धर्म के ऊपर का धर्म

सांप्रदायिकता दो तरह से काम करती है। एक बढ़त की सांप्रदायिकता और दूसरी घटत का। दोनों में से एक में जग जीत लेने का उछाह होता है और दूसरी में कम होते जाने का

Update: 2021-10-24 07:03 GMT

शंभूनाथ शुक्ल

कानपुर में एक ट्रेड यूनियन नेता थे त्रिपाठी जी। उनका अपने संस्थान से मुक़दमा चल रहा था था। संयोग से जिन जज साहब की कोर्ट में उनका मुक़दमा गया, उनका सरनेम भी तिवारी था। जस्टिस एज़े तिवारी। अपने नेता साहब जैसे ही कोर्ट में दाखिल हुए, उन्होंने जज साहब से आत्मीयता दिखते हुए कहा- "अहा! पंडित जी प्रणाम!!!" जज साहब भड़क गए, बोले- "व्हाट रबिश! आई एम नॉट ब्राह्मिन, आईएम अल्फ़्रेड जॉन तिवारी!" अब त्रिपाठी जी को काटो तो ख़ून नहीं, लज्जित मुद्रा में खड़े रहे।

इसी तरह की एक घटना मेरे साथ घटी। मैं उन दिनों चंडीगढ़ में जनसत्ता अख़बार का संपादक था। एक दोपहर मेरे पीए ने बताया कि सर अपने फ़ाज़िल्का के संवाददाता दीवान सिंह शुक्ला आए हैं, भेज दूँ? उनका शुक्ला सरनेम मुझे अपना-सा लगा। कहा, भेज दो। थोड़ी ही देर में एक बुजुर्ग सरदार जी सफ़ेद लंबी क़मीज़ और उतनी ही सफ़ेद लुंगी पहने हुए पधारे। उनके हाथ में एक लठ भी था। मैं उनकी सन जैसी दाढ़ी और लठ देख़ कर चौंका और कुछ भयभीत भी हुआ। उस जमाने में पंजाब में आतंकवाद भी ख़ूब चर्चा में था। फिर भी कहा बैठिए, बताएँ? वे बोले- जी मैं दीवान सिंह शुक्ला, त्वाडा फ़ाज़िल्का दा स्ट्रिंगर। अब मुझे अपने भय पर शर्म आई।

लेकिन ये दोनों बातें एक बात तो साफ़ करती हैं कि धर्म आपका निजी मामला है। आपके नाम से उसकी पहचान कोई आवश्यक नहीं। अगर नाम इसी तरह रखे जाएँ तो धार्मिक वैमनस्यता काफ़ी हद तक स्वतः समाप्त हो सकती है। जैसे आर्यन, आलिया, मीना, रीना, रीता, इक़बाल, मुन्ना या मुन्ने, नन्हें, छुट्टन आदि नाम ऐसे हैं जिनसे किसी का धर्म या मज़हब ज़ाहिर नहीं होता। समाज में जब धार्मिक कट्टरता नहीं होती तब ऐसे नामों का खूब चलन था, लेकिन जब बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता ज़ोर मारती है तब अल्पसंख्यक समुदाय भी अपने खोल में सिमटने लगता है तथा कट्टरता बढ़ती है। और इस तरह की उदारता हवा होने लगती है।

सांप्रदायिकता दो तरह से काम करती है। एक बढ़त की सांप्रदायिकता और दूसरी घटत का। दोनों में से एक में जग जीत लेने का उछाह होता है और दूसरी में कम होते जाने का। मुझे 1985 का वह वाक़या याद है जब अयोध्या में राम जन्मभूमि का ताला नहीं खुला था तब दिल्ली में विश्व हिंदू परिषद ने दो तरह के नारों की होर्डिंग्स से हर सड़क और नुक्कड़ को पाट दिया था। एक में लिखा था- "आओ हिंदुओ बढ़ कर बोलो, राम जन्मभूमि का ताला खोलो!" और दूसरा था- "जहां हिंदू घटा, वहाँ देश कटा!" इन दोनों नारों में एक बहुसंख्यक वाद का फलित था यानी अल्पसंख्यकों को भयभीत करो। दूसरे नारे में इशारे-इशारे में यह भी बताया गया था कि हिंदू ही भारत देश है। इसके निहितार्थ हुए कि हिंदू हित ही देश हित अथवा राष्ट्र हित है। क्योंकि हिंदू का कम होना देश का कमजोर होना है।

