ठाकुर हरिनारायण सिंह
वर्ष 1979 की बात है। उन दिनों मैं महाकवि कालिदास स्मारक महाविद्यालय, चंदौना का छात्र था। मेरी इन्टर की परीक्षा का केंद्र आर.के. कालेज, मधुवनी पड़ा था। हम परीक्षार्थी छात्रों के बीच एक नेतानुमा लड़का आता था। वह बड़ा ही मिलनसार और छात्रों को प्रेरित करनेवाला था। मैं माड़वाड़ी लोगों के जिस खँडहरनुमा मकान में रहता था, वहाँ कुछ और भी कड़के रहते थे। सभी सुबह-शाम जोर-जोर से पढ़ते थे। पहले ही दिन मुझे उनकी हिन्दी और अँग्रेजी की रीडिंग में अशुद्धि नज़र आई। मैं उनके कमरे में गया और उनकी समझ को ठीक कर दिया। वे मेरे भाषा और व्याकरण ज्ञान से इतने प्रभावित हुए कि रोज-रोज मुझसे पूछने आने लगे। उनको मुझसे मदद मिलने लगी। उन लड़कों ने मुझे अपना गुरु-सा मान लिया था। छात्रों को मेरी रहन-सहन, फर्श पर मेरे बिछावन आदि को देखकर मेरी गरीबी का भी अंदाजा लग गया था। इसीलिए वे मुझसे सहानुभूति भी दिखाने लगे। शाम में हमलोग बाज़ार और चौक पर घूमने जाया करते थे। मैं होटल या फूटपाथ पर केवल भोजन करता था। सुबह-शाम डेरे में आकर ही कुछ रूखा-सूखा नास्ता करता था। किन्तु वे छात्र अक्सर चौक पर भुजे-पकौड़े आदि खाते थे। मेरे मना करने पर भी यदा-कदा वे मुझे भी अपने साथ शामिल कर लेते। हमारी टोली को वह नेतानुमा लड़का ही लीड करता था। वह बड़ा ही मिलनसार और छात्रों को प्रेरित करनेवाला था। माड़वाड़ी परिवार से लेकर कुछ बाहरी छात्रों पर भी उसका प्रभाव था। उसमें जबर्दस्त नेतृत्त्व क्षमता थी।
परीक्षा अब लगभग समापन की ओर थी। पेपर रोज-रोज नहीं होते थे, बीच-बीच में एक-दो दिनों का गैप होता था। इन्हीं छुट्टी के दिनों में एक दिन कुछ साथियों ने जनकपुर जाने का प्रोग्राम बनाया। उन्हें नेपाल से सस्ते कपड़े खरीदना और जनकपुर घूमना था। मेरे पास पैसे नहीं थे। इसीलिए मैंने वहाँ जाने से इनकार कर दिया। लेकिन उस छात्र नेता एवं कुछ माड़वाड़ी साथियों ने कहा कि आप पैसे की चिंता मत कीजिए। आपने हमलोगों को पढ़ाया है। इस नाते हमारा भी कुछ फर्ज बनता है। तमाम लोगों ने मिलकर मुझे ट्रेन से जयनगर होते हुए जनकपुर घुमाया।
गाड़ी जयनगर में बदलनी होती थी। जयनगर से उतरकर हमलोग पैदल ही नेपाली स्टेशन पहुँचे। वहाँ हमलोग नेपाली रेलगाड़ी पर सवार हुए। छोटे-छोटे डिब्बोंवाली छोटी रेलगाड़ी थी। जब सीटी देकर चलने लगी, तो ऐसा लगा, जैसे कोई बैलगाड़ी चल रही हो। उसकी गति इतनी धीमी थी कि कोई बीच में उतरकर पेशाब करके फिर गाड़ी में सवार हो सकता था। चलती ट्रेन में भी चढ़ना-उतरना आसन था। टिकट चेकर या नेपाली पुलिस भी आम मुसाफिरों के बीच घुलमिलकर बात कर रहे थे। केवल वेश-भूषा से ही वे हाकिम लगते थे, व्यवहार में वे बिलकुल सहज थे। कुछ स्टेशन पार करने के बाद हमलोग जनकपुर आये। जनकपुर के बाद रेलमार्ग नहीं था। हमलोग एकदम सुबह में ही चले थे। सबको भूख लगी थी। इसीलिए सबसे पहले भोजन करने का निर्णय हुआ। माड़वाड़ी साथियों ने वहाँ के सबसे अच्छे और महँगे होटल 'होटल होलीडे' को चुना, जहाँ अधिकतर विदेशी मेहमान ही ठहरते थे। होटल और वहाँ का रंग-ढंग देखकर मैं दंग रह गया।
