हिन्दी में स्तरीय लेखन क्यों नहीं हो रहा है?

भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश में कोई व्यक्ति डीयू से एमए-पीएचडी या डीयू से बीए और आईआईएमसी से पत्रकारिता करके भी स्तरीय लेखन नहीं कर पा रहा है तो क्या जौनपुर या चंदौली इत्यादि में रहकर स्थानीय स्कूल-कॉलेज में शिक्षित होकर और वहीं कोई कामधाम करने वाले से उम्मीद की जाए कि वो स्तरीय लेखन करेगा?

Update: 2021-09-14 13:00 GMT

"हिन्दी में स्तरीय लेखन नहीं हो रहा।" कई सालों तक यह पँक्ति लिखने के बाद अचानक एक दिन मेरे जहन में यह सवाल आया कि 'हिन्दी में स्तरीय लेखन' किन लोगों को करना था जो नहीं कर रहे हैं। मैं ही नहीं, मेरे कई जानने वाले यही पँक्ति अनगिनत बार लिख चुके हैं। आज भी कई मेधावी जन यही पँक्ति लिखते नजर आये।

जब से मेरे जहन में यह सवाल उभरा है मैं उन लोगों की मेंटल प्रोफाइलिंग करता रहा हूँ जो इस तरह की पँक्ति लिखते हैं। इस तरह की पँक्ति सबसे ज्यादा वो लोग लिखते हैं जो इंग्लिश वालों के बीच में या आसपास रहते हैं। जौनपुर या गाजीपुर में रहकर लिखने-पढ़ने वाले में हिन्दी को लेकर ऐसी हीनता ग्रन्थि नहीं दिखती जो दिल्ली में आकर बौद्धिक कार्यों में लिप्त रहने वालों में दिखती है।

मसलन, कोई व्यक्ति दिल्ली मौजूद तीन केंद्रीय विश्वविद्यालयों में से किसी एक का छात्र रहा हो या आईआईएमसी जैसे नामी संस्थान से पत्रकारिता करके सेटल हो तो उसमें यह ग्रन्थि पाये जाने की सम्भावना बहुत ज्यादा होती है। कुछ के लिए तो हिन्दी-निन्दा ऑक्सीजन बन चुकी है। ऐसे लोग हिन्दी-निन्दा के दम पर जिन्दा हैं।

अब मान लीजिए कि भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश में कोई व्यक्ति डीयू से एमए-पीएचडी या डीयू से बीए और आईआईएमसी से पत्रकारिता करके भी स्तरीय लेखन नहीं कर पा रहा है तो क्या जौनपुर या चंदौली इत्यादि में रहकर स्थानीय स्कूल-कॉलेज में शिक्षित होकर और वहीं कोई कामधाम करने वाले से उम्मीद की जाए कि वो स्तरीय लेखन करेगा?

विलक्षण प्रतिभाएँ कहीं भी जन्म ले सकती हैं। वो कब कहाँ जन्म लेंगी कोई नहीं कह सकता लेकिन आम तौर पर जिसे उच्च गुणवत्ता वाली बौद्धिक कामकाज माना जाता है उसका शीर्ष बौद्धिक इदारों से सीधा सम्बन्ध होता है। फिर हिन्दी में ऐसा क्यों नहीं हो रहा? और जो आदमी हिन्दी कोप हिकार रहा है वह हिन्दी में क्या और कितना स्तरीय लिखता है? कहीं ऐसा तो नहीं उसकी वजह से ही हिन्दी का यह हाल है क्योंकि वह प्रतिभाविहीन होकर भी हिन्दी पट्टी के जातिगत-क्षेत्रगत दुरभिसंधियों की बदौलत कहीं मलाई चाटता रहा है और शर्मनिरपेक्षता की मीनार पर पर चढ़कर 'स्तरीय साहित्य' की हुआँ-हुआँ कर रहा है।

अभी भारतीय कॉलेज-यूनिवर्सिटी की रैंकिंग जारी हुई है। उस रैंकिंग के हिसाब से देश की शीर्ष 10 में से दो यूनिवर्सिटी में मैंने पढ़ायी की है। अगर देश की दो सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करके मैं स्तरीय लेखन नहीं कर पा रहा हूँ तो क्या मुझे इसकी जिम्मेदार नहीं लेनी चाहिए? क्या आपको नहीं लगता है कि सिस्टम, बैकग्राउण्ड इत्यादि के बहाने के एक्सपायर होने की एक उम्र होती है? स्तरीय लेखन के लिए लालायित हिन्दी लेखक किस उम्र में अपने किये की जिम्मेदारी लेंगे?

शैक्षणिक के अलावा वर्गीय दृष्टि से भी इस प्रश्न पर विचार करने की जरूरत है। अच्छी नौकरी करने वाले पत्रकार, प्रोफेसर, हिन्दी अधिकारी, प्रशासकीय अधिकारी इत्यादि अगर खुद स्तरीय लेखन नहीं कर रहे हैं तो फिर हम किस वर्ग से उम्मीद कर रहे हैं कि वो स्तरीय लेखन करेगा? आखिर स्तरीय लेखन हमेशा दूसरों को क्यों करना होता है? इन सवालों पर सोचने-समझने के बाद मैंने यह शिकायत बन्द कर दी की हिन्दी में स्तरीय लेखन नहीं हो रहा है क्योंकि वह मुझे ही करना था जो मैंने अब तक नहीं किया?

अब अगर इस विषय पर मुझे लिखना भी हुआ तो मैं 'हिन्दी में स्तरीय लेखन' नहीं हो रहा है, इसपर लिखने के बजाय ये लिखना पसन्द करूँगा कि मैं स्तरीय लेखन क्यों नहीं कर पाता! क्यों नहीं कर पाया! क्यों नहीं कर रहा!

-- रंगनाथ सिंह ( पूर्व पत्रकार, बीबीसी )

फेसबुक से साभार

Tags:    

Similar News