अब जब किसी देश में बहुसंख्यक इस तरह से सोचने लगता है वहाँ प्रतिक्रिया में अल्पसंख्यक समाज और संकीर्ण होता जाता है। उसके अंदर के अपने विरोधाभास ख़त्म होने लगते हैं और वह अन्य अल्पसंख्यक समाजों से एकरूपता कायम करने लगता है। जैसे 1984 के बाद सिख समाज अपनी अलग पहचान को लेकर और अधिक हठी हो गया। उसके अंदर जो एक खिलंदड़ी भाव था, वह नष्ट हो गया। उसकी एक चिंता यह भी हुई कि उसे अपनी आबादी भी बढ़ानी चाहिए। इसलिए 1984 के बाद कुछ वर्षों तक उनका ज़ोर अधिक बच्चों पर रहा। अब मुस्लिम के प्रति एक गाँठ तो यहाँ वर्षों से रही है और 1947 के बँटवारे के बाद से तो उसे खलनायक बना दिया गया। इसकी प्रतिक्रिया यह हुई कि जो मुसलमान भारत में रह गए वे अपने को एक घेरे में क़ैद करते गए। मसलन झुंड बना कर रहना, संभल कर प्रतिक्रिया व्यक्त करना और एक परिवर्तन यह आया कि उन्होंने स्वयं को इस बँटवारे का अपराधी मान लिया था। इसलिए बहुत लोगों ने अपने नाम हिंदुओं जैसे रख लिए थे।

किसी को एक बार तो आप लज्जित कर सकते हो लेकिन जब बार-बार उसी मुद्दे पर हमलावर रहोगे तो उसका जवाब भी मिलेगा। हिंदुओं के कट्टरपंथी तत्त्वों ने बार-बार उन्हें कठघरे में खड़े करना शुरू कर दिया तो उनकी नई पीढ़ी अपने को अपराधी क्यों माने! नतीजा उसके अंदर भी सांप्रदायिकता हावी होने लगी। और धर्म तो सदैव कट्टरपंथ को बढ़ावा देता है। यही हुआ भी। जितना हिंदू कट्टर हुआ उतना ही मुस्लिम भी। यही कारण है कि अब कोई रहीम नहीं होता, कोई नज़ीर अक़बराबादी भी नहीं। उलटे अब राहत इंदौरी की तरह वे भी पलट कर जवाब देते हैं कि 'सभी का ख़ून शामिल है यहाँ कि मिट्टी में, किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है!' यह आपसदारी के अभाव का नतीजा है कि मुसलमान को इस तरह सफ़ाई देनी पड़ती है और क़रारा जवाब भी।

लेकिन इस तरह का संवाद न बहुसंख्यक के लिए उचित है न अल्पसंख्यक के लिए। होना तो यह चाहिए कि इस तरह के सवाल ही न खड़े किए जाएँ। हर एक को यहाँ अपनी तरह से ज़िंदगी जीने की छूट हो। बस वह किसी अन्य की ज़िंदगी में ख़लल न डाले। सरकार का भी दख़ल लिमिटेड हो, इतना ही कि वह ऐसी किसी गतिविधि पर सख़्त नज़र रखे, जिससे किसी की निजता भंग न हो। जब ऐसी स्थिति होगी तब हम यह नहीं पता करेंगे कि अमुक आर्यन खान है या आर्यन मिश्र। इक़बाल सिंह अथवा इक़बाल चंद है या इक़बाल मोहम्मद! यक़ीन मानिए तब एक ऐसी आदर्श स्थिति होगी जब हमको अपने लोकतंत्र पर गर्व होगा। तब हम किसी के शुक्ला या तिवारी होने पर न अपनापन महसूस करेंगे न परायापन। पर क्या हम ऐसी स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं?

बुधवार को प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में एक अंतर्राष्ट्रीय एयर पोर्ट का उद्घाटन किया। किंतु अपने भाषण में उन्होंने चुटकी भी काट ली और ऐसी चुटकियों से एक समुदाय अपने को पृथक अनुभव करने लगता है। अगर बौद्ध समुदाय के लिए ही ऐसे सर्किट तैयार कर रहे हैं तो दिल्ली के निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह से लेकर आगरा के फ़तेहपुर सीकरी, अजमेर के ख़्वाजा जैसी सूफ़ी दरगाहों के लिए भी एक सर्किट होना चाहिए। ऐसा किया जाता है तो इस भारत देश का लोकतंत्र और समृद्ध होगा। या तो सरकार अलग-अलग पहचान वाले समाज, समुदाय धर्म से दूर रहे और अगर निकट जाए तो हर एक को पूरा सम्मान दे। हमारे देश में इतिहास के सबसे बड़े नायक महात्मा गांधी हुए हैं, उन्होंने रोज़ प्रार्थना की शुरुआत की। क्योंकि धर्म को वे जीवन का अपरिहार्य अंग मानते थे। लेकिन उनकी प्रार्थना में हर धर्म के भजन थे। ईश्वर, अल्लाह दोनों उनकी प्रार्थना में थे। क्या हम उनकी इस सर्वधर्म समभाव की नीति पर बढ़ पाएँगे?

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