हमलोग केबिन में बैठे। वहाँ ग्लास में पहले से टिसू पेपर, नैपकिन आदि सजे थे। नमक, चीनी और खानेवाले कुछ मशालों की छोटी-छोटी शीशी रखी थी। बेयरा आया और साथियों ने सादा भोजन का ऑर्डर दिया। वह सादा भोजन भी मेरे लिए पाँचों पकवान से कम नहीं था। विदेश के महीन चावल, दानेदार फ्राई दाल, मखाना मिक्स्ड सब्जी, अनेक तरह की भुंजिया, मिठाई, चपाती आदि सभी कुछ थे। मैंने छककर भोजन किया। सबका भुगतान साथियों ने किया। मुझे एक बात आज भी अखरती है कि सबने बैरे को टिप्स दिये, लेकिन मैंने नहीं दिया, जबकि मेरे पास कुछ पैसे थे।
इसके बाद सभी लोग कपड़े की दूकान पर गये। सबने ढेड़-सारे कपड़े लिये। जब मेरी बारी आई, तो मैंने कहा- ''मैं कुछ नहीं लूँगा।'' साथियों ने कहा- ''आप पैसे की चिंता मत कीजिए। हमलोग अपनी ओर से खरीद रहे हैं।'' साथियों के बहुत जोर देने पर मैंने पैंट का एक पीलाधारी कोरियन और शर्ट का कपड़ा लिया। उन दिनों पीलाधारी कपड़े का खूब प्रचलन था। कपड़े का थैला उसी दूकान में रखकर हमलोग नौलक्खा मन्दिर घूमे और शाम में फिर ट्रेन से लौट आये। कुछ ही दिनों बाद परीक्षा ख़त्म हो गयी। हमलोग एक-दूसरे से गले मिलकर विदा हुए। सभी ने एक-दूसरे का नाम पता डायरी में लिख लिया।
लेकिन पता लिखे के लिखे रह गये। बाद में किसी से कोई संपर्क नहीं हुआ। लगभग एक-डेढ़ महीने की दोस्ती में उन साथियों से बहुत कुछ मिला- प्रेम, स्नेह, बन्धुत्व, सहायता और आर्थिक मदद भी। पुपरी आकर मैंने साथियों के दिये कपड़ों का पैंट-शर्ट सिलवाया। जब तक मैं उन कपड़ों को पहनता रहा, मुझे उनकी याद आती रही। उसके बाद मैं अपनी घर-गृहस्थी और दुख-धनिया में इस कदर व्यस्त हो गया कि सब कुछ भूल गया। आज मुझे किसी का नाम याद नहीं। पर नेतानुमा उस लड़के का सौम्य व्यक्तित्व और धुंधली छवि मुझे बराबर याद रही।
वह लड़का और कोई नहीं, आज के चर्चित कांग्रेसी नेता प्रेमचन्द्र मिश्रा जी हैं। उनका व्यक्तित्व किसी राष्ट्रीय नेता से कम नहीं है। फ़िलहाल वे बिहार विधान परिषद् के सदस्य हैं। किन्तु देश में कांग्रेस और उसके छात्र संगठन (एन.एस.यू.आई.) को मज़बूत करने में उनका बहुत बड़ा योगदान है। वे छात्र जीवन में जितने सज्जन, सरल, निष्ठावान, समाजसेवा के प्रति समर्पित और ईमानदार थे, उतने आज भी है। उनका सौम्य व्यक्तित्व सहज ही छात्रों को आकर्षित कर लेता था। इंटर की परीक्षा के बाद उन्होंने सबका नाम-पता लिखा। मैंने भी उनका लिखा। लेकिन छात्र जीवन का वह सम्बन्ध कभी दुबारा ताजा नहीं हुआ।
वर्षों बाद जब एक दिन मैं प्रेमचंद मिश्रा को कांग्रेस के नेता के रूप में टीवी पर देखा, तो सहज ही चेहरा पहचान लिया। छात्र जीवन का वह सज्जन छात्र नेता मेरी नज़रों में घूम गया और मैंने अपने परिवार वालों को बताया कि हमलोग साथ-साथ परीक्षा दिये हैं। फिर वह संस्मरण भी सुनाया। तब से प्रेमचंद मिश्रा का जब भी कोई डिबेट होता है, मैं बड़े ध्यान से सुनता हूँ। सोचा था कभी मिलूँगा, तो बातें होंगी। फिर सोचता था कि इतने दिनों बाद वे मुझे पहचानेंगे कि नहीं? इसी असमंजस और समय के अभाव में आज तक मैं उनसे नहीं मिल सका।
जब अपनी कहानी लिखनी शुरू की, तो इस पड़ाव पर आकर मैंने दिनांक: 08/09/21 को उनसे फोन पर सम्पर्क किया और संकोचपूर्वक यादें साझा की। लेकिन उन्हें सब कुछ याद था। वे खुश हुए। उन्होंने मुझे पटना स्थित अपने आवास पर आने का निमंत्रण भी दिया। आज संयोग से मैं पटना में था। कल ही उनसे बातें हुई थीं और आज दिनांक: 23/09/21 को मुलाकात भी हो गयी। उनसे मिलकर मुझे आत्मीय आनन्द मिला।– ''अमृतं प्रिय दर्शनम।''