(आज 'अज्ञेय' का जन्मदिन पड़ता है। प्रस्तुत है इस मौक़े पर मेरे एक लम्बे संस्मरण का अंश…)
वह दिल्ली में अज्ञेय का कैवेंटर्स ईस्ट वाला घर था। छह साल बाद वहीं उनका प्रयाण हुआ। कभी इला डालमिया के पिता रामकृष्ण डालमिया का उद्यम रही कैवेंटर्स के आमने-सामने बने दो बँगलों में यह पूर्वी ठिकाना उजड़ी जायदाद की दास्तान आप कहता था।
मगर वात्स्यायनजी ने इसमें एक तरतीब ढूँढ़ ली थी। बागवानी में वे सिद्धहस्त थे। यह लगाव उन्हें विरासत में पिता से मिला था। उस घर में आगे उन्होंने एक खूबसूरत बगीचा विकसित किया। पर पीछे का हिस्सा निपट उजाड़ रहने दिया।
'उस तरफ जाने की इजाजत हर किसी को नहीं होती', कुछ चंचल मुद्रा में मुझ नाकुछ को जैसे विशिष्टता का अनुभव करते हुए उन्होंने कहा। इशारा उधर चलने के लिए उठने का था।
उनकी पसंदीदा दार्जिलिंग चाय की महक तब तक मेरे 'सौंदर्य-बोध' का हिस्सा नहीं बनी थी। उसे उसी साँस में सुड़ककर मैं उठ खड़ा हुआ। उनकी नजर पैनी थी। उठाते हुए प्याली को निहारकर बोले, आप चाय पीते हैं या दूध! मुझे सवाल तत्काल समझ में नहीं आया। या, कहना चाहिए, उनके मजाकिया स्वभाव का अभ्यस्त नहीं हुआ था। बाद में समझा कि अच्छी चाय का दूध और चीनी से दुश्मनी का नाता होता है।
बहरहाल हम बगीचे से निकले और घर के बाएँ खड़ी दो कोरों एक फिएट, दूसरी एंबेसडर की बगल से होते हुए पिछवाड़े के जंगल में प्रवेश कर गए।
वह सचमुच छोटा-मोटा जंगल ही था। दिल्ली के बीचोबीच किसी घर की चारदीवारी में ऐसा नजारा मेरे लिए तब भी अजूबा था, आज भी है। अलसाए पेड़, बेतरतीब झाड़-झंखाड़। घर के सामने तराशे हुए बगीचे में तो अजीब-सी चुप्पी थी, पर इस जंगल का सन्नाटा मोहक था और सुनाई पड़ता था। जैसे 'अज्ञेय' के व्यक्तित्व के दो रूपों की छाया हो।
दो चेहरों की तरह उस घर का आगा-पीछा उन्होंने दो नितांत भिन्न ध्रुवों पर रच रख था। जिस तरह अपने रूपों को वे चाव से जी लेते थे, वनस्पतियों की यह दूरी भी चाव से पाटे रखते थे। पर उनका मन शायद पीछे के एकांत में ज्यादा रमता था!
उस सन्नाटे को अचानक पक्षियों की चहचहाहट वेधती और फिर जैसे उसी सन्नाटे में विलीन हो जाती। प्रकृति पर अज्ञेय की हजार कविताएँ होंगी, पर उनके घर में प्रकृति-प्रेम का वह जीता-जागता रूपकार मेरे दिलोदिमाग पर आज भी ज्यों-का-त्यों छाया है।
— ओम थानवी, "छायारूप" संस्मरण से
[फ़ोटो: अज्ञेय के साथ मेरी यह तसवीर राजस्थान विश्वविद्यालय के अतिथि-गृह के बगीचे में लियाक़त अली भट्टी (अब मरहूम) ने खींची थी। 1981]