शामिल था। बाकी दो बड़े प्रतिष्ठान थे। भास्कर जिसकी आज देश भर में धूम है। ग्वालियर से ही पैदा हुआ था। और यहीं से उसने अपना नाम किया। सेठ द्वारिकाप्रसाद अग्रवाल भास्कर के मालिक थे। रमेश जी के पिता और सुधीर अग्रवाल के दादा। भास्कर के अलावा दूसरा बड़ा अख़बार स्वदेश था। यह आरएसएस का अखबार था। दोनों अख़बार ग्वालियर और उसके आसपास के इलाकों में छाए हुए थे। इनके बीच में एक तीसरा अख़बार अपनी जगह बना ले यह बहुत मुश्किल काम था। आफसेट आ चुकी थी। छपाई बहुत महंगी हो गई थी। और वही समय था जब अखबार खबरों से दूर जाकर रंगीन छपाई, पन्नों की साज सज्जा की दम पर पाठकों को आकर्षित कर रहे थे। ऐसे में कुरैशी साहब ने पत्रकारों की दम पर आचरण को ग्वालियर के दोनों बड़े अखबारों के मुकाबले खड़ा कर दिया।

आज सुबह ही यह स्तब्ध कर देने वाली दुखद खबर मिली की कुरैशी साहब नहीं रहे। हार्ट अटैक हुआ और शांति से वे चले गए। हालांकि वे शांत प्रवृति के व्यक्ति नहीं थे। बहुत बैचेन रहते थे। अपने अल्प साधनों में बड़ा सपना पूरा करना बहुत कड़ी मेहनत और नए विचार मांगता है। लगातार सालों साल वे यह करते रहे। और अब जब उनकी उम्र कोई बहुत ज्यादा नहीं थी 75 के आसपास थे, स्वस्थ थे अचानक चले गए।

आचरण का जिक्र हो, कुरैशी साहब की बात हो और विद्रोही जी की याद न आए यह संभव ही नहीं है। आचरण के नींव के पत्थरों में विद्रोही जी सबसे मजबूत स्तंभ थे। ग्वालियर के पत्रकारों में सबसे जनपक्षघर और जमीनी सच्चाईयों को जानने वाले। बेहद भले आदमी मगर पत्रकारिता के तेवर बहुत कड़े। ग्वालियर के अखबारों में गुजर नहीं हुई। उदयपुर चले गए। राजस्थान पत्रिका में। 1984 के आसपास कुरैशी साहब विद्रोही जी को वहां से लेकर आए। उसी समय हम भी आचरण में आए। डा. राम विद्रोही और कुरैशी साहब के बीच गजब का तालमेल था। हालांकि कुरैशी साहब के मिज़ाज में नहीं था किसी के साथ अधिकार बांटना। मगर विद्रोही जी को उन्होंने संपादकीय के पूरे अधिकार दे रखे थे। छोटा सा संपादकीय कमरा था। मगर विद्रोही जी की बड़ी सी टेबल। और उतने ही बड़े विद्रोही के अधिकार। हालांकि दिन में कई बार आते थे। क्या जा रहा है। क्या हो रहा है। और किसके पैकेट में सिगरेट है। सिगरेट विद्रोही जी भी पीते थे, हम भी और कुरैशी साहब भी। कुरैशी साहब ने दो खबरें पूछीं और पैकेट से एक सिगरेट निकाली और ये जा वो जा। मगर शाम को एनाउंस कर देते थे। अख़बार आज जल्दी छोड़ना। डिनर पर चलेंगे। पूरी संपादकीय टीम को लेकर क्वालिटी बार एंड रेस्टोंरेंट में। विद्रोही जी को अख़बार की फिक्र होती थी। वे संपादक थे। कोई बड़ी खबर न आ जाए। उन दिनों अख़बार आज की तरह जल्दी नहीं छोड़ा जाता था। दो बजे और कई बार तीन बजे तक का अपडेट भी ले लेते थे। विद्रोही जी किसी एक की ड्यूटि लगाकर जाना चाहते थे। मगर कुरैशी साहब सब को पकड़कर ले जाते थे। खाने पीने की वह पार्टियां अद्भूत होती थीं। कुरैशी साहब विद्रोही जी का ज्यादा ख्याल रखने की कोशिश करते थे कि वे अख़बार को भूलकर अपने ग्लास पर ध्यान लगा लें। मगर विद्रोही जी का ध्यान डवलपिंग स्टोरियों पर लगा रहता था। आचरण ऐसे ही ग्वालियर का चहेता अख़बार नहीं बना था। इसमें कुरैशी साहब का पत्रकारों को साथ लेकर चलना और विद्रोही जी की अख़बार के लिए प्रतिबद्धता बड़ी महत्वपूर्ण रही।

ग्वालियर सामंती मिजाज का शहर। सिंधियाओं का वर्चस्व। डाकुओं के प्रभाव वाला चंबल का इलाका। मगर जैसा कि कहते हैं कि विपरीत परिस्थितियों में ही नई सोच के रंग ज्यादा उभरते हैं। वैसे ही ग्वालियर में प्रख्यात जनकवि मुकुटबिहारी सरोज, प्रगतिशील आंदोलन के बड़े कवि, लेखक प्रकाश दीक्षित और पत्रकार लेखक डा. राम विद्रोही रहे। जिसका असर यह रहा कि अख़बार लाख यथास्थितिवादी होने और प्रतिगामी भी होने के बावजूद जनपक्ष को कुछ न कुछ स्पेस देने के लिए मजबूर रहे। लेकिन इनमें आचरण सबसे अलग इसलिए रहा कि वह आगे बढ़चढ़कर जनता की आवाज सुनने और उसे काफी हद तक सामने लाने की कोशिश करता था। जनपक्षधर पत्रकारिता की वहां हमेशा गुंजाइश रहती थी। हालांकि ऐसा नहीं था कि अख़बार मालिक कुरैशी साहब के किसी मुख्यमंत्री या बड़े नेता से कम संबंध थे। खूब संबंध होते थे। माधवराव सिंधिया जब कांग्रेस में आए और वाजपेयी के खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे तो हर थोड़ी थोड़ी देर में आकर यही पूछते थे क्या होगा?

बहुत मेहनत से उन्होंने अख़बार निकाला। दिल से निकाला। और जैसा कि बहुत सारे साथियों ने लिखा कि नाराज भी हो जाते थे और घर भी आ जाते थे। तो एक इन्सान के तौर पर बहुत सरल सहज थे। और महत्वाकांक्षा के स्तर पर बहुत बड़े सपने लिए। बहुत कुछ हासिल किया उन्होंने। मजबूत बैकग्राउन्ड के अखबारों के सामने अपना अख़बार खड़ा कर दिया। और सबसे बड़ी बात कि आज ग्वालियर के लोग, पत्रकार और खासतौर पर उनके साथ काम कर चुके पत्रकार उन्हें जिस प्यार, अपनेपन से याद कर रहे हैं, वैसा सम्मान अखबार मालिकों को कम ही मिलता है।

- शकील अख्तर 

 फेसबुक से साभार